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गांधी आश्रमों की हालत खस्ता, वेतन के लाले, कर्मचारी भुखमरी के कगार पर

raghvendra
Published on: 29 Jun 2018 7:47 AM GMT
गांधी आश्रमों की हालत खस्ता, वेतन के लाले, कर्मचारी भुखमरी के कगार पर
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दुर्गेश पार्थसारथी

अमृतसर: महात्मा गांधी के निर्देश पर आचार्य जेबी कृपलानी ने सबसे पहले 1920 में उत्तर प्रदेश के वारणसी में गांधी आश्रम की स्थापना की थी। इसके पीछे उनका एक ही उद्देश्य था कि खादी के कपड़े व चरखे को भुखमरी व गरीबी के खिलाफ हथियार बनाया जाए। इसमें बेराजगारों को रोजगार दिया जाए। इसके जरिये उस समय महात्मा गांधी व उनकी विचारधारा से जुड़े लोगों का सपना साकार हुआ। गांधी का चरखा अंग्रेजों के खिलाफ देश की आजादी में कारगर हथियार तो बना, लेकिन आज करीब सौ साल पूरा होने से पहले ही उनका यह सुनहरा सपना धूल में मिलता हुआ दिखाई दे रहा है।

महात्मा गांधी व जेबी कृपनाली जैसे तमाम नेताओं का सपना बिखेरने में गांधी व खादी के रहनुमाओं ने ही कोई कोरकसर नहीं छोड़ी है। हालात यह हैं कि लाखों हाथों को रोजगार देने वाले गांधी आश्रम के हजारों कार्यकर्ता व इससे जुड़े लोग मामूली वेतन पर काम करने को मजबूर हैं या दूसरे शब्दों में कहें तो भुखमरी के कगार पर खड़े हैं। गांधी आश्रम की कई ऐसी इकाइयों में वर्करों के वेतन के लाले भी पड़े हैं। संस्था के मंत्री या महामंत्री से जब इसका कारण पूछा जाता है तो वह बिना किसी लाग लपेट के सीधे तौर पर केंद्र व राज्य सरकार की नीतियों को दोषी ठहराते हैं, लेकिन वे अपनी नीति व कार्यप्रणाली को सुधारने की तरफ ध्यान नहीं देते।

श्री गांधी आश्रम के नाम से 1928 में पंजीकृत हुई इस संस्था का पहला मुख्यालय उत्तर प्रदेश के मेरठ की ऐतिहासिक लालकोठी में खोला गया, जिसका मौजूदा समय में कैंप कार्यालय 9 शाहनजफ रोड लखनऊ में है और प्रधान कार्यालय के रूप में जाना जाता है। आज गांधी आश्रम की उत्तर प्रदेश, बंगाल, मध्यप्रदेश, पंजाब व जम्मू-कश्मीर सहित अन्य राज्यों में करीब 40 से अधिक विकेंद्रित इकाइयां हैं, लेकिन इन सभी इकाइयों में कमोबेश एक ही हाल है। श्री गांधी आश्रम की एक ऐसी ही विकेंद्रित ईकाई का मुख्य कार्यालय पंजाब के अमृतसर जिले में क्वींस रोड पर स्थित है। गांधी विचारधारा से जुड़े स्वतंत्रता सेनानी रामसुमेर उपाध्याय ने अपने सहयोगियों के साथ 1950 में श्री गांधी आश्रम कश्मीर के नाम से संस्था का पंजीकरण कराया जिसका बाद में 1968 में अमृतसर में मुख्य कार्यालय बनाया गया। शुरुआती दिनों में ही पंजाब में करीब तीन सौ बुनकरों व वर्करों को रोजगार मिला। यही नहीं आतंकवाद के दौर में भी पंजाब व जम्मू-कश्मीर के बेघर बेरोजगार लोगों को रोजगार मिलता रहा।

टुकड़ों-टुकड़ों में बिक गया कारखाना

गांधी आश्रमों के लिए इससे बड़ा दुर्दिन और क्या होगा कि जिस सर्जिकल मैन्यूफैक्चरिंग इकाई छेहरटा में 1969 में करीब 300 कर्मचारी चार शिफ्टों में दिन-रात काम करते थे वही कारखाना आज टुकड़ों-टुकड़ों में बिक गया। उस समय गांधी आश्रम के इस कारखाने में काम करने वाले वर्कर शिवशंकर सिंह, मुरली धर सहित कई अन्य लोगों ने बताया कि तब गढ़वाल के रहने वाले कैलाश चंद्र पांडे पहले मैनेजर और रामसुमेर उपाध्याय पहले सेक्रेटरी हुआ करते थे। यहां के बने कॉटन, बैंडेज पट्टी की पूरे देश में ही नहीं बल्कि विदेशों में भी सप्लाई होती थी। संस्था के सेवानिवृत्त कर्मचारी रामकुंवर चौहान कहते हैं कि यह फैक्टरी 1968-69 में अमृतसर के पीएन भाटिया व एनएन भाटिया से खरीदी गयी थी।

1973 में महेश चंद्र तिवारी को संस्था का मंत्री बनाया गया और 1974 में इसे उत्पादन केंद्र बना दिया गया। यही महेशचंद्र तिवारी बाद में गांधी आश्रम प्रधान कार्यालय, लखनऊ महामंत्री बनाए गए। महेश चंद्र तिवारी के नेतृत्व में यहां पर कताई, बुनाई व उत्पादन का काम चलने लगा। यहां के बने शॉल, कंबल, लोई व स्वेटर न केवल पंजाब व कश्मीर में ही लोकप्रिय हुए बल्कि देश भर के लोग इसके मुरीद हो गए। चौहान कहते हैं कि यह गांधी आश्रम का गोल्डन पीरियड था। यह दौरा था 1980 का। उस समय करीब 600 बुनकरों को अकेले पंजाब में रोजगार मिला हुआ था। इसके बाद 1994-95 में एनएमसी चरखा आया जिससे ऊनी खादी के काम में नई क्रांति आई और इसी साल संस्था के सालाना ऑडिट में 14.50 लाख रुपये के लाभ की बैलेंस शीट बनी थी। इसके बाद गांधी आश्रम निरंतर घाटे में चलता रहा और हालात यह हुए कि वर्ष 2018 की पहली तिमाही में ही छेहरटा स्थित उत्पादन केंद्र की करीब 20,000 गज जमीन करीब 12 करोड़ रुपये में बिक गई और एक झटके में गांधी आश्रम के कर्मचारी अनाथ हो गए। इससे दरिद्रनारायण की सेवा और हजारों हाथों को रोजगार देने का महात्मा गांधी का सपना मिट्टी मे मिल गया।

राव सरकार ने भी दी थी सहायता

श्री गांधी आश्रम अमृतसर के क्षेत्रीय कार्यालय में लंबे समय तक कैशियर व मैनेजिंग कमेटी के सदस्य रहे रामकुंवर चौहान कहते हैं कि इससे पहले 1995-96 में तत्कालीन नरसिंह राव सरकार ने खादी कमीशन के मार्फत गांधी आश्रम अमृतसर को 4 प्रतिशत की ब्याज दर से 2 करोड़ रुपये का लोन दिया था। तब मनमोहन सिंह वित्तमंत्री हुआ करते थे, लेकिन इस ऋण से भी गांधी आश्रम की हालत नहीं सुधर सकी। वे कहते हैं कि दिसंबर 2012 में गांधी आश्रम पर अमृतसर के चैक फरीद स्थित इंडियन बैंक की ब्रांच का करीब 1.64 करोड़ का लोन था जो बढक़र दो करोड़ से अधिक का हो चुका है।

उधारी में फंस चुकी थी सारी पूंजी

मैन्यूफैक्चरिंग बेचने की नौबत क्यों आई, इसके जवाब में संस्था के वर्तमान सेक्रेटरी रामसूरत यादव का कहना है कि समय के साथ लाइबिलटी व ब्याज बढ़ता चला गया। लोन बढ़ता चला गया। लाइबिलटी 11 करोड़ के करीब बन गई है। उन्होंने कहा कि ऐसा नहीं है कि लोन चुकाने का प्रयास नहीं किया गया। इसके कई कारण रहे। यहां की पूरी अर्थव्यवस्था सीजनल काम पर आधारित है। शहद का भी काम नहीं चल पाया। करीब 6 करोड़ से अधिक की उधारी फंस गई। यह पूछे जाने पर कि प्रॉपर्टी बेच कर जो पैसे मिले वह तो उधार चुकाने में ही खत्म हो गए, अब आगे का काम कैसे होगा, उन्होंने कहा कि कोई न कोई रास्ता निकाला जाएगा।

इसी सवाल के जवाब में श्री गांधी आश्रम हजरतगंज,लखनऊ के मंत्री व गांधी आश्रम अमृतसर के ट्रस्टी सदस्य आरएन मिश्रा का कहना है कि कश्मीर में आतंकवाद की समस्या के कारण ऊनी माल कश्मीर नहीं जा पाया। इसकी वजह से संस्था के सामने आर्थिक संकट खड़ा हो गया था। बैंक व खादी कमीशन का लोन भी था। बैंक ने संस्था का खाता सीज कर दिया था। जिस कारण खादी कमीशन चंडीगढ़ से मंजूरी लेकर उन्हें प्रॉपर्टी बेचनी पड़ी।

लखनऊ के शाहनजफ रोड स्थित संस्था के महामंत्री बृजभूषण पांडेय ने कहा कि यह उनका मैटर है। सभी संस्थाएं स्वतंत्र हैं। उनको अपना फैसला लेने का अधिकार है। खादी कमीशन व बैंकों का लोन चुकाना था। इसलिए प्रॉपर्टी बेचनी पड़ी।

नीयत ठीक नहीं तो प्रॉपर्टी बिकेगी ही

गांधी आश्रम प्रधान कार्यालय मेरठ के अर्थमंत्री अरविंद श्रीवातव का कहना है कि मामला बैंक लोन का नहीं है। गांधी आश्रम अमृतसर के मौजूदा मंत्री राम सूरत यादव से पहले के मंत्री भी इसी लोन से काम करते थे। नो लॉस नो प्रॉफिट के ध्येय पर चलने वाली इस संस्था की बैलेंस शीट तब घाटे की नहीं बनती थी। असल बात नीयत है। जब सरकार से मिले पैसे को आश्रम के काम में लगाने की बजाय खुद खा जाओगे तो प्रॉपर्टी बिकेगी ही। 2007-08 में गांधी आश्रम में हुए घोटाले की जांच भी चली थी। उसमें मुझे यानी प्रधान कार्यालय को पार्टी बनाया गया था।

खादी कमीशन से मिले कलस्टर के एक करोड़ की रकम हड़पने के लिए इन्होंने गलत शहद की खरीद की थी, मक्खी पालन के लिए पुरानी पेटियों को नया बता कर खरीदा गया था, इसी तरह पुरानी मशीनरी को भी नया बता कर खरीद की गई थी। इसके कलावा कलस्टर के पैसे से काम करने की बजाय संस्था के मंत्री और उनके सहयोगी कभी जापान तो कभी जर्मनी में खादी प्रदर्शनी के नाम पर सरकारी पैसे खर्च करते रहे। फर्जी बिलों पर लाखों का कच्चा ऊन कागजों पर खरीदा गया। यह सभी चीजें ऑडिट रिपोर्ट में भी है। तत्कालीन अर्थ मंत्री कृष्णानंद मिश्र के आदेश पर इसकी जांच भी हुई थी। हमको व प्रधान कार्यालय को भी पार्टी बनाया गया था। अभी तो संस्था के पास 25 से 30 करोड़ की क्वींस रोड पर लाल कोठी बची है। यही हाल रहा तो आने वाले दिनों वह भी बिक जाएगी।

काम न आई खादी कमीशन की संजीवनी

गांधी आश्रम के पूर्व कर्मचारी मुरलीधर व रामकुंवर आदि का कहना है कि संस्था की स्थिति को सुधारने व नई मशीनरी खरीदने के लिए खादी कमीशन मुंबई की तरफ से कुल एक करोड़ की आर्थिक सहायता दी गई थी। इस तरह की आर्थिक सहायता उत्तर प्रदेश के कई गांधी आश्रमों को भी दी गई थी। इस सरकारी सहायता से गांधी आश्रम गोलघर गोरखपुर, सहारनपुर सहित कई अन्य बीमार संस्थाओं का न केवल उत्पादन बढ़ा बल्कि उनके काम का तरीका बदला, संसाधन बढ़े और उनकी आर्थिक स्थिति भी मजबूत हुई जबकि गांधी आश्रम,अमृतसर में इस ग्रांट का जमकर दुरुपयोग किया गया।

हालत यह हुई कि संस्था खादी कमीशन चंडीगढ़ सहित कई बैंकों की कर्जदार हो गई। नौबत यहां तक आ गई गांधी आश्रम के कर्मचारियों को वेतन मिलना भी बंद हो गया। इस दौरान क्षेत्रीय आडिटरों द्वारा संस्था के कार्यकलापों पर आपत्ति भी जताई गई, लेकिन इस तरफ कोई ध्यान नहीं दिया गया। नतीजतन गांधी आश्रम का क्षरण लगातार होता रहा जो आज भी जारी है। वे कहते हैं कि एक बार गांधी आश्रम के कार्यक्रम में तत्कालीन खादी व ग्रामोद्योग मंत्री संघप्रिय गौतम आए थे। उन्होंने संस्था की देखकर कहा था कि अमानत नहीं खयानत खाओ, खुशहाल रहोगे, लेकिन संस्था के रहनुमा अमानत ही खा गए। अब मौजूदा स्थिति सबके सामने है।

आतंकवाद के दौर में भी नहीं रुका था चरखा

संस्था के पूर्व व कुछ वर्तमान कर्मचारियों ने नाम न प्रकाशित करने की शर्त पर बताया कि 1984 में पंजाब आतंकवाद की आग में झुलस रहा था। लोग बेघर होकर विस्थापित हो रहे थे। आतंकवाद के कारण लोगों का रोजगार छिन रहा था। ऐसे दौर में गांधी आश्रम ने 2500 लोगों को रोजगार मुहैया कराया। यही नहीं संस्था का कताई केंद्र पंजाब के अलावा जम्मू-कश्मीर, हरियाणा तक फैला हुआ था, लेकिन अब स्थिति यह है कि हरियाणा व जम्मू-कश्मीर ही नहीं बल्कि पंजाब के सभी कताई केंद्र बंद हो गए। और तो और संस्था के खुद के कई खादी भंडार भी बंद हो गए।

संस्था के कार्यकर्ताओं का कहना है कि जिस संस्था में कभी 300 से अधिक वर्कर काम करते थे आज उसी संस्था में लखनऊ के सरोजनी नायडू मार्ग स्थित ऊनी स्टोर से लेकर पंजाब व जम्मू-कश्मीर में महज 36 वर्कर काम कर रहे हैं। वह भी संस्था में सालों गुजारने के बाद महज 10 से 15 हजार रुपये के मासिक वेतन पर। गांधी आश्रम का जो चरखा आतंकवाद के दौर में भी नहीं रुका था वह रहनुमाओं की गलत नीतियों की वजह से कबाड़ के भाव बिक गया और कताई बुनाई का काम खत्म हो गया।

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राघवेंद्र प्रसाद मिश्र जो पत्रकारिता में डिप्लोमा करने के बाद एक छोटे से संस्थान से अपने कॅरियर की शुरुआत की और बाद में रायपुर से प्रकाशित दैनिक हरिभूमि व भाष्कर जैसे अखबारों में काम करने का मौका मिला। राघवेंद्र को रिपोर्टिंग व एडिटिंग का 10 साल का अनुभव है। इस दौरान इनकी कई स्टोरी व लेख छोटे बड़े अखबार व पोर्टलों में छपी, जिसकी काफी चर्चा भी हुई।

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