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150 करोड़ वर्ष पुराना इतिहास समेटे हैं सलखन के जीवाश्म, हम सहेज भी नहीं पा रहे
योगेश मिश्र
हम अतीत जीवी भले ही हों। भले ही हममें अपने स्वर्णिम इतिहास पर इतराने का चलन हो पर उसे सहेज कर रखना, संरक्षित रखना हम नहीं सीख पाए हैं। फासिल्स संरक्षण के लिहाज से सोनभद्र जनपद के सलखन पार्क के रखरखाव और संरक्षण के मामले में हमारी कमी दुनिया भर में उजागर हो चुकी है।
चंद्रकांता के अमर प्रेम के मौन साक्षी विजयगढ़ दुर्ग के ठीक दायीं ओर आदिममानव द्वारा बनाए गए गुफा चित्रों को देखने उमड़े विदेशी सैलानियों को माउंट आबू या मसूरी होने का भ्रम आसानी से पैदा हो सकता है। यह बात दीगर है कि ये दिलकश नजारे कैमूर वन्य जीव विहार मिर्जापुर में फैले फासिल्स पार्क की उपस्थिति और इसके प्रति अंतर्राष्ट्रीय सैलानियों के आकर्षण की कहानी कहते हैं। पश्चिमी देशों की उपलब्धियों पर मोहित होने की आदत ने हमें इस लायक भी नहीं छोड़ा कि हम महत्वपूर्ण उपलब्धियों पर अपनी पीठ थपथपा सकें।
जबकि सोनभद्र में ही एक और जटाशंकर फासिल्स पार्क के अस्तित्व ने जनपद को ही नहीं, बल्कि प्रदेश को भी अंतर्राष्ट्रीय मानचित्र पर ला दिया। इसने पृथ्वी पर जीवन के प्रारंभ के प्रमाण उपलब्ध कराए हैं। लेकिन दुखद पहलू यह है कि हम यानी हमारी इतने महत्वपूर्ण और प्राचीनतम इतिहास को सहने में भी गंभीर नहीं दिख रही।
पहली बार 1831 में सामने आये गंभीर तथ्य
इस स्थल की जानकारी वैज्ञानिक मैकलैनन ने 1831 में दुनिया को दी, लेकिन इसके 112 साल बाद 1933 में जे.वी. आर्डन ने सलखन आकर व्यापक अध्ययन से यह साबित किया कि अमेरिका के यलो स्टोन नेशनल पार्क से भी फासिल्स के बेहतर उदाहरण यहां मौजूद हैं। हालांकि राज्य सरकार को यह सच स्वीकार करने में इसके बाद भी 69 साल लगे।
प्रदेश के आखिरी छोर पर छतीसगढ़, मध्यप्रदेश, बिहार और झारखंड की सीमाओं से जुड़े सोनभद्र जिला मुख्यालय से महज 20 किलोमीटर दूर वाराणसी शक्तिनगर स्टेट हाईवे पर सलखन गाँव के समीप पहाड़ी पर स्थिति सैकड़ो की संख्या में फासिल्स न सिर्फ देखने वालों को विस्मित करते है। बल्कि वैज्ञानिकों के मुताबिक कभी यहाँ समुद्र होने का एहसास भी करते है। शुरू से ही वन विभाग की कैमूर वन्यजीव वन प्रभाग के जिम्मे चल रहे इस पार्क के रख रखाव पर छोटे मोटे पार्क का रूप दिया जाता रहा किंतु कभी उस स्तर के प्रयास नही किये गए जिससे जिले या प्रदेश स्तर पर भी पहचान बन सके।
15 वर्ष पूर्व 8 अगस्त 2 को तत्कालीन जिलाधिकारी भगवान शंकर ने इतनी जागरूकता दिखाई की उक्त स्थान पर एक कार्यक्रम आयोजित कर पार्क का नाम देते हुए अपने नाम का एक शिलापट्ट जरूर लगवा लिया। स्थानीय लोगो के अनुसार 1980 के आसपास इन चीज़ों के किसी जानकार तत्कालीन वन विभाग से जुड़े अधिकारी ने प्राइड ऑफ सलखन के नाम से मुख्य मार्ग के किनारे एक बोर्ड भी लगवा रखा था जो कालांतर में दुर्व्यवस्था की भेंट चढ़ गई।
प्रोफ़ेसर नागेश्वर दुबे की मुहिम
वरिष्ठ भू वैज्ञानिक और स्थानीय निवासी प्रोफेसर डॉ नागेश्वर दुबे इसमें बहुत रूचि लेकर लगे हैं। वह स्वयं मौजूदा समय मे आदिस अब्बाबा साइन्स एन्ड टेक्नॉलॉजि विश्वविद्यालय(AASTU) इथोपिया में प्रोफेसर है। उनकी माने तो यह सीधे सीधे जीव की उत्पत्ति से जुड़ा है और सौभाग्य की बात है कि इतना क्लियर और भारी संख्या में जीवाश्म सलखन में ही मौजूद है। प्रोफेसर दुबे ने बताया कि 1982 से लगातार उनका खुद भी इनक्षेत्रो पर काफी अध्ययन रहा है 1958 से 65 तक प्रोफेसर माथुर, 1980 से 81 तक प्रोफेसर एस कुमार सहित बीरबल साहनी इंस्टीट्यूट लखनऊ के कई वरिष्ठ वैज्ञानिकों ने इस पर गहन अध्ययन किया है।
काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में जीवाश्म शास्त्र के अध्यक्ष प्रोफेसर राम मूर्ति सिंह ने 1961-62 में अगोरी से विजयगढ़ तक भू रासायनिक अध्ययन में इसे इस्ट्रोमैटोलाईट के रूप बताया है। वह बताते हैं कि 12 सौ मिलियन वर्ष पुरानी यह घटना, यह तो सिद्ध करती ही है कि इन क्षेत्रों में कभी समुद्र हिलोरे लिया करता था । साथ ही जीव की उत्पत्ति से जुड़ी को भी दर्शाती है।
प्रोफेसर नागेश्वर दुबे के अनुसार लखनऊ विश्वविद्यालय के अवकाश प्राप्त प्रोफेसर एस कुमार का इस पर विशेष आकर्षण और ध्यान रहा। उन्होंने भी इसे स्ट्रोमाटोलाईट का नाम दिया और बताया कि जैसे मानव में जीनस होमो है और स्पीशीज है शैपियन, ठीक उसी तरह इसमें conophyton होमो और gargenicus है सैपियन जिसे conophyton gargenicus और conophyton cylendricus के रूप में स्पष्ट किया गया ।
150 करोड़ वर्ष पुराने फासिल्स को देखकर नाचने लगे हॉफमैन
5 दिसम्बर, 2002 में विश्वविख्यात भू-वैज्ञानिक एवं मैकनिल यूनिवर्सिटी कनाडा के प्रो. एच.जे. हाफमैन यहां पहुंचे तो 150 करोड़ वर्ष पुराने फासिल्स को देख अपनी प्रसन्नता नहीं रोक सके। उन्होंने नाचते हुए कहा, पूरे विश्व में इससे खूबसूरत और स्पष्ट फासिल्स कहीं है ही नहीं। सोनभद्र में जगह-जगह फैले स्टेमेटोलाइट सिर्फ लाइमस्टोन के पत्थर मात्र नहीं हैं यह बल्कि डेढ़ अरब वर्ष पुराने जीव-जगत की जीती-जागती प्रयोगशाला है।
अमेरिका से आई दो महिला वैज्ञानिक मिस पोर्टर व लिंडा ने भी माना था। 'सुलखन के फासिल्स 150 करोड़ वर्ष पुराने व परिपक्व हैं। जबकि यलो स्टोन अमेरिका के फासिल्स अभी भी निर्माण प्रक्रिया में हैं। अमेरिका का येलो पार्क क्षेत्रफल और फासिल्स की संख्या में इससे कहीं छोटा है।
इन जीवाश्मों में अभी भी है जीवन
ऐसा नही की आजादी के बाद ही हमने देखा सुना बल्कि जियोलाजिकल सर्वे ऑफ इंडिया के मेमोआर वॉल्यूम 62(2) पृष्ठ संख्या 141 से 250 को देखे तो auden JB ने 1927 से 1930 तक के अध्ययन के बाद 1933 में विंध्य सेडीमेंट इन द सोन वैली मिर्ज़ापुर के नाम से इस पर प्रकाश डाला गया है । जियोलाजिकल सर्वे ऑफ इंडिया के पूर्व निदेशक रविशंकर, बीरबल साहनी पुरावनस्पति विज्ञान संस्थान, लखनऊ के डॉ. मुकुंद शर्मा का संयुक्त दल अपने अध्ययन में इसे 1.7 अरब वर्ष पुराना होने का दावा कर चुका है। इसके अध्ययन से पृथ्वी के घूमने की गति का भी निर्धारण किया जा सकता है। डॉ. मुकुंद शर्मा कहते हैं, 'यलो पार्क में जो चीजें हैं वह आज भी मिलती हैं। जबकि सलखन पार्क के फासिल्स दुर्लभ हैं।
इसी दल की सदस्या डॉ. पूर्णिमा श्रीवास्तव का दावा है, 'इन जीवाश्मों में अभी भी जीवन दिखता है। यह जीवमय हैं। इन जीवाश्मों के बारे में इंटरनेशनल सोसाइटी फॉर द ऑरिजिन ऑफ लाइफ के दक्षिण एशियाई सदस्य प्रो. वी.सी. तिवारी ने दावा किया था, 'जीवन की संरचना में इस क्षेत्र की महत्वपूर्ण भूमिका रही है। सोनभद्र जिले के सलखन और बरगंवा के फासिल्स शैवाल निर्मित जीवाश्म हैं जिन्हें वैज्ञानिक भाषा में स्टे्रमेटोलाइट कहते हैं। फासिल्स पार्कों का जिक्र ऋग्वेद की सृष्टि सुक्त में भी आता है।
एक किवदंती के मुताबिक अगस्त ऋषि ने कैमूर वन्य क्षेत्र में समुद्र को सोख लिया था। फासिल्स के अस्तित्व ने इस तथ्य पर भी वैज्ञानिकों मुहर लगा दी कि सोनभद्र में कभी समुद्री लहरें हिलोरें मारा करती थीं, क्योंकि वैज्ञानिकों के अनुसार सलखन के फासिल्स का निर्माण समुद्र में हुआ था।
कैमूर और कैलाश
प्रो. मूलशंकर शर्मा ने यहां जल होने की व्याख्या के लिए कैमूर और कैलाश की यूं परिभाषित किया था, कै यस्य मूल: (यानी कि जल जिसकी जड़ में हो) ऐसा कैलाश मानसरोवर में है। ठीक यही स्थिति कैमूर में भी है। हालांकि कुछ धार्मिक जानकार काष्ठ जीवाश्म को उन दानवों की अस्थियां मानते हैं जो भगवान विष्णु द्वारा मारे गये थे। फासिल्स की सबसे पहली खोज 1721 में यूरोपीय प्रकृति प्रेमी एम.सोनेरत ने की थी।
अपने समय में बच्चों ही नहीं, बड़ों के लिए बेहद आकर्षण का केन्द्र बनी फिल्म जुरासिक पार्क ने आम लोगों को फासिल्स यानी जीवाश्म से परिचित कराया है। फासिल्स यानी जीवन की अश्मिकी, यानी वनस्पति। जानवर इत्यादि का चट्टानों में प्रतिरूप। जीवाश्म का मिलना एक दुलर्भ घटना मानी जाती है। डार्विन के सिद्धांत विकासवाद की पुष्टि भी जीवाश्मों द्वारा ही संभव हुई है।
पर्यटन के मानचित्र में जीवाश्म पार्क है ही नहीं
तकरीबन 25-25 हेक्टेयर क्षेत्रफल में फैले दो फासिल्स पार्कों के चलते समूचा विश्व सोनभद्र से ईष्र्या कर रहा है जबकि विश्व के पर्यावरण एवं प्रकृति प्रेमी विकास की कहानी सुनाते इन पत्थरों के प्रति बेहद जिज्ञासु हैं लेकिन विश्व मानव संस्कृति, सभ्यता एवं विकास की कहानी का यह स्थल प्रशासनिक उपेक्षा का दंश झेलने को अभिशप्त है। बीरबल साहनी पुरावनस्पति संस्थान के वैज्ञानिकों की बड़ी मशक्कत के बाद इस फासिल्स पार्क के चारों ओर वन विभाग कटिले तार लगा पाया है।
पार्क के अंदर सैलानियों के बैठने के लिए इलाकाई लोगों की लंबी जद्दोजहद के बाद कुछ बैंचें बन पाई हैं। अमेरिका के यलो स्टोन पार्क में 800 रूपए प्रवेश शुल्क होने के बावजूद हर साल 20 से तीस लाख लोग अमेरिकी जीवाश्म पार्क का लुत्फ उठाकर 200 से 240 करोड़ रुपए की आमदनी कराते हैं, लेकिन सोनभद्र के इन जीवाश्म पार्कों में कोई प्रवेश शुल्क नहीं है बावजूद इसके लोगों को यहीं जाना गंवारा नहीं है।
प्रदेश के पर्यटन विभाग और वन विभाग के नक्शों के महत्वपूर्ण स्थानों में भी वह जीवाश्म पार्क अभी तक नहीं चढ़ पाया है। अमेरिका के यलो स्टोन नेशनल पार्क की खोज 1830 में हुई और महज 40 साल बाद 1870 में सरकार ने इसे अपनी धरोहर घोषित कर दिया, लेकिन केंद्र और उत्तर प्रदेश सरकार को सोनभद्र के इन जीवाश्म पार्कों की धरोहर घोषित करने में 200 साल लगे। वर्ष 2002 में इन फासिल्स पार्कों को धरोहर का दर्जा दिया जा सका पर स्थानीय प्रशासन की लापरवाही की वजह से मूर्ति तस्कर और पत्थर माफियाओं की नजर इस पार्क पर है। उससे यह स्पष्ट होता है कि इसे धरोहर घोषित करने का कोई मायने नहीं रह गया है।
राज्यपाल, राज्य सरकार ही नहीं, केन्द्र सरकार को भी कई बार यहां के लोगों ने ज्ञापन भेजे हैं। चिट्ठिया थमाई हैं, पर्यावरण, पर्यटन और वन महकमे से खतों-किताबत की हैं। पर सब कुछ नक्कारखाने में तूती की आवाज बन कर रहे गया। तभी अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर फासिल्स अपनी गोद में समेटे सलखन पार्क न सिर्फ उपेक्षा का दंश झेल रहा है, बल्कि इस इलाके में स्थित हजारों वर्ष पूर्व आदिमानव द्वारा पहाडिय़ों पर बनाए गये चित्र पर भी खनन माफियाओं की नजर इस कदर है कि वे नष्ट हो रहे हैं। इन्हें गिट्टी बनाकर कौडिय़ों के भाव बेचा जा रहा है। ऐसे में जिलाधिकारी के मुख्य गेट पर लिखा 'पर्यावरण रक्षा, जीवन रक्षा सूत्र वाक्य आने-जाने वाले को मुंह चिढ़ाता प्रतीत होता है।
बहरहाल वैज्ञानिक दृष्टिकोण से यह भले ही विश्व का अजूबा और एक मात्र हो मगर किसी भी सरकार के लिए न तो अजूबा है और न तो एक मात्र। सरकारें बहुत बदल चुकीं। हर सरकार ने दावा किया कि इस अजूबे जीव की उत्पत्ति से जुड़ी करोडो वर्ष प्राचीन विरासत को संरक्षित किया जाएगा लेकिन कभी कुछ होते दिखा ही नहीं। मौजूदा सरकार की जिले की प्रभारी मंत्री अर्चना पांडेय ने भी अपने निरंतर दौरे में जाना सुना और कहा कि सरकार पर्यटन के लिए काफी गंभीर है और इसे भी गंभीरता से ही देखा जाएगा । अब देखना यह है कि अंतरराष्ट्रीय स्तर की वैजानिक पहचान रखने वाला यह जीव की उत्पत्ति का प्रमाण खुद को सुरक्षित रख पाता है या जीव इसे खुद ही अंधेरे में गुमनामी जीवन जीने को विवश कर देंगे ।
(साथ में सोनभद्र से सुनील तिवारी)
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