शहरी ‘माओवादियों’ का पोषित आतंकवाद, इन्हें चाहिए विकास यानी जीने का अधिकार

दरअसल बंदूक और हिंसा के बल पर सत्ता हथियाने वाली भाकपा (माले) की सोच से पैदा हुई क्रान्ति मई 1967 में नक्सल बाड़ी गांव में खूनी संघर्ष से शुरू हुई।

tiwarishalini
Published on: 17 Jun 2017 7:21 AM GMT
शहरी ‘माओवादियों’ का पोषित आतंकवाद, इन्हें चाहिए विकास यानी जीने का अधिकार
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शहरी ‘माओवादियों’ का पोषित आतंकवाद, इन्हें चाहिए विकास यानी जीने का अधिकार

शहरी ‘माओवादियों’ का पोषित आतंकवाद, इन्हें चाहिए विकास यानी जीने का अधिकार जंगल में नक्सलियों के बीच भोजन करते वरिष्ठ पत्रकार राजकुमार

‘यह संवेदनहीन विकास है। विकास यानि, जीने का अधिकार चाहिए। बड़े उद्योग जमीन से लोगों को विस्थापित कर देते हैं। लेकिन स्थानीय लोगों को आवास, रोजगार, सुविधाएं आदि कुछ भी नहीं मिलती हैं। ऐसे विकास का प्रतिफल क्या रहेगा। नारायणपुर में रामकृष्ण आश्रम के पास बड़ा सुविधा युक्त खेल मैदान है, लेकिन दूसरे खेल मैदान के नाम पर लाखों की हेराफेरी स्थानीय अधिकारी कर रहे हैं।’ इसी जीने के अधिकार के बहाने इस बीहड़ में नक्सलवाद की फसल लहलहा रही है। आदिवासियों और वनवासियों को बहला-फुसलाकर हिंसक बनाने की वामपंथी कोशिशों को रोकने का संघर्ष जारी है। इसी बारे में प्रस्तुत है दंतेवाड़ा और सुकमा जैसे इलाकों की खाक छान रहे और जमीनी वजह तलाश रहे राजकुमार की यह रिपोर्ट-

दंतेवाड़ा: दरअसल बंदूक और हिंसा के बल पर सत्ता हथियाने वाली भाकपा (माले) की सोच से पैदा हुई क्रान्ति मई 1967 में नक्सल बाड़ी गांव में खूनी संघर्ष से शुरू हुई। वह आन्दोलन आज कथित विदेशी माओवादी बुद्धिजीवियों द्वारा पोषित होकर खूनी आतंकवाद का रूप ले चुकी है। 23 मई को नक्सलबाड़ी में विमल किसान से बड़े किसानों का संघर्ष हुआ जिसके कारण दूसरे दिन वहां पर पुलिस पहुंची और पुलिस अधिकारी सोनम बागड़ी की हत्या कर दी गई। इसके परिणाम स्वरूप 25 मई को पुलिस जनता संघर्ष हुआ जिसमें 9 लोगों की जानें गयीं। वहीं से इस संघर्ष की अगुवाई माओवादी सोच के नेताओं के हाथों में आ गयी जिसकी अद्र्धशती आज वामपंथी मना रहे हैं। नक्सल बाड़ी आन्दोलन के बाद सितम्बर 1967 में कानू सान्याल, चारू मजुमदार, दीपक विश्वास और मधुसूदन मलिक नेपाल के रास्ते चीन यात्रा पर गये थे।

शहरी ‘माओवादियों’ का पोषित आतंकवाद, इन्हें चाहिए विकास यानी जीने का अधिकार अपनी मांगों को लेकर धरना प्रदर्शन करते नक्सल प्रभावित क्षेत्र के लोग

50 सालों की खूनी यात्रा में हजारों सैनिकों, नागरिकों, बच्चों, महिलाओं की जाने गयीं। लेकिन गरीब आदिवासी दलित लोगों की बात करने वाले कथित बुद्धिजीवी इस आन्दोलन का नेतृत्व करते रहे जिसके कारण इस आन्दोलन के नेतृत्वकर्ताओं के आपस में मतभेद हुए संगठन के अनेक टुकड़े हुए। फिर कई बार आपस में जुड़े भी लेकिन इस आन्दोलन के मूल में अवैध वसूली एवं प्रभुत्व की लड़ाई के कारण हमेशा पूरे देशभर में दर्जनों गुट काम करते रहे। एमसीसी, सीपीआई (एमएल लिबरेशन), सीपीआई (एमएल पीपुल्स वार) जैसे संगठनों की छत्रछाया में अनेकों छद्म जन संगठन, पत्र-पत्रिकाएं चलती हैं। आज भी उखड़ते पांव के बावजूद एकतरफ जवानों पर हमले हो रहे हैं तो दूसरी तरफ जेएनयू जैसे उच्च शिक्षा केन्द्रों में आज़ादी के नामपर देशविरोधी विचारों को बढ़ावा दिया जा रहा है।

उड़ीसा, तेलंगाना, आन्ध्र प्रदेश में वर्ग संघर्ष की अलख जगाने वाले लोक कवि गदर भी लोकतंत्र की शरण में आ गिरे हैं। सैकड़ों की संख्या में विद्रोही कैडर विभिन्न प्रान्तों में हथियार डाल चुके हैं। फिर भी छत्तीसगढ़ का दण्डकारण्य सघन नक्सली हिंसा का क्षेत्र बना हुआ है। 1 नवम्बर 2000 को जब छत्तीसगढ़ का उदय हुआ उस समय प्रशासनिक 16 जिले थे। इसमें से 10 जिलों में माओवादी गतिविधियां तेज थीं। लेकिन, आज 27 जिलों के छत्तीसगढ़ के बस्तर सम्भाग में ही आतंकी सिमट गये हैं। लेकिन, जब सुकमा में 24 अप्रैल को माओवादियों ने घेर कर भोजन कर रहे 25 सीआरपीएफ के जवानों को मौत के घाट उतार दिया तो इस हमले के पीछे केवल कारण यह रहा कि, बीजापुर-किरन्दुल सुकमा मार्ग न बन सके। विकास विरोधी यह मुहिम ऐसी है कि, इस मार्ग के लिए पांच बार हमला हो चुका है।

शहरी ‘माओवादियों’ का पोषित आतंकवाद, इन्हें चाहिए विकास यानी जीने का अधिकार

ग्राउंड जीरो पर जाने के बाद लगता है कि, इलाका शांत है और सभी कार्य सुचारू रूप से चल रहे हैं। आखिर जवानों पर ही हमले क्यों हो रहे हैं। दन्तेवाड़ा के जिला पंचायत सदस्य मुन्ना मरकाम कहते हैं कि बस्तर क्षेत्र का जिस तेजी से विकास हुआ है उतना देश के किसी क्षेत्र का नहीं हुआ। दंतेवाड़ा, गीदम, नारायणपुर में बड़े-बड़े शिक्षण संस्थान, कौशल विकास केन्द्र, चिकित्सालय दण्डकारण की तस्वीर को बदल रहे हैं। लेकिन, नक्सली नेताओं को पैसा और अय्याशी मुंह लग गया है। वे इस प्रकार के विकास के कार्यों को रोक रहे हैं।

इसमें महत्वपूर्ण बात यह है कि, नक्सल समस्या से निपटने के लिए सीआरपीएफ के जवानों को लगाया गया है जबकि उसका राज्य पुलिस व स्थानीय खुफिया तंत्र के साथ संबंध ताल मेल का पूर्णतया अभाव है। नक्सल क्षेत्र में जब हम लोग जगदलपुर से नारायणपुर के रास्ते पर जा रहे थे तब सीआरपीएफ के जवान गस्त पर निकले थे। देश के विभिन्न अंचलों से आये विभिन्न भाषा-भाषी जवानों को सामाजिक भौगोलिक गाइड के लिए स्थानीय पुलिस का सहयोग नहीं के बराबर है। बस्तर राजमाता कृष्णा देवी कहती है कि, स्थानीय पुलिस प्रशासन से सीआरपीएफ के जवानों का तालमेल क्यों नहीं हो रहा है। सरकार अगर दृढ़ संकल्प लेकर निर्णय करे तो यह मार्ग एक माह में बनकर तैयार हो जाए।

शहरी ‘माओवादियों’ का पोषित आतंकवाद, इन्हें चाहिए विकास यानी जीने का अधिकार

अबूझामाड़ के जंगलों में कार्य करने वाले दण्डकारण्य समिति के प्रमुख हरेराम कहते हैं कि, ये संवेदनहीन विकास है। विकास यानि, जीने का अधिकार चाहिए। वे उदाहरण देते हैं कि बड़े उद्योग जमीन से लोगों को विस्थापित कर देते हैं। लेकिन स्थानीय लोगों को आवास, रोजगार, सुविधाएं आदि कुछ भी नहीं मिलती हैं। ऐसे विकास का प्रतिफल क्या रहेगा। नारायणपुर में रामकृष्ण आश्रम के पास बड़ा सुविधा युक्त खेल मैदान है, लेकिन दूसरे खेल मैदान के नाम पर लाखों की हेराफेरी स्थानीय अधिकारी कर रहे हैं। भ्रष्टाचार को फलने-फूलने के लिए अधिकारी, राजनेताओं की पूर्णमंशा नक्सलवाद को समाप्त करने की नहीं है। पूरे क्षेत्र में मिशनरी चर्च की गतिविधियों को नक्सली नहीं छेड़ते।

भ्रष्ट अधिकारी, व्यापारियों से उनकी लड़ाई नहीं है, क्योंकि इन लोगों से उनको धन मिलता है। सभी कार्य सुचारू रूप से चल रहे है, तो जवानों से क्या लड़ाई है? खनिज सम्पदा से भरे क्षेत्रों में बड़ी-बड़ी कम्पनियां निरन्तर आ रही है। टाटा स्टील, आर्सेलर, मित्तल, डीबिलियर्स, बीएचपी बिलियन, टिपो, टिंटो जैसे-जैसे बड़े कारपोरेट घराने आते जा रहे हैं। सारे फसाद कि जड़ अनैतिक अर्थशास्त्र है जो गरीब आदिवासियों को मोहरा बनाकर दोनों तरफ से पीसा जा रहा है। वे कहते हैं जर, जोरू, जमीन फसाद की जड़ होती है।

छत्तीसगढ़ के शिक्षामंत्री केदार कश्यप कहते है कि वामपंथ यहां पर अन्तिम सांस ले रहा है। यह आतंक कड़ाई और पढ़ाई से दूर होगा। जब आदिवासी समाज पढ़ लिख कर अपने हित-अनहित को समझने लगेगा तो उन्हें रोजगार मिलेगा और गांव वाले किसी के हस्तक नहीं बनेंगे। दूसरी तरफ तेन्दू पन्ते को हरा सोना बताने वाले ये नहीं बताते हैं कि इससे जनजाति को क्या मिलता है। वनों उपज से उसका जीवन स्तर कैसे उठेगा। दूसरी तरफ बड़े अधिकारी, ठेकेदार, व्यापारी, करोड़ों अरबों में खेल रहे हैं।

जबकि, जनजाति दोनों तरफ से परेशान है। एक तरफ वामपंथी हिंसाचारी, दूसरी तरफ भ्रष्टाचारी प्रशासनिक व्यवस्था जो लूट खसोट के लिए इस व्यवस्था को जिन्दा रखना चाहती है। जब तक भ्रष्टतंत्र का नाश नहीं होगा, विदेशी हाथों के हस्तक बने माओवादियों से कड़ाई से नहीं निपटा जायेगा तक तक यह आग जलती-बुझती रहेगी और इसमें सबको जलाती रहेगी। इसलिए, इस अघोषित युद्ध में सभी तरफ से राष्ट्रहानि ही होने वाली है।

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Excellent communication and writing skills on various topics. Presently working as Sub-editor at newstrack.com. Ability to work in team and as well as individual.

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