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2018 के चुनाव : भाजपा के मुफीद नहीं ‘देश के दिल’ की सेहत
राजेश सिरोठिया/आरबी त्रिपाठी
भोपाल। गुजरात में जैसे तैसे जीत का संदेश लेकर पूर्वोत्तर की ओर रुख करने वाले भारतीय जनता पार्टी के नेताओं ने भले ही वहां अपने चुनावी अश्वमेध के घोड़े को भले ही अजेय बताना शुरू कर दिया है लेकिन सच यह है कि देश का दिल कहे जाने वाले मध्य प्रदेश की सियासी सेहत उनके मुफीद नहीं है।
पिछले 14 सालों से इन दोनों प्रदेशों में राज कर रहे शिवराज भसह चौहान और डॉ रमन सिंह को अगले चुनाव में नाकों चने चबाने पड़ेंगे। दोनों सूबों की जनता का रुख तो कुछ ऐसा ही बता रहा है। और यह संदेश दिल्ली तक पहुंचा भी है।
मध्य प्रदेश में शिवराज चौहान को एक साथ कई वर्गों की नाराजगी झेलनी पड़ रही है। कर्जमाफी के मसले पर किसान नाराज हैं तो प्रमोशन में आरक्षण वाले मसले पर सवर्ण कर्मचारी नाराज हैं।
बेरोजगारी, कानून-व्यवस्था और कई दूसरे मुद्दे अलग मुंह बाए खड़े हैं। ऐसे में जनता के बीच खुद को मामा के रूप में चॢचत कराने वाले शिवराज भसह चौहान के खिलाफ एक नारा बुलंद हुआ है ‘मोदी से बैर नहीं पर मामा की खैर नहीं।‘ यह नारा केवल एक तरफ से नहीं है। हर वर्ग से उभर रहा है जो अगले साल नवंबर में संभावित विधानसभा चुनाव में खतरनाक साबित हो सकता है।
विरोध की बयार
शिवराज की बारह साल पुरानी और भाजपा की कुल चौदह साल पुरानी मप्र सरकार इस बार वाकई एंटी इंकम्बेंसी की चपेट में जाती दिख रही है। हालात कुछ ऐसे हैं कि शिवराज को दो-दो जगह खुद को सिध्द करने की चुनौती आ पड़ी है। इसमें सबसे कठिन मामला कर्मचारियों के मोर्चे पर है। राज्य के तीन लाख से ज्यादा सरकारी कर्मचारियों को साधने के जतन इसलिए भी करने पड़ रहे हैं क्योंकि प्रमोशन में आरक्षण की खुली पैरवी करने के बाद से मुख्यमंत्री शिवराज चौहान इस वक्त सवर्ण कर्मचारियों के निशाने पर हैं।
यह बड़ा कर्मचारी वर्ग उनसे न सिर्फ नाराज है बल्कि चुनाव के समय ‘देख लेने’ की बात भी कहने लगा है। लिहाजा शिवराज सरकार के सामने अपने इस वोट बैंक को बचाने की चुनौती सबसे ज्यादा है। प्रदेश में यह वर्ग किसी भी सरकार को बनाने और बिगाडऩे का माद्दा रखता है। इस वर्ग का मिजाज सात-आठ महीने से बिगड़ा हुआ है, एक के बाद एक हो रहे आंदोलनों और हड़ताल की चेतावनियों की वजह से शिवराज चौहान को रोज एक नया वादा परोसना पड़ रहा है।
कर्मचारियों में असंतोष की मचलती लहरों से वाकिफ शिवराज ने इन दिनों प्रभावशाली कर्मचारी नेताओं से मेल मुलाकात शुरू की है। ऐसे कर्मचारी नेताओं को चिन्हित किया जा रहा है,जिनका असर कर्मचारियों पर गहरा है और जो किसी आंदोलन को खड़ा करने की क्षमता रखते हैं। सरकार का लक्ष्य साफ है कि किसी भी सूरत में कर्मचारियों को लामबंद होने से रोका जाए और फौरी तौर पर इनकी जो मांगे पूरी की जा सकें उन्हें पूरा करने की कोशिशें की जाएं।
दरअसल शिवराज ने कुछ समय पहले भोपाल में ‘अजाक्स’ (आरक्षण के पक्षधर) कर्मचारी संगठन के सम्मेलन में मंच पर पहुंचकर एक ऐसी घोषणा की थी जो उनके गले की हड्डी बन रही है। उन्होंने आरक्षित वर्ग के कर्मचारियों को माइक पर भरोसा दिलाया था कि कोई माई का लाल उनसे प्रमोशन में आरक्षण का हक नहीं छीन सकता। इसके लिए सरकार हर कदम उठाएगी। शिवराज ने ऐसा किया भी और सुप्रीम कोर्ट में सरकार की ओर से अपना पक्ष रखवाया। इसमें आरक्षण का समर्थन किया गया है। यह मामला कई महीने से कोर्ट में लंबित है। शिवराज के इसी कदम से ‘सपाक्स’ यानी सवर्ण कर्मचारियों का संगठन उखड़ा हुआ है। कर्मचारियों ने हालिया विधानसभा उपचुनाव में भी इस मुद्दे के असर की पड़ताल कराई है।
जानकारों का कहना है कि शिवराज ने जिस अंदाज में उस दिन मंच से घोषणा की थी,उसके पीछे दलित वोट बैंक को मजबूत करने की रणनीति काम कर रही थी,लेकिन इस नाजुक मसले पर शिवराज की छाती ठोकने वाली शैली से दूसरा और बड़ा कर्मचारी वर्ग नाखुश हो गया है। यह तथ्य भाजपा की चुनावी संभावनाओं को पलीता लगा सकता है। खास बात यह है कि माई के लाल वाले जुमले पर सवर्ण कर्मचारियों ने भी एक जुमला उछालकर शिवराज को बेचैन कर दिया है। यह जुमला है- मोदी तुमसे बैर नहीं पर मामाजी की खैर नहीं।
कर्मचारियों के बूते बनाई थी सरकार
इससे पहले दो मर्तबा जब शिवराज ने चुनाव जीतकर सरकार बनाई तो इसका एक वजह समूचे कर्मचारियों का समर्थन ही था। दरअसल सरकारी कर्मचारी वर्ग ने सबसे पहले 2003 में भाजपा को भरपूर समर्थन देकर उसे सत्ता सौंपी थी। तब उमाभारती की अगुआई में भाजपा ने कर्मचारियों को साधा था और उन्हें भरोसा दिलाने में कामयाबी पाई थी कि भाजपा उनके दुख दर्द दूर करेगी। उस वक्त कर्मचारी कांग्रेस की दिग्विजय सरकार की कतिपय वादाखिलाफियों से परेशान था,कुछ अन्य सरकारी मुद्दे और अनेक संस्थानों की निजीकरण की आहट से भी यह वर्ग डरा हुआ था।
उमाभारती के बाद शिवराज ने इस विशाल वोट समूह को इतनी आत्मीयता से साधा कि 2008 और 2013 का चुनाव भाजपा ने चौहान की अगुआई में आसानी से फतह कर लिया। इस बार चुनाव के पहले शिवराज ने कर्मचारियों के बीच खाई खोदने का भी दुस्साहस करके उनके शुभभचतकों को भी भचता में डाल दिया है। चौदह साल पहले जब कांग्रेस की दिग्विजय सरकार का पतन हुआ था,तब भी कर्मचारी और सवर्ण वर्ग की नाराजगी प्रमुख कारण मानी गई थी। यही खतरा अब शिवराज सरकार पर मंडरा रहा है।
इसकी वजहें भी हैं क्योंकि अध्यापक शिक्षक संघ,पटवारी संघ, चिकित्सा व पैरामेडिकल संघ,रोजगार सहायक, मंत्रालय कर्मी,राजस्व निरीक्षक संघ आदि किसी न किसी रूप में आंदोलन कर चुके हैं। इसीलिए हाल के दिनों में शिवराज ने इनमें से कुछ संघों के नेताओं के साथ वन-टु-वन चर्चा की है। चौहान ने राज्य कर्मचारी कल्याण समिति के अध्यक्ष रमेश शर्मा और खनिज विकास संघ के अध्यक्ष शिव चौबे का सहारा लिया है। दोनों ही शिवराज के विश्वस्त हैं।
कांग्रेस को भी चाहिए मजबूत चेहरा
शिवराज के खिलाफ पनपते माहौल के बावजूद कांग्रेस यह तय नहीं कर पा रही है कि किसे चेहरा बनाकर मैदान में उतारा जाए। कमलनाथ की छवि नेता से ज्यादा कारोबारी कुबेर की है। दिग्गी राजाअपनी दूसरी पत्नी के साथ नर्मदा यात्रा करके अपनी इमेज मौलाना दिग्विजय से बदलकर पंडित दिग्विजय की करने का जतन कर रहे हैं। लेकिन उनका नाम आते ही दस साल के राज के पाप फिर उभर आएंगे और भाजपा उनको भुनाने की कोशिश करेगी।
कांग्रेस के पास एक ही चेहरा बचता है ज्योतिरादित्य का। हालाँकि भाजपा उनके आने पर राजा बनाम रंक की लड़ाईं बनाने की कोशिश करेगी। दिग्गी की चिंता अपने पुत्र जयवर्धन को आगे बढ़ाने की है लेकिन कांग्रेसी जानते हैं कि अगर अब नहीं जीते तो पार्टी के वजूद पर सवाल खड़ा हो जाएगा।