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‘गंगा मइया’ की सफाई पर कैग की रिपोर्ट, सरकार की मंशा पर उठे सवाल
रामकृष्ण वाजपेयी
देहरादून: ‘गंगा मइया’ की सफाई पर आई कैग की रिपोर्ट ने संतों को फिर ताल ठोकने का अवसर प्रदान कर दिया है... यहां ये गौरतलब है कि इस बार जो संत मैदान में कूदे हैं वो अधिक्तर विश्व हिंदू परिषद से जुड़े हुए हैं...। ‘मोदी युग’ की शुरुआत के साथ देश के सेवेन स्टार संतों के प्रति मोदी जी के झुकाव से परेशान संतों की व्याकुलता को कैग की रिपोर्ट ने वाणी प्रदान कर दी है। ‘गंगा’ की चिंता में परेशान ये संत वहीं हैं जो कल तक राम भरोसे वाया वीएचपी लोकसभा से लेकर विधानसभा तक अपनी राजनैतिक महात्वाकांक्षा का अखाड़ा बनाए हुए थे...। ‘नमामिगंगे’ से लेकर राम मंदिर के विवाद को सुलझाने की जिम्मेदारी दूसरे संतों के हाथ जाती देख भी परेशानी बढ़ रही है। ये संघर्ष केवल सत्ता के हस्तांतरण का ही नहीं उत्तराधिकार का भी बनता जा रहा है।
मोदी के गंगा सफाई के स्वप्न को दरअसल दो सैकड़ों से गुजरना पड़ रहा है एक एनजीटी (ग्रीन ट्रिब्यूनल) दूसरा जरूरत से अधिक ईमानदारी के नाम पर योजनाओं के क्रियान्वयन को अव्यवहारिक बना देना....। मसलन, गंगा को सबसे ज्यादा गंदा शहरों के नाले करते हैं और उनको केवल एस.टी.पी. (सीवरेज ट्रीटमेंट प्लांट) के द्वारा ही ठीक किया जा सकता है... नमामि गंगे के तहत सबसे महत्वपूर्ण कार्य इसी को माना गया है। लेकिन इसकी टेंडर प्रक्रिया इतनी कठिन कर दी गई है जिसे देश की क्या विदेश की कंपनियां भी पूरा नहीं कर पा रही हैं...। उदाहरण के लिए ऋषिकेश में १४० करोड़ के एस.टी.पी. प्रोजेक्ट को लगाना है पैसा भी है योजना भी है परन्तु टेंडर को इतना जटिल बना दिया गया कि पिछले तीन महीनों से तीन बार टेंडर कैंसिल इसलिए हुआ है कि कोई भी कंपनी इसकी औपचारिकता ही पूरी नहीं कर पा रही है।
सरल शब्दों में कहें कि गाय तो दुधारू चाहिए लेकिन उसके चरित्र पर भी संदेह नहीं होना चाहिए...। अजब हालात हैं। एक तरफ एन.जी.टी है हर बात पर रोक लगाने के लिए और दूसरी तरफ टेंडर डिजाइन करने वाली मानक संस्था जो शायद चाहती ही नहीं कि ‘नमामि गंगे’ की योजना धरातल पर उतरे...। ऐसे में यदि कैग की रिपोर्ट पिछले मार्च तक २.१३३ करोड़ न खर्च कर पाने की उलाहना दे रही है तो इसमें आश्चर्य क्या है? सरकार को अपनी जरूरत से अधिक जटिताओं से भी टेंडर प्रणाली पर भी ध्यान देना होगा तो एन.जी.टी. पर भी शिकंजा कसना होगा। जो गंगा पर अब नाव चलाने पर भी हस्तक्षेप करने पर उतारू है...।
संतों को भी गंगा पर राजनीति करने से बेहतर अपने आश्रमों में कूड़ों और नालों पर भी ध्यान देना होगा। धार्मिक आधार पर गंगा को कैसे स्वच्छ रखा जाए। किन-किन वस्तुओं के विसर्जन पर रोक होनी चाहिए। उसे भी तार्किक आधार पर रखना चाहिए। ...लेकिन दुर्भाग्य है हमारे संत समाज की भी राजनैतिक महात्वाकांक्षा इस समय चरम पर है... जो अब मठों आश्रमों से निकलकर राज सत्ता की भागीदारी का स्वप्र देखने लगी है।
सरकारी महकमे के लिए गंगा राजीव गांधी के जमाने से ही ‘सोने की मुर्गी’ रही है। अरबों रुपयों की बर्बादी के बाद भी परिणाम हमारे आंखों के सामने है। इस भ्रष्टाचार की गंगा को नियंत्रण में करने के लिए सरकारी मशीनरी के शुद्धीकरण की अधिक आवश्यकता है। इनकी बेईमानी पर आप रोक लगाएंगे। ये काम को इतना जटिल कर देंगे कि कैग को हर साल अपनी रिपोर्ट में न खर्च कर पाए धन का ब्योरा ही समेटना होगा...। जिम्मेदारी भी तय करनी होगी तो लापरवाही के लिए सजा भी तय करनी होगी... वरना मोदी जी चार साल तो क्या चार सौ साल तक भी सफाई के नाम पर तमाशा ही होता रहेगा।