TRENDING TAGS :

Aaj Ka Rashifal

450 साल पहले इस मेले में 365 देवियों ने की थी शिरकत, इस बार पर्दे में होगी बलि

By
Published on: 29 Sep 2017 8:43 AM GMT
450 साल पहले इस मेले में 365 देवियों ने की थी शिरकत, इस बार पर्दे में होगी बलि
X

वेद प्रकाश सिंह

कुल्लू: हिंदुस्तान उत्सवों का देश है। हर उत्सव के पीछे अतीत में एक वजह होती है, जिसकी वजह से उत्सव की शुरुआत होती है। ऐसे ही एक ऐतिहासिक उत्सव के बारे में हम आपको बता रहे हैं, जो लगभग 450 साल पुराना है और लोगों द्वारा आज भी उत्साह के साथ इसका आयोजन किया जाता है।

हम बात कर रहे हैं हिमाचल की खूबसूरत वादियों में बसे कुल्लू की, जहां हर साल दशहरा मेले का आयोजन किया जाता है। सही मायनों में कुल्लू का दशहरा इतिहास व "मिथक" का एक ऐसा सुंदर समन्वय है, जिसे हर रुचि, रीति, प्रकृति और व्यवहार के लोग बड़े शौक से मनाते हैं। इसका दशहरे के साथ बस इतना संबंध है कि यह दशहरे के साथ शुरू होता है।

यह भी पढ़ें: दुर्गा पूजा, मुहर्रम और दशहरा लेगा योगी की अग्निपरीक्षा, तैयारी तो मजबूत है !

इस मेले का सबसे बड़ा आकर्षण होता है, वहां होने वालीं पशु बलि। जहां लोग अपने कुल देवता को प्रसन्न करने के लिए पशुबलि देते हैं और आशा करते हैं कि कुल देवता उनकी रक्षा करेगा और ध्यान भी रखेगा। लेकिन साल 2014 में प्रदेश उच्च न्यायालय ने पशुबलि पर प्रतिबंध लगा दिया था। जिसके कारण दो साल पशु बलि नहीं हो पाई थी। लेकिन मेला आयोजकों ने हाई कोर्ट के फैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी, जहां से उन्हें अपनी उस प्रथा को जारी रखने की अनुमति मिली। लेकिन परदे के भीतर, सार्वजनिक तौर पर नहीं।

यह भी पढ़ें: गंगा दशहरा पर करें स्नान-दान, मिलेगी सब पापों से मुक्ति

1660 में शुरू हुआ था ऐतिहासिक मेला, पहली बार शामिल हुए 365 देव-देवियां

मेले के आयोजक और भगवान रघुनाथ के मुख्य छवडीदार महेश्वर सिंह ने बताया कि इस ऐतिहासिक मेले की शुरुआत सन 1660 में राजा जगत सिंह द्वारा की गई थी। इस मेले में उन्होंने आस-पास की सभी रियासत के देवी देवताओं को निमंत्रित किया था। पहले मेले में कुल 365 देवी देवताओं में शिरकत की थी।

तो इस चमत्कार से शुरू हुआ था कुल्लू का दशहरा

कुल्लू के दशहरा उत्सव की ऐतिहासिक और सांस्कृतिक पृष्ठभूमि भी भगवान् रामचंद्र जी के अयोध्या से कुल्लू आने की कथा पर आधारित है। श्री रामचंद्र तथा सीता जी की मूर्तियां, जिनके बारे में कहा जाता है कि इन्हें श्री रामचंद्र जी ने अश्वमेध यज्ञ के लिए बनवाया था, राजा जगत सिंह के रोग निवारण के लिए अयोध्या से कुल्लू लाई गर्इं। वर्ष 1651 में मकड़ाहर, उसके बाद 1653 में मणिकर्ण मंदिर में मूर्तियां रखने के बाद 1660 में कुल्लू के रघुनाथ मंदिर में विधि विधान से मूर्तियों को स्थापित किया गया।

भगवान रघुनाथ की पूजा के बाद ठीक हो गया था राजा का कुष्ठ रोग

मूर्ति स्थापित होने के बाद राजा जगत सिंह अपना राजपाट सौंप कर स्वयं प्रतिनिधि सेवक के रूप में कार्य करने लगा तथा राजा रोग मुक्त हो गया। रघुनाथ जी के सम्मान में ही राजा जगत सिंह द्वारा वर्ष 1660 में दशहरे की परंपरा आरंभ हुई। कुल्लू क्षेत्र में 365 देवी-देवता हैं। मान्यता है कि ये देवी-देवता भी रघुनाथ जी को अपना इष्ट मानते हैं। इस कारण कुल्लू दशहरा में इन देवी-देवताओं की भी झांकी निकाली जाती है। दशहरा उत्सव ढालपुर मैदान में मनाया जाता है। जिस दिन भारत भर में आश्विन शुक्ल पक्ष दशमी तिथि को दशहरा का समापन होता है उस दिन कुल्लू का दशहरा आरंभ होता है। यह सात दिन तक मनाया जाता है।

बदल रहा है स्वरूप

सात दिन तक चलने वाला यह मेला हर वर्ष दशहरा उत्सव के रूप में मनाया जाता रहा है। हालांकि समय के साथ मेले के स्वरूप में बदलाव हुआ है। इस बार जिला प्रशासन ने कुल्लू दशहरा मेले को अंतर्राष्ट्रीय मेले की तर्ज पर आयोजित करने की योजना बना रहा है।

Next Story