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दिल्ली के 10 गुरुद्वारों में रोजाना 1 लाख लोग खाते हैं लंगर
नई दिल्ली: दिल्ली के 10 ऐतिहासिक गुरुद्वारों में रोजाना लगभग एक लाख लोग लंगर प्रसाद ग्रहण करते हैं। इसमें चपाती, दाल, सब्जी, खीर, सलाद आदि पूर्ण डाइट शामिल होती है। जबकि गुरुपर्व होली, दीपावली तथा सप्ताह के अंतिम दिनों में इनकी संख्या बढ़कर लगभग पांच लाख तक पहुंच जाती है। इन गुरुद्वारों के लंगर स्वच्छता, गुणवत्ता, पौष्टिकता और शुद्धता के मामले में केन्द्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय के संगठन फूड सेफ्टी स्टैंडर्ड आथॉरिटी आफ इंडिया के सख्त मापदंडों पर खरे उतरे हैं।
इन गुरुद्वारों में विभिन्न साधनों के उपयोग से आम जनमानस को प्रदान किए जाने वाले लंगर प्रसाद को ज्यादा स्वास्थ्यवर्धक और पौष्टिक बनाया गया है ताकि समाज के श्रमिक वर्ग को सेहतमंद बनाया जा सके, जोकि अपने आहार के लिए मुख्यत: गुरुद्वारों के लंगर पर निर्भर रहते है।
देश के विभिन्न हिस्सों से अपनी शिकायतों, मांगों को लेकर आने वाले आंदोलनकारियों, धरना-प्रदर्शनकारियों को नियमित रूप से नई दिल्ली के बंगला साहिब गुरुद्वारे में 'घर का खाना' मुहैया कराया जाता है। यहां जाति, धर्म, क्षेत्र एवं राजनैतिक भेदभाव के बिना लंगर प्रदान किया जाता है।
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गुरुद्वारों में लंगर की गुणवत्ता, स्वच्छता, पौष्टिकता आदि सुधारने के लिए प्रबंधकसमीतियों का गठन किया गया है। इसके अंतर्गत देशी घी, खाद्य तेल आदि को प्रयोग से पहले सरकारी प्रयोगशाला में जांच परखा जाता है जबकि सब्जियों की ताजगी तथा पौष्टिकता को सुनिश्चित करने के लिए सीधे आजादपुर मंडी से खरीदा जाता है।
दिल्ली सिख गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी के अध्यक्ष मंजीत सिंह जीके ने बताया, 'सभी लंगर रसोइयों को पीला एप्रन, दस्ताने और पगड़ी पहनना अनिवार्य किया गया है ताकि सभी प्रकार के प्रदूषण को रोका जा सके। उन्होंने कहा कि लंगर रसोइये का शारीरिक, मानसिक रूप से दृढ़ होना अनिवार्य है और किसी भी संक्रमण रोगी को लंगर बनाने की कतई अनुमति प्रदान नहीं की जाती।'
उन्होंने बताया कि प्रत्येक लंगर परिसर पूरी तरह वायु प्रवाहक है और रसोई परिसर की संगमरमर टाइलों को दिन में बार-बार धोया जाता है। लंगर में चपाती बनाने के लिए आधुनिक मशीन लगाई गई है। उन्होंने कहा कि बचे हुए भोजन, फलों आदि को बड़ी ट्रालियों में ढक कर रखा जाता है। उन्होंने कहा कि स्थानीय निकायों से नजदीकी समन्वय स्थापित करके सभी प्रकार के रोगों की रोकथाम और बचाव के समयबद्ध तरीके से उचित प्रबन्ध किए जाते हैं। लंगर श्रद्वालुओं को स्वच्छ पेयजल प्रदान करने के लिए गुरुद्वारा परिसर में आर.ओ. लगाए गए हैं।
उन्होंने कहा कि प्रबन्धक समिति ने लंगर रसोइयों को खाना बनाने की नवीनतम तकनीक, उपकरणों तथा परंपराओं के प्रति कार्य कुशल बनाने के उद्देश्य से प्रशिक्षण प्रदान करने के लिए एक गैर सरकारी संगठन का सहयोग लिया है। गुरुद्वारा के लंगर की गुणवत्ता, महक, स्वाद तथा पौष्टिकता में पिछले कुछ समय से महत्वपूर्ण सुधार दर्ज किया गया है।
परंपरा लंगर की
सिखों के धर्म ग्रंथ में 'लंगर' शब्द को निराकारी दृष्टिकोण से लिया गया है, पर आम तौर पर 'रसोईÓ को लंगर कहा जाता है जहाँ कोई भी आदमी किसी भी जाति का, किसी भी धर्म का, किसी भी पद का हो इक_े बैठ कर अपने शरीर की भूख अथवा पानी की प्यास मिटा सकता है। लंगर प्रथा लगभग 15 वीं सदी में शुरू हुई थी। श्री गुरू नानक देव जी के उपदेशों से वाणी में, जो एकता और भाईचारे का संदेश मिलता है, उससे स्पष्ट है कि लंगर प्रथा श्री गुरू नानक देव जी के समय शुरू हुई थी।
ऐतिहासिक कहानियों के अनुसार, एक बार सिखों के पहले गुरु नानक देव जी को उनके पिता ने व्यापार करने के लिए कुछ पैसे दिए, जिसे देकर उन्होंने कहा कि वो बाजार से सौदा करके कुछ मुनाफा कमा कर लाएं। नानक देव जी इन पैसों को लेकर जा ही रहे थे कि उन्होंने कुछ भिखारियों और भूखों को देखा, उन्होंने वो पैसे भूखों को खिलाने में खर्च कर दिए और खाली हाथ घर लौट आये। नानक जी की इस हरकत से उनके पिता बहुत गुस्सा हुए, जिसकी सफाई में नानक देव जी ने कहा कि सच्चा लाभ तो सेवा करने में है। गुरु नानक देव जी द्वारा शुरू किये गए इस सेवा भाव को उनके बाद के सभी 9 गुरुओं ने बनाये रखा और लंगर जारी रहा। एक कहानी के अनुसार, बादशाह अकबर, लंगर से इतने प्रभावित थे कि एक बार वो खुद लंगर खाने पहुंचे और लोगों के बीच में बैठ कर खाना खाया।