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हिमाचल चुनाव: भाजपा-कांग्रेस में दिग्गज नेता बने पार्टी के लिए मुसीबत

raghvendra
Published on: 18 Oct 2017 12:14 PM GMT
हिमाचल चुनाव: भाजपा-कांग्रेस में दिग्गज नेता बने पार्टी के लिए मुसीबत
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वेद प्रकाश सिंह की रिपोर्ट

शिमला। कई बार ताकत ही कमजोरी बन जाती है। कुछ ऐसी ही स्थिति से हिमाचल की राजनीति भी जूझ रही है। हिमाचल में राजनीति के दो अहम ध्रुव कांग्रेस और बीजेपी हैं। दोनों दलों में नेताओं की लंबी कतार है। बीजेपी में कतार थोड़ी लंबी है, इसलिए वहां परेशानी भी ज्यादा है। कांग्रेस में यह कतार छोटी है, इसलिए वह थोड़ा कम परेशान है। नौ नवम्बर को नेताओं का भाग्य ईवीएम में कैद हो जाएगा। वैसे दोनों ही दल विधानसभा चुनाव में बाजी मारने के लिए कोई कसर बाकी नहीं छोड़ रहे।

कांग्रेस

हिमाचल मे एक जमाने से वीरभद्र सिंह का सिक्का चल रहा है। उनकी लोकप्रियता का आलम यह है कि लोग उनके नाम की कसमें भी खा जाते हैं। इसी कारण तमाम विरोधों के बाद भी आलाकमान उन्हें नजरंदाज नहीं कर सका और सीएम का चेहरा बनाया। लेकिन बढ़ती उम्र में सरकार को ढोने वाले राजा वीरभद्र सिंह की संगठन के साथ अच्छी तरह नहीं निभ रही है।

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वीरभद्र की संगठन से पटरी नहीं

तल्खी का आलम यह है कि प्रभारियों से लेकर जनसभाओं तक में दोनों के समर्थक नेता और कार्यकर्ता एक-दूसरे के विरोध में नारेबाजी करवा चुके हैं। संगठन से हटाने की मांग को लेकर हिमाचल प्रदेश अध्यक्ष सुखविंदर सिंह सुक्खू ने कोई कसर नहीं छोड़ी थी। दोनों के बीच खींचतान यहीं थम जाएं, इस बात के आसार भी कम ही हैं। विवाद सुलझाने पहुंचे कई नेताओं ने दोनों को अपने अहम किनारे रखकर पार्टी के लिए काम करने की नसीहत दी।

यह नसीहत कितनी कारगर साबित होगी, यह देखने वाली बात होगी। सुशील कुमार शिंदे ने वीरभद्र को नसीहत देते हुए कहा कि आपकी सुखराम के साथ भी लड़ाई होती थी। आलम यह है कि दो धुर विरोधी आज आलाकमान के दबाव में एक साथ एक लक्ष्य पर काम कर रहे हैं मगर आगे क्या होगा कोई नहीं जानता। कांग्रेस के कई बड़े नेताओं के बीजेपी में शामिल होने की सूचना है जो पार्टी के लिए बड़ा झटका होगा।

लॉबिंग की आशंका

इसके अलावा वीरभद्र सिंह द्वारा बेटे विक्रमादित्य को टिकट दिलवाने पर बाकी वरिष्ठ नेता भी अपने बेटे के लिए लॉबिंग करेंगे जिससे टिकट वितरण का संतुलन भी गड़बड़ा सकता है। वैसे भी भाई भतीजावाद के आरोपों से घिरी कांग्रेस इस स्थिति से बचना चाहेगी। बताते चलें कि वीरभद्र सिंह ने शिमला ग्रामीण सीट अपने बेटे विक्रमादित्य के लिए छोडऩे का ऐलान किया था।

भारतीय जनता पार्टी

कांग्रेस के मुकाबले बीजेपी में इस बार नेताओं की लंबी कतार है। यही वजह है वह कांग्रेस से ज्यादा दबाव में भी है। आलम यह है कि पास में मुख्यमंत्री के तीन-तीन चेहरे होने के बावजूद उसे बिना चेहरे के मैदान में उतरना पड़ रहा है। नेता इसे चाहे जो कहें, लेकिन इसे हिमाचल की जनता और राजनीति के जानकार भीतरघात का डर कह रहे हैं।

क्या है बीजेपी की मुसीबत

बिना किसी चेहरे के चुनाव में उतरी के बीजेपी के पास तीन बड़े चेहरे हैं और तीनों सीएम पद के दावेदार हैं। इन तीनों नेताओं में आपसी सामंजस्य नहीं बैठता और बीजेपी की यही मुसीबत है।

शांता कुमार: आपातकाल के बाद 68 में से 60 सीटों पर जनता पार्टी की जीत के साथ कांग्रेस का तिलस्म तोडऩे वाले शांता कुमार हिमाचल के पहले गैर कांग्रेसी सीएम बने। 90 के दशक में शांता कुमार ने ही बीजेपी को सत्ता तक पहुंचाया और पहले भाजपाई सीएम बने। 98 में वह प्रदेश की सियासत छोड़ अटल कैबिनेट में मंत्री बने। साफ सुथरी छवि के नेता लेकिन 84 की उम्र में वे मोदी के मानकों में फिट नहीं बैठते। वैसे उन्हें दरकिनार करना भाजपा को भारी पड़ सकता है।

प्रेम कुमार धूमल: हमीरपुर से आने वाले प्रोफेसर प्रेम कुमार धूमल दो बार हिमाचल प्रदेश की कमान संभाल चुके हैं। उनके पास दस साल तक सीएम के कामकाज का अनुभव है। वे जमीनी नेता हैं और उनकी मतदाताओं पर पकड़ है। वे भी 74 साल के हो चुके हैं और मोदी के मानकों पर खरे नहीं उतरते। लेकिन उन्हें अभी दरकिनार करना बीजेपी के लिए किसी भी तरह से फायदे का सौदा नहीं। लिहाजा बीजेपी अपने पत्ते नहीं खोल रही है।

जगत प्रकाश नड्डा: धूमल सरकार में मंत्री रहे नड्डा वर्तमान में मोदी सरकार में स्वास्थ्य मंत्री हैं। राज्यसभा सांसद नड्डा बिलासपुर के रहने वाले हैं। छात्र राजनीति से अपने कॅरियर की शुरुआत करने वाले नड्डा मोदी के सबसे करीबी लोगों में शुमार हैं। मोदी सरकार के हिमाचल को दिए सबसे बड़े तोहफे एम्स लाने का क्रेडिट उनके नाम है जो धूमल एंड कंपनी को नागवार गुजरा है। लेकिन इससे बीजेपी आलाकमान के कान खड़े हो गए हैं। इन सबके बीच जो उनके फेवर में है वह उनकी 56 साल की उम्र जो उन्हें मोदी के खांचे में फिट बैठाती है।

बीजेपी भुगत चुकी है खामियाजा

बीजेपी धूमल और शान्ता कुमार के मतभेदों का खामियाजा 2012 में कांगड़ा की शिकस्त के रूप में भुगत चुकी है। क्षेत्रीय क्षत्रपों के जकड़ में पार्टी, संगठन और कार्यकर्ताओं को एकजुट रखना कठिन लग रहा है। अब बीजेपी के चाणक्य शाह के लिए मुश्किल यह कि वह इन चेहरों के इस त्रिकोण में फंसी पार्टी को कैसे बाहर निकाल पाते हैं।

शाह पूरा संतुलन बनाने के प्रयास में

गुटबाजी और अन्तरकलह की आशंका के बीच अमित शाह ने साफ संदेश दिया है कि वह गुटबाजी से निपटना जानते हैं और वह सख्त से सख्त कदम उठाएंगे। पालमपुर से शुरू हुए मिशन हिमाचल अभियान में तीनों दिग्गजों को एकसाथ खुली जीप में खड़ा करवाकर रोड शो करके उन्होंने यह संदेश देने की कोशिश की है कि तीनों के बीच कोई गुटबाजी नहीं है। लेकिन शाह की समस्या यह है कि जनता सब जानती है। इसी कारण इतने दिग्गज होने के बावजूद बीजेपी ने यह चुनाव बिना सीएम के लड़ने का फैसला किया है जिससे खुली खिलाफत से निजात मिल सके।

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राघवेंद्र प्रसाद मिश्र जो पत्रकारिता में डिप्लोमा करने के बाद एक छोटे से संस्थान से अपने कॅरियर की शुरुआत की और बाद में रायपुर से प्रकाशित दैनिक हरिभूमि व भाष्कर जैसे अखबारों में काम करने का मौका मिला। राघवेंद्र को रिपोर्टिंग व एडिटिंग का 10 साल का अनुभव है। इस दौरान इनकी कई स्टोरी व लेख छोटे बड़े अखबार व पोर्टलों में छपी, जिसकी काफी चर्चा भी हुई।

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