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Gyanvapi Masjid Case: शिव लौटे ज्ञानवापी, राम के बाद शिव की बारी, विस्तार से जाने इसका इतिहास
Gyanvapi Mosque History in Hindi: ज्ञानवापी परिसर को लेकर भी हिंदू मुसलमान आज आमने सामने हैं। लेकिन आज के साक्ष्यों से लेकर ढेरों इतिहासकारों के वर्णन और प्राचीन मुकदमों के फैसले, सभी कुछ एक ही बात कहते हैं कि ज्ञानवापी मस्जिद मंदिर के ऊपर बनाई गई है।
Gyanvapi masjid case: रामजन्मभूमि विवाद पांच सदियों बाद हल हो पाया। पर इसकी तुलना में काशी ज्ञानवापी मस्जिद का समाधान कम समय में होता हुआ दिखता है। पता चलता है कि संघ व भाजपा का अयोध्या, मथुरा, काशी का अभियान रुका नहीं है। चल रहा है। इसका भान हो रहा है। मर्यादा पुरुषोत्तम रामचन्द्र सौहार्द्रता, सहनशीलता तथा सौम्यता के प्रतिमान हैं। भोले शंकर तो औघड़ हैं, प्रगल्भ हैं, प्रचण्ड हैं। त्रिनेत्रधारी, त्रिशुल लहराते। आदि हैं, अनंत हैं।
ज्ञानवापी मस्जिद मंदिर के ऊपर बनाई गई (Gyanvapi Masjid Ka Itihas in Hindi)
इसलिए शायद रामजन्म भूमि विवाद में अदालत दर अदालत , घटना दर घटना कुछ इस तरीक़े से घटी कि न्यायपालिका, विधायिका व कार्यपालिका की मर्यादा नहीं टूटी। विवाद रामजन्म भूमि पर मालिकाने हक का था। फ़ैसला पंचायत सरीखा हुआ फिर भी जन मर्यादा बनी रही।
ज्ञानवापी परिसर (gyanvapi mosque history in hindi) को लेकर भी हिंदू मुसलमान आज आमने सामने हैं। लेकिन आज के साक्ष्यों से लेकर ढेरों इतिहासकारों के वर्णन और प्राचीन मुकदमों के फैसले, सभी कुछ एक ही बात कहते हैं कि ज्ञानवापी मस्जिद (gyanvapi masjid case in hindi) मंदिर के ऊपर बनाई गई है। ये तथ्य किसी भी आम आदमी को अपनी आंखों से देखने पर भी साफ पता चलता है, इसमें कोई पेचीदगी या बारीकी नहीं है। यहां सब कुछ सामने है, रिकॉर्डेड है, डॉक्यूमेंटेड है।
बहरहाल, मां श्रृंगार गौरी की आरती, पूजा और दैनिक दर्शन की अदालती मांग के बाद शुरू हुए तीन दिनी सर्वे की पहली रात में ही जलकल विभाग ने वजूखाने से पानी और मछलियों को निकाल कर साक्ष्य जुटाने का रास्ता बनाया। करीब पंद्रह सौ तस्वीरें खींची गईं। वीडियो बनाये गये। बारह पन्नों की रिपोर्ट तैयार की गयी। हिंदू पक्ष की ओर से कहा गया कि वजू खाने के नीचे 12 फुट लंबा और 8 फुट चौड़ा शिवलिंग मिला है। जबकि मुस्लिम पक्ष कह रहा है कि जिसे शिवलिंग कहा जा रहा है , वह फौब्वारा है। मगर कोर्ट कमिश्नर विशाल सिंह ने कहा कि अदालत की समीक्षा के बाद ही इस बाबत कोई खुलासा किया जा सकता है। अब निचली व सर्वोच्च अदालतें इस पर अपना अपना काम कर रही हैं। ऐसे में ज्ञानवापी के इतिहास को पढ़ने और काशी विश्वनाथ मंदिर को देखने के बाद जो कुछ लगता है उस पर विचार किया जाना बेहद ज़रूरी हो जाता है।
पहले ऐतिहासिक प्रमाणों पर बात की जाये।आम तौर पर लोग यह जानते हैं कि ज्ञानवापी मस्जिद का निर्माण बनारस (Gyanvapi Masjid in Banaras) में विश्वेश्वर मंदिर को गिरा कर मुगल शासक औरंगजेब ने 1669 में कराया था। पर हक़ीक़त यह है कि मूल रूप से विश्वेश्वर मंदिर का निर्माण 16वीं सदी में राजा टोडरमल ने बनारस के प्रतिष्ठित ब्राह्मण परिवार के. नारायण भट्ट के संयोजन में कराया था। इसके बाद जहांगीर के निकट सहयोगी वीर सिंह देव बुंदेला ने सत्रहवीं शताब्दी की शुरुआत में कुछ हद तक विश्वेश्वर मंदिर का नवीनीकरण किया। लेकिन यह मंदिर अनेक बार गिराया गया। बनाया गया।
इतिहासकार माधुरी देसाई ने अपनी किताब 'बनारस रिकनस्ट्रक्टेडः आर्किटेक्चर एंड सेक्रेड स्पेस इन ए हिन्दू होली सिटी' में मूल मंदिर के इतिहास और ज्ञानवापी के स्थान से उत्पन्न होने वाले तनावों का उल्लेख किया है। बताया गया है कि विश्वेश्वर मंदिर के शिवलिंग को पहली बार कुतुब उद-दीन ऐबक ने 1193/1194 ई. में कन्नौज के राजा जयचंद्र की हार के बाद उखाड़ा था। कुछ वर्षों बाद इसके स्थान पर रजिया मस्जिद का निर्माण हुआ। इसके बाद हुसैन शाह शर्की (1447/1458) या सिकंदर लोधी (1489/1517) द्वारा इसे ध्वस्त किए जाने से पहले इल्तुतमिश (1211/1266) के शासनकाल के दौरान एक गुजराती व्यापारी द्वारा मंदिर का पुनर्निर्माण कराया गया।
बाद में राजा मान सिंह ने मुगल सम्राट अकबर के शासन के दौरान ज्ञानवापी परिसर में मंदिर का पुनर्निर्माण करवाया । लेकिन रूढ़िवादी ब्राह्मणों ने मंदिर के बहिष्कार का रास्ता चुना, क्योंकि उनकी बेटी की शादी इस्लामी शासकों से हुई थी। राजा टोडर मल ने 1585 में मंदिर में और सुधार किया। यहां, विश्वेश्वर लिंगम को लगभग एक शताब्दी तक रखा गया, जब तक कि यह मंदिर 1669 में औरंगजेब के तीव्र धार्मिक उन्माद का शिकार नहीं हो गया। औरंगजेब ने इसे ध्वस्त कर एक मस्जिद में परिवर्तित कर दिया ।
इतिहासकार डायना एल. ईक ने मध्ययुगीन कालक्रम को आदि-विश्वेश्वर परिसर के लिंगम का मूल स्थान होने की धारणा की पुष्टि करने वाला पाया। मध्ययुगीन स्रोतों को पढ़ने पर हेन्स टी बकर मानते हैं कि मंदिर 1194 में नष्ट हो गया था। जो संभवत: अविमुक्तेश्वर को समर्पित था, जो वर्तमान ज्ञानवापी परिसर में स्थित है। 13वीं शताब्दी के अंत में हिंदुओं ने विश्वेश्वर के मंदिर के लिए खाली ज्ञानवापी को पुनः प्राप्त किया। क्योंकि रजिया मस्जिद ने 'विश्वेश्वर की पहाड़ी' पर कब्जा कर लिया था। इस नए मंदिर को जौनपुर सल्तनत द्वारा नष्ट कर दिया गया।
वैसे 1868 में लिखी गई रेव एमए शेरिंग की बहुचर्चित किताब 'द सेक्रेड सिटी ऑफ हिंदू' में भी ज्ञानवापी मस्जिद के नीचे चारों कोनों पर मंडपम होने का उल्लेख है। उनके नाम ज्ञान, श्रृंगार, ऐश्वर्य और मुक्ति मंडपम बताए गए हैं। विदेशी लेखक अल्टेकर ने भी 4 मंडपों की पुष्टि करते हुए इनकी साइज 16-16 फीट की बताई है।
इतना ही नहीं, 20 दिसंबर , 1810 को बनारस के तत्कालीन ज़िला मजिस्ट्रेट व्हाटसन ने वाइस प्रेसिडेंट इन काउंसिल को पत्र लिख कर ज्ञानवापी परिसर हमेशा के लिए हिंदुओं को सौंपने को कहा। लेकिन यह आज तक संभव नहीं हो पाया। मोहम्मद तुग़लक़ के समकालीन लेखक जिन प्रभ सूरी की किताब "विविध कल्प तीर्थ" में लिखा है कि बाबा विश्वनाथ को देव क्षेत्र कहा जाता था। लेखक फ्यूहरर ने लिखा है कि फ़िरोज़शाह तुग़लक़ के समय कुछ मंदिर मस्जिद में तब्दील हुए थे। फ्यूहरर के दस्वेजों को अदालत ने अयोध्या के मामले में प्रमाण के तौर पर स्वीकार किया है। 1460 में वाचस्पति ने अपनी पुस्तक तीर्थ चिंतामणि में लिखा है कि अविमुक्तेश्वर व विश्वेश्वर एक ही लिंग हैं। इतिहासकार डॉ.एस.एन.भट्ट ने अपनी किताब "दान हरावली" में लिखा है कि महाराजा टोडरमल ने मंदिर का पुनर्निर्माण 1585 में कराया। इसके बाद 18 अप्रैल,1669 को औरंगजेब ने एक फ़रमान जारी कर काशी विश्वनाथ मंदिर ध्वस्त करने का आदेश दिया। यह फ़रमान कोलकाता की एशियाटिक लाइब्रेरी में रखा है। साकिये मुस्तइक खां की पुस्तक "मसीदे आलमगीरी" में भी इस विध्वंस का वर्णन मिलता है।
इतिहासकार माधुरी देसाई बनारस में मंदिरों के दुर्लभ उल्लेखों को स्वीकार करती हैं-'वह निश्चित रूप से पैमाने में छोटे और महत्वहीन थे। मगर वे अस्तित्व में थे।' 12वीं शताब्दी के एक निबंध 'कृत्यकल्पतरु' में किसी एक मंदिर का नहीं बल्कि कई शिव लिंगों का उल्लेख किया गया है, जिनमें से एक विश्वेश्वर था। कुछ इतिहासकारों का कहना है कि विश्वेश्वर लिंगम ने 12वीं और 14वीं शताब्दी के बीच किसी समय हिंदुओं के धार्मिक जीवन में एक लोकप्रियता हासिल की। चौदहवीं शताब्दी के काशीखंड के लेखकों ने विश्वेश्वर को शहर का प्रमुख देवता बताया है। पहली बार कई तीर्थ मार्गों में विश्वेश्वर मंदिर को चित्रित किया गया। सोलहवीं शताब्दी के उत्तरार्ध से विश्वेश्वर शहर के प्रमुख मंदिर के रूप में स्थान पा गया।
इस मामले में 1937 से 1991 तक ज्ञानवापी परिसर को लेकर कोई विवाद नहीं हुआ। 15 अक्टूबर, 1991 में ज्ञानवापी परिसर में नए मंदिर निर्माण और पूजा पाठ की इजाजत को लेकर वाराणसी की अदालत में याचिका दायर की गई। यह याचिका पंडित सोमनाथ व्यास, संस्कृत प्रोफेसर डॉ. रामरंग शर्मा और सामाजिक कार्यकर्ता हरिहर पांडे ने दाखिल की। इनके वकील थे विजय शंकर रस्तोगी। याचिका में कहा गया कि काशी विश्वनाथ का जो मूल मंदिर था, उसे 2050 साल पहले राजा विक्रमादित्य ने बनवाया था और 1669 में औरंगजेब ने इसे तुड़वाकर यहां मस्जिद बनवा दी। इस याचिका पर सिविल जज (सीनियर डिविजन) ने दावा चलने का आदेश दिया। इसे दोनों पक्षों ने सिविल रिविजन जिला जज के सामने चुनौती दी। अदालत ने सिविल जज के फैसले को निरस्त कर पूरे परिसर के सबूत जुटाने का आदेश दिया।
1937 में हाईकोर्ट ने अपने फैसले में मस्जिद के ढांचे को छोड़कर बाकी सभी जमीनों पर व्यास परिवार का हक बताया और उनके पक्ष में फैसला दिया था। इसी फैसले में बनारस के तत्कालीन कलेक्टर का वह नक्शा भी फैसले का हिस्सा बनाया गया है जिसमें ज्ञानवापी मस्जिद के तहखाने का मालिकाना हक व्यास परिवार को दिया गया है। तब से आज तक व्यास परिवार ही ज्ञानवापी मस्जिद के नीचे के तहखाना का देखरेख करता है, वहां पूजा करता है और प्रशासन के अनुमति से वही तहखाने को खोल सकता है। दावा है कि आज भी उसमें मंदिर के ढेरों सामान रखे हैं।
1937 के इस फैसले में ही इलाहाबाद हाईकोर्ट में एक नक्शा भी लगाया गया। उस नक्शे में मस्जिद की सीमा रेखा भी तय की गई। व्यास परिवार और उनके वकील के पास पिछले पौने दो सौ साल से लड़े गए मुकदमों की फेहरिस्त और फाइलों का पुलिंदा है।
1937 के मुकदमे में हाई कोर्ट ने साफ कर दिया था कि ढांचागत मस्जिद को छोड़कर तमाम जमीन व्यास परिवार और बाबा विश्वनाथ मंदिर की होगी। मस्जिद के अलावा आसपास की किसी जमीन पर न तो नमाज हो सकेगी ना ही उर्स या फिर जनाजे की नमाज होगी। जानने की बात यह भी है कि 1937 में ब्रिटिश सरकार ने लिखित रूप में कोर्ट में हलफनामा दायर कर लिखा था कि यह परिसर वक्फ प्रॉपर्टी नहीं है। यहाँ की मूर्तियाँ मुगलकाल के पहले से यहाँ हैं। इस सम्पत्ति का मालिक औरंगजेब नहीं था। इस्लामिक कानून के मुताबिक यह अल्लाह को समर्पित नहीं किया जा सकता है। दावेदारों की ओर से सात और ब्रिटिश सरकार की ओर से 15 गवाह पेश हुए थे। सब जज बनारस ने 15 अगस्त, 1937 को मस्जिद के अलावा ज्ञानवापी परिसर में नमाज पढऩे का अधिकार नामंजूर कर दिया था। दीन मोहम्मद के दोबारा केस दायर करने पर कोर्ट ने कहा था यहाँ मंदिर तोड़ा गया है। यह वक्फ सम्पति नहीं है। नमाज पढ़ लेने से किसी स्थान पर आप का उस पर हक़ नहीं हो जाता।
हालाँकि मुसलमानों की ओर से कोई दस्तावेज या ऐतिहासिक साक्ष्य शुरू से आज तक नहीं पेश किये गये। वे केवल गाल बजा रहे हैं। मुस्लिम पक्ष का कहना है कि मूल इमारत कभी भी मंदिर नहीं थी । बल्कि दीन-ए-इलाही की एक संरचना थी, जो नष्ट हो गई। कुछ कहते हैं मूल इमारत वास्तव में एक मंदिर थी। लेकिन ज्ञान चंद द्वारा नष्ट कर दी गई। इसके अलावा यह मत भी है कि मंदिर को औरंगजेब ने नष्ट कर दिया । क्योंकि यह राजनीतिक विद्रोह के केंद्र के रूप में कार्य करता था। उनका दावा है कि औरंगजेब ने धार्मिक कारणों से मंदिर को नहीं तोड़ा।
ज्ञानवापी मस्जिद के एक इमाम मौलाना अब्दुस सलाम नोमानी ने इस बात को खारिज किया था कि औरंगजेब ने मस्जिद बनाने के लिए किसी मंदिर को तोड़ा। उनका दावा है कि मस्जिद का निर्माण तीसरे मुगल सम्राट अकबर ने किया था। औरंगजेब के पिता शाहजहाँ ने कथित तौर पर 1048 हिजरी (1638/1639 सीई) में मस्जिद स्थल पर इमाम-ए-शरीफत नामक एक मदरसा शुरू किया था। उन्होंने औरंगजेब के बनारस में सभी हिंदू मंदिरों को संरक्षण प्रदान करने और उनके कई मंदिरों, हिंदू स्कूलों और मठों को संरक्षण प्रदान करने के आदेश का उल्लेख किया है।
1809 में कई घटनाएं हुईं। ज्ञानवापी मस्जिद और काशी विश्वनाथ मंदिर के बीच तटस्थ स्थान पर हिंदू समुदाय द्वारा एक मंदिर के निर्माण के प्रयास से तनाव बढ़ गया। इसमें दंगे खून खराबा और आगजनी हुई।
पर आज जब नरेंद्र मोदी ने काशी विश्वनाथ मंदिर को भव्य स्वरूप प्रदान कर दिया है। तब भी मंदिर के दर्शन को गये किसी भी श्रद्धालु को वहाँ खड़ी ज्ञानवापी मस्जिद मुँह चिढ़ाते मिलती है। ऐसे में दुख व आक्रोश का स्वाभाविक हो उठता है। हमारी दासता की कहानी यह मस्जिद बताती है। ज्ञानवापी मुस्लिम नाम नहीं हो सकता। भारत की किसी मस्जिद मे फौब्वारा नहीं मिलता है। फौव्वारा बिजली से चलता है। तब कहाँ कितनी बिजली थी, यह किसी से छुपा नहीं है। बाबा भोले नाथ के किसी भी मंदिर में नंदी की मूर्ति किनारे नहीं होती है। वह ऐसी जगह बनी होती है जहां से नंदी शिवलिंग को देख रहे हों। काशी में यह स्वरूप तभी बनता है जब ज्ञानवापी का हिस्सा मंदिर में हो।
राखी सिंह,लक्ष्मी देवी, सीता साहू और अन्य ने इस बार अदालत का दरवाज़ा खटखटाया है।याचिकाकर्ताओं के वकील मदन मोहन यादव हैं। विश्वेश्वर नाथ मंदिर के अधिवक्ता विजय शंकर रस्तोगी हैं। मुस्लिम समाज इसे 1991 के पूजा अधिनियम का खुला उल्लंघन बता रहा है।
मुस्लिम पक्ष के वकील हुजेफा अहमदी ने मुख्य न्यायाधीश एनवी रमणा की अगुवाईवाली पीठ को तत्काल सुनवाई करने की जरुरत बताई। वकील अहमद ने कहा, "यह (ज्ञानवापी) पुरातन काल से मस्जिद है। यह (सर्वेक्षण) उपासना स्थल अधिनियम 1991 के तहत स्पष्ट रुप से प्रतिबंधित है। सर्वे करने का निर्देश पारित किया गया है, अत: यथास्थिति बनाये रखने का आदेश चाहिये।" मुख्य न्यायाधीश रमणा ने कहा कि ''मुझे कोई जानकारी नहीं है। मैं ऐसा आदेश कैसे पारित कर सकता हूं ? मैं पढूंगा। मुझे विचार करने दीजिए।''
अब अगर यहां 18 सितम्बर, 1991 का पूजास्थल (विशेष प्रावधान) नियम की बात की जाये तो इस एक्ट का नम्बर 42 है। इसे कांग्रेसी पीवी नरसिम्हा राव सरकार ने बहुमत से पारित कराया था। तब लोकसभा में 120 भाजपायी सदस्यों ने विरोध किया था। अब तो वे संख्या में 303 हैं। राज्यसभा में भी भाजपा का बहुमत है। नरेन्द्र मोदी को जनादेश मिला है कि वह विदेशी आक्रांताओं द्वारा गोरी—गजनवी, मुग़ल , तुर्क , मंगोल, बाबर—औरंगजेब तथा उनके वंशजों द्वारा ढाये जुल्मों का प्रतिकार करें। नरेन्द्र मोदी अब अटल बिहारी वाजपेयी की उदारवादी नीति की फोटोकॉपी नहीं बनेंगे। वह भग्न व कूटरचित इतिहास की मरम्मत करेंगे।
17 मई 2021 को फाजिले बरेल्वी (1892) आला हजरत अहमद रजा खां रहमुतल्लाह अलय के वंशज इत्तिहादे मिल्लत कांउसिल के मुखिया जनाब तौकी रजा साहब ने ज्ञानवापी पर फरमा दिया - " जहां—जहां हिन्दुओं ने इस्लाम स्वीकारा वहां—वहां मंदिर तोड़कर मस्जिद बनायी गयी।'' इसीलिये वे नहीं चाहते कि मुसलमान किसी मुकदमें में पड़े। मुसलमानों को चाहिए कि वे इसी पर अमल करें। क्योंकि हाईकोर्ट उन्हें पहले पराजित पक्ष में डाल चुकी है। ज़मीन को व्यास परिवार व विश्वनाथ मंदिर का बता चुकी है। ब्रिटिश सरकार कोर्ट में हलफनामा दायर कर कह चुकी है कि यह परिसर वक्फ प्रॉपर्टी नहीं है। यहाँ की मूर्तियां मुगलकाल के पहले से यहाँ हैं। इस सम्पत्ति का मालिक औरंगजेब नहीं था।
वैसे भी लड़ाई हिंदुओं के भगवान व मुसलमानों के भगवान के बीच नहीं है। लड़ाई औरंगजेब, बाबर आदि आक्रांताओं व हिंदुओं की आस्था के बीच है। आक्रांताओं व आस्था में कौन नहीं कहेगा कि आस्था जीते। आस्था के सभी सवाल आज मिल बैठ कर हल कर लिये जाने चाहिये । नहीं तो तब उनका राज था। आज और अब इनका राज है।