TRENDING TAGS :
पश्चिम बंगाल में शह-मात का खेल, ममता सरकार फेल
नीलमणि लाल
कोलकाता: लोकसभा चुनाव पूरा होने के बाद भी पश्चिम बंगाल में खूनी हिंसा खत्म होने का नाम नहीं ले रही। भाजपा और तृणमूल कांग्रेस के बीच लोकसभा चुनाव के दौैरान सियासी लड़ाई की खाई इतनी गहरी हो चुकी है कि चुनाव नतीजे आने के बाद खूनी हिंसा का दौर शुरू हो चुका है। लोकसभा चुनावों के बाद हिंसा में १५ से ज्यादा लोगों की जान जा चुकी है। केंद्र ने राज्य सरकार को कानून व्यवस्था की स्थिति सुधारने की सलाह दी है और इस हिंसा पर रिपोर्ट मांगी है। हिंसा के लिए टीएमसी और भाजपा एक-दूसरे को जिम्मेदार ठहरा रहे हैं। राज्य में हिंसा के विरोध में भाजपा काला दिवस मना चुकी है, लेकिन हिंसा का दौर लगातार जारी है। तृणमूल कांग्रेस ने इसे भाजपा की गहरी साजिश करार दिया है।
राज्य में ममता बनर्जी ने ‘पोरिबोर्तोन’ (परिवर्तन या बदलाव) नाम के जिस हथियार से साढ़े तीन दशक के सीपीएम शासन का अंत किया था अब वही हथियार आठ साल बाद भाजपा के हाथों में जाता दिख रहा है। अब भाजपा ने अपने ‘जय श्रीराम’ के नारे के साथ ‘पोरिबोर्तोन’ को जोड़ दिया है। ऐसे में ध्रुवीकरण की धारा के साथ लाल से हरा हुआ बंगाल अब भगवा की ओर रुख कर रहा है। भाजपा ने ममता को मुस्लिम तुष्टिकरण करने वाली नेता के तौर पर चिन्हित करना शुरू कर दिया है। भाजपा अब ममता बनर्जी के लिए ममता बानो शब्द का प्रयोग करती है।
लोकसभा चुनाव के बाद बंगाल में गजब की राजनीतिक उथल-पुथल दिख रही है। पश्चिम बंगाल बंटा दिखाई दे रहा है। उत्तर बंगाल जहां भगवे में रंगा दिखता है तो दक्षिण बंगाल खुद को हरा ही देखना चाहता है। वाममोर्चा का लाल रंग कुछ हिस्सों में छिटका दिख रहा है। ऐसे में प्रयोग के तौर पर तृणमूल कांग्रेस बंगाली और गैर बंगाली, स्थानीय और बाहरी, तृणमूल समर्थक और विरोधी जैसे कई मुद्दे उठा रही है। भाजपा के जय श्रीराम के नारे के जवाब में ममता बनर्जी के जय हिंद और जय बांग्ला के नारे से इस तरह के मुद्दों को उछाले जाने की स्थिति बन रही है।
भाजपा की रणनीति में तृणमूल कांग्रेस में दरार पैदा करना भी शामिल है जिसके तहत ममता की पार्टी के छोटे-बड़े नेताओं को भाजपा में शामिल कराया जा रहा है। इसके अलावा भाजपा बहुत सावधानी से अपने जमीनी स्तर के संगठन को मजबूत कर रही है।
लोकसभा चुनाव के नतीजों से ममता को झटका
लोकसभा चुनाव के समय सबसे तीखा चुनाव प्रचार पश्चिम बंगाल में ही देखने को मिला था। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह ने उत्तर प्रदेश के बाद सबसे ज्यादा ताकत पश्चिम बंगाल में ही लगाई थी। भाजपा के इन दोनों शीर्ष नेताओं की उत्तर प्रदेश के बाद सबसे ज्यादा रैलियां पश्चिम बंगाल में ही हुई। यूपी के सीएम योगी आदित्यनाथ ने भी राज्य में कई सभाएं की थीं। इसी का नतीजा था कि 2014 के लोकसभा चुनाव में मोदी लहर के बावजूद राज्य में दो सीटें पाने वाली भाजपा 18 सीटों पर पहुंच गई और 2014 के लोकसभा चुनाव में 34 सीटों पर चुनाव जीतने वाली टीएमसी 22 सीटों पर सिमट गई। पश्चिम बंगाल के चुनाव को प्रतिष्ठा का प्रश्न बनाने वाली ममता बनर्जी को इन चुनावी नतीजों से गहरा झटका लगा है। ममता को भी उम्मीद नहीं थी कि भाजपा इतनी सीटें जीतने में कामयाब हो जाएगी। दूसरी ओर भाजपा को ऐसे ही नतीजों की उम्मीद थी। भाजपा ने इसी कारण चुनाव में पूरी ताकत लगा रखी थी और उसे बीस से अधिक सीटों की उम्मीद थी।
भाजपा ने दिया जय श्रीराम का नारा
इस बार के लोकसभा चुनाव में मुसलमान वोटरों में 63 फीसदी ने तृणमूल कांग्रेस और हिंदू वोटरों में से 51 फीसदी ने भाजपा को वोट दिया। भाजपा अब राज्य के 25 लोकसभा क्षेत्रों के हिंदू बहुल इलाकों में जोरशोर से जय श्रीराम के नारे लगा रही है। राज्य में भारतीय जनता पार्टी के बढ़ते प्रभाव से मुकाबले के लिए ममता बनर्जी ने अगले विधानसभा चुनावों की तैयारियों के लिए प्रशांत किशोर की मदद लेने का फैसला किया है। दिलचस्प बात है कि 2014 के चुनाव में प्रशांत किशोर ने जिस भाजपा को दिल्ली की सत्ता पर काबिज होने में मदद की, अब वह उसे ही बंगाल में रोकने की रणनीति बनाएंगे। लोकसभा के अंतर्गत आने वाले विधानसभा क्षेत्रों में मिली बढ़त के आंकड़ों के हिसाब से तृणमूल कांग्रेस ने राज्य की 294 सीटों में से 164 पर जीत हासिल की है। लोकसभा सीटों के हिसाब से यह आंकड़ा 22 है। दूसरी ओर, भारतीय जनता पार्टी ने लोकसभा की 18 सीटें जीती हैं। पार्टी ने विधानसभा की 121 सीटों पर विजय हासिल की है। भाजपा को बंगाल में लगभग 41 फीसदी वोट मिले हैं जबकि तृणमूल कांग्रेस को 43 फीसदी।
भाजपा-टीएमसी में खिचीं तलवारें
राज्य के उत्तर २४ परगना, बशीरहाट, नादिया इलाकों में खासतौर पर हालात खराब हैं। उत्तर 24-परगना जिले के पार्टी अध्यक्ष व खाद्य मंत्री ज्योतिप्रिय मल्लिक आरोप लगाते हैं कि राज्य की सत्ता पाने की हड़बड़ी में ही भाजपा आतंक की राजनीति का सहारा ले रही है। उन्होंने केंद्र सरकार पर भी पक्षपात करने का आरोप लगाया है। मल्लिक का सवाल है कि केंद्रीय गृह मंत्रालय ने तृणमूल कार्यकर्ता की हत्या के मामले में कोई रिपोर्ट क्यों नहीं मांगी? वह कहते हैं, ‘अमित शाह को यह बात याद रखनी चाहिए कि वह देश के गृहमंत्री हैं, भाजपा के नहीं।’
दूसरी ओर भाजपा नेता और सांसद दिलीप घोष ने राज्य में हिंसा और पार्टी कार्यकर्ताओं की हत्या के लिए मुख्यमंत्री ममता बनर्जी को जिम्मेदार ठहराया है। वह कहते हैं कि पैरों तले की जमीन खिसकते देख कर ममता अब हिंसा का सहारा ले रही हैं। राज्य में कानून व व्यवस्था की स्थिति पूरी तरह ध्वस्त हो चुकी है। पार्टी के नेता मुकुल राय भी यही आरोप लगाते हैं।
सबक सिखाने का मौका
भाजपा नेता शिशिर बाजोरिया कहते हैं कि तृणमूल कांग्रेस के राजनीतिक पतन का दौर एक साल पहले हुए पंचायत चुनावों से ही शुरू हो गया था जब पार्टी के कार्यकर्ताओं पर आरोप लगा कि उन्होंने 35 फीसद लोगों को वोट नहीं डालने दिया। ये 35 फीसद लोग तृणमूल कांग्रेस को सबक सिखाने का मौका ढूंढ़ रहे थे। पंचायत चुनाव राज्य के प्रशासनिक अमले की देखरेख में होते हैं जबकि लोकसभा चुनाव सीधे तौर पर भारत के चुनाव आयोग की देखरेख में। इस बार इन 35 फीसदी लोगों ने भाजपा को बंगाल की राजनीति में बड़ा खिलाड़ी बना दिया है।
हिंसा से सियासी माहौल गरमाया
लोकसभा चुनाव के नतीजों के बाद से ही तृणमूल कांग्रेस और भाजपा के बीच शुरू हुई सियासी हिंसा में अब तक पंद्रह लोगों की मौत हो चुकी है। इनमें दोनों दलों के लोग शामिल हैं। हालांकि अगर इन दोनों दलों के दावों को मानें तो मृतकों की तादाद दो दर्जन के पार चली जाएगी। इन हत्याओं के बाद राज्य में सियासी माहौल लगातार गरमा रहा है। दोनों दलों के नेता इस हिंसा के लिए एक-दूसरे को जिम्मेदार ठहरा रहे हैं, लेकिन तथ्य यह है कि अपनी जमीन बचाने और मजबूत करने की इस कवायद में ‘जिसकी लाठी उसकी भैंस’ की तर्ज पर कोई भी पीछे नहीं हट रहा है। लोकसभा चुनावों में भाजपा से मिले तगड़े झटके के बाद तृणमूल कांग्रेस जहां अपने पैरों तले की जमीन बचाने के लिए जूझ रही है वहीं भाजपा अपनी जमीन और मजबूत करने के लिए जुटी हुई है।
बर्खास्तगी मुश्किल
भाजपा के राष्ट्रीय महासचिव और पश्चिम बंगाल प्रभारी कैलाश विजयवर्गीय ने कहा है कि राज्य में अगर इसी तरह से हिंसा जारी रही तो निश्चित तौर पर केंद्र को हस्तक्षेप करना पड़ सकता है और प्रदेश में राष्ट्रपति शासन लगाया जा सकता है। किसी राज्य में अगर कानून-व्यवस्था पूरी तरह से ध्वस्त हो जाती है तो प्रदेश के राज्यपाल की रिपोर्ट के आधार पर केंद्र सरकार संविधान के अनुच्छेद 356 का प्रयोग कर उस प्रदेश की सरकार को हटाकर राष्ट्रपति शासन लगा सकती है। हालांकि अनुच्छेद 356 के इस्तेमाल को हमेशा से ही दोधारी तलवार माना जाता है। इस बार भी भाजपा पश्चिम बंगाल में राष्ट्रपति शासन लगाने को लेकर संशय की स्थिति में है।
राष्ट्रपति शासन को लेकर दो राय
दरअसल, पार्टी के एक खेमे को यह लग रहा है कि राष्ट्रपति शासन लगाकर जल्दी विधानसभा चुनाव करवाने से भाजपा को फायदा मिल सकता है, लेकिन एक खेमे का यह भी मानना है कि जल्दबाजी करने की कोई जरूरत नहीं क्योंकि वहां 2021 में तो चुनाव होना ही है। इस खेमे का मानना है कि भाजपा की लोकप्रियता लगातार बढ़ रही है, ममता बनर्जी की पार्टी में भगदड़ मची हुई है सो ऐसे में राष्ट्रपति शासन लगाने से ममता बनर्जी को सहानुभूति लहर का लाभ मिल सकता है। ममता बनर्जी खुद को पीडि़त साबित करके प्रदेश की जनता को लुभाने की कोशिश कर सकती हैं और राष्ट्रीय स्तर पर भी तमाम विरोधी दल इस मसले पर ममता के साथ खड़े नजर आएंगे। मोदी सरकार की बात करें तो नरेंद्र मोदी के पिछले कार्यकाल में दो बार उत्तराखंड और अरुणाचल प्रदेश में अनुच्छेद 356 का प्रयोग किया गया था, हालांकि दोनों ही बार न्यायपालिका केंद्र द्वारा राष्ट्रपति शासन लगाने के फैसले को खारिज कर दिया था। इसलिए भाजपा पश्चिम बंगाल में राष्ट्रपति शासन लगाने के मुद्दे पर फूंक-फूंक कर ही कदम बढ़ाना चाहती है।
सांप्रदायिक हिंसा का इतिहास
1905 में ब्रिटिश शासन ने बंगाल के दो टुकड़े कर दिए थे-पश्चिम व पूर्वी बंगाल। यह बंटवारा धार्मिक आधार पर किया गया जिसमें पूर्वी बंगाल में मुसलमान ज्यादा थे तो पश्चिम में हिंदू। लेकिन इस बंटवारे का जनता ने एकजुट होकर विरोध किया और नतीजा यह हुआ कि ब्रिटिश सरकार को बंटवारे का कानून वापस लेने को मजबूर होना पड़ा। ये जन आंदोलन ‘बंग भंग आंदोलन’ के नाम से मशहूर हुआ, लेकिन हालात जल्द ही फिर बदल गए और आजादी के साथ विघटनकारी राजनीति और सांप्रदायिक हिंसा के चलते बंगाल को दो टुकड़ों में बांट दिया गया। एक टुकड़ा पाकिस्तान के पास चला गया जिसका नाम पूर्वी पाकिस्तान रख दिया गया। सो राज्य में हिंसा की राजनीति की शुरुआत आजादी के कुछ समय पहले से ही कही जा सकती है। बाद में वाम मोर्चे के बरसों के शासन में इन दलों के कार्यकर्ताओं ने हिंसा का खूब इस्तेमाल किया, लेकिन फिर भी राज्य सांप्रदायिक हिंसा से अछूता रहा। अब जो हालात बने हैं उससे लगता है कि बंगाल की सांप्रदायिक मानसिकता का वायरस मरा नहीं था।
भाजपा का 250 सीट जीतने का लक्ष्य
लोकसभा चुनाव में राज्य की 42 में से 18 सीटें जीतने के बाद भाजपा 2021 विधानसभा चुनाव के लिए खाका तैयार कर रही है। इसमें तमाम रणनीतियों के अलावा तृणमूल कांग्रेस से पार्टी में आने के इच्छुक नेताओं की छंटनी भी शामिल है। पार्टी 294 सदस्यीय विधानसभा में कम से कम 250 सीटें पाने की जुगत में है।
तृणमूल कांग्रेस विधानसभा चुनाव में बांग्ला गौरव के मुद्दे को भुनाने की कोशिश करेगी तो भाजपा का हथियार होगा बंगालियों के हितों का मुद्दा। तृणमूल कांग्रेस का कहना है कि 2021 में भी तृणमूल का झंडा लहराएगा और राज्य में सत्ता में आने का भाजपा का सपना चूर-चूर हो जाएगा। आम चुनावों में पश्चिम बंगाल में भाजपा के पक्ष में 40.5 प्रतिशत मत पड़े थे और फिलहाल विधानसभा में उसके छह विधायक हैं। भाजपा के राष्ट्रीय महासचिव और प्रदेश प्रभारी कैलाश विजयवर्गीय ने कहा है कि लोकसभा चुनाव के लिए हमने 23 सीटों का लक्ष्य रखा था और 18 सीटें मिलीं। अब हमारा नया लक्ष्य (विधानसभा चुनाव में) 250 सीटों का है।
एक वक्त जिस राज्य में वाम दलों और तृणमूल कांग्रेस के अलावा किसी का नाम सुनाई नहीं देता था, आज भाजपा उस गढ़ में पैठ बनाने में कामयाब रही है। 2014 में 34 लोकसभा सीटें जीतने वाली तृणमूल कांग्रेस इस आम चुनाव में 22 सीटें ही जीत पाई। कांग्रेस चार सीटों से घटकर दो पर आ गयी और माकपा अपना खाता भी नहीं खोल पाई।