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निजता पर फैसले में सुप्रीम कोर्ट के दो जस्टिस के नज़रिये में दिखा जेनरेशन गैप
सर्वोच्च न्यायालय ने गुरुवार(24 अगस्त) को एक महत्वपूर्ण फैसले में निजता को मौलिक अधिकार बना दिया। सर्वोच्च न्यायालय के प्रधान न्यायाधीश न्यायमूर्ति जे.एस.खे
लखनऊ: सर्वोच्च न्यायालय ने गुरुवार(24 अगस्त) को एक महत्वपूर्ण फैसले में निजता को मौलिक अधिकार बना दिया। सर्वोच्च न्यायालय के प्रधान न्यायाधीश न्यायमूर्ति जे.एस.खेहर की अध्यक्षता वाली नौ सदस्यीय पीठ ने एक मत से यह फैसला दिया।547 पन्नों में दिये गये इस फैसले में खास बात ये है कि सुप्रीम कोर्ट की नौ जजों की बेंच के सदस्य डी वाई चन्द्रचूड ने निजता के अधिकार को मौलिक अधिकार बताकर अपने पिता जस्टिस वाई वी चन्द्रचूड के एक अहम फैसले को पलट दिया है, जो उन्होंने 1975 में एडीएम जबलपुर वर्सेस शिवकांत शुक्ला के मामले में दिया था।
क्या है एडीएम जबलपुर मामला?
इंदिरा गांधी सरकार ने 25 जून, 1975 को इमरजेंसी के दौरान नागरिकों के मौलिक अधिकारों को स्थगित कर दिया था। आपातकाल के दौरान राज्य की असीमित शक्तियों के खिलाफ मामलों को सुनने के कोर्ट के अधिकार को स्थगित कर दिया गया था। नज़रबंदी का दौर चल रहा ता। कुछ गिरफ्तार लोगों ने हाई कोर्ट में बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिकाएं दायर कीं।
इस कानून के चलते गैर-कानूनी ढंग से निरुद्ध किए गये किसी भी व्यक्ति को कोर्ट में पेश करने की बाध्यता सरकार पर होती है। कोर्ट ऐसा निर्देश दे सकता है जिसके जरिए पुलिस को ऐसे बंदी को कोर्ट में हाजिर करना पड़ता है और उसे हिरासत में लेने की वजह बतानी पड़ती है।
जबलपुर हाईकोर्ट समेत देश के 9 हाईकोर्ट ने उस समय यह व्यवस्था दी थी कि आपातकाल के बाद भी हेबस कार्पेस, केरीटोरी, मैडमस जैसी विशेष याचिकाएं दायर करने का अधिकार कायम रहेगा। इसको केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी थी। सर्वोच्च न्यायालय में सारे मामलों को एक साथ सुना गया और मामले में सुप्रीम कोर्ट की बेंच ने बहुमत से मौलिक अधिकारों को आपातकाल के दौरान निलंबित करने के पक्ष में फैसला दे दिया था।
उस बेंच में चीफ जस्टिस ए एन राय के अलावा जस्टिस वाई वी चंद्रचूड़, जस्टिस एच आर खन्ना, जस्टिस एम एच बेग और जस्टिस पी एन भगवती समेत 5 सदस्य थे। 28 अप्रैल 1976 को आया फैसला 4-1 के बहुमत से तय हुआ था । 1976 का ये ऐतिहासिक केस एडीएम, जबलपुर बनाम शिवकांत शुक्ल मुकदमे के नाम से चर्चित हुआ।
फैसला पलटते समय क्या कहा जस्टिस बेटे ने पिता के फैसले के बारे में
देश के न्यायिक इतिहास में पहेली बार एक जस्टिस पुत्र ने अपने पिता के फैसले को ही पलट दिया। जस्टिस वाई वी चंद्रचूड़ के फैसले को पलटते हुए जस्टिस डी वाई चंद्रचूड़ की सदस्यता वाली पीठ ने राइट टू प्राइवेसी का ऐतिहासिक फैसला दिया। जस्टिस डीवाई चन्द्रचूड ने कहा कि उस दौरान चार जजों द्वारा बहुमत में दिये गये फैसले में कई खामियां थी।
क्या है अंतर?
पिता की सदस्यता वाली खंडपीठ ने आपातकाल के दौरान किसी भी व्यक्ति को यह अधिकार नहीं दिया था कि वह अनुच्छेद 226 के तहत हाईकोर्ट में बंदी प्रत्यक्षीकरण या किसी भी याचिका विशेष याचिका दायर कर सके। यह भी अधिकार नहीं है कि वह निरुद्ध किए जाने के आधार, बदनियती, परिस्थिति को लेकर निरुद्ध किए जाने के अधिकार को चुनौती दे सके। इसके अलावा इस फैसले में बेंच ने इस फैसले में मीसा (मेंटेनेंस आफ सिक्योरिटी एक्ट) कानून को सही माना था और यह भी कहा कि देश में युद्ध या आंतरिक गड़बड़ी का मामले पर दो तरह के कानून नहीं हो सकते है।
24 अगस्त को जस्टिस वाई वी चन्द्रचूड ने अपने फैसले में लिखा, ‘जीवन और व्यक्तिगत आजादी मानव के अस्तित्व का अभिन्न हिस्सा है। जैसा कि केशवानन्द भारती मामले में कहा गया है ये अधिकार मनुष्य को आदिकाल से मिले हुए हैं। ये अधिकार प्रकृति के कानून का हिस्सा हैं।’ साथ ही यह कहने में नहीं कोताही कि निजता के अधिकार की ये प्रतिष्ठा आजादी और स्वतंत्रता के साथ जुड़ी हुई है। कोई भी सभ्य राज्य बिना कानून की इजाजत के जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता पर कुठाराघात नहीं कर सकता है।