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इतिहास में ‘भविष्य’ ढूंढऩे निकली कांग्रेस
शिशिर कुमार सिन्हा
बिहार: कोई सरकार दो साल से ज्यादा टिके तो उसे स्थिरता के तराजू पर रखा जा सकता है। बिहार में इस तराजू पर नौ मुख्यमंत्रियों के नाम रखे जा सकते हैं। 750 दिनों से ज्यादा सरकार चलाने वाले मुख्यमंत्रियों में गैर-कांग्रेसी सिर्फ तीन रहे- लालू प्रसाद, राबड़ी देवी और नीतीश कुमार। बाकी छह कांग्रेसी मुख्यमंत्री रहे। और, सभी छह के छह फॉरवर्ड जातियों से आने वाले। सबसे ज्यादा 5419 दिन पहले मुख्यमंत्री बाबू श्रीकृष्ण सिंह कुर्सी पर रहे। उस समय जाति-व्यवस्था इस तरह राजनीति को घुमाती-फिराती नहीं थी और फॉरवर्ड होते हुए भी श्रीकृष्ण सिंह हर वर्ग के नेता थे। इसके बाद ब्राह्मण वर्ग से आने वाले बिनोदानंद झा 926 दिन मुख्यमंत्री रहे। कायस्थ समाज से कृष्ण बल्लभ सहाय 1250 दिनों तक मुख्यमंत्री रहे। ब्राह्मण वर्ग से ही जगन्नाथ मिश्रा पहले 750 दिन और फिर 1133 दिन बिहार के कांग्रेसी मुख्यमंत्री रहे। इसी जाति समूह से आने वाले बिंदेश्वरी दुबे 1068 दिनों तक कांग्रेस प्रतिनिधि के रूप में बिहार के मुख्यमंत्री रहे। जगन्नाथ मिश्रा, बिंदेश्वरी दुबे सरीखे मजबूत फॉरवर्ड नेताओं के दौर में कांग्रेस ने कुछ अन्य प्रयोग किए और उसके बाद इस राष्ट्रीय पार्टी ने बिहार में बैकवर्ड कार्ड खेलना शुरू किया।
1990 के दशक से मुख्यमंत्री की कुर्सी तो नसीब नहीं हुई, लेकिन पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष और क्षेत्रीय दलों के साथ गठबंधन में बैकवर्ड और मुस्लिम तुष्टीकरण के लिए कांग्रेस की पहचान बन गई। प्रदेश अध्यक्ष पद पर लंबे समय तक डॉ. शकील अहमद को रखकर पार्टी ने मुसलमान वोटरों को अपने पास रखने की भरसक कोशिश की। उधर, मीरा कुमार को लोकसभा अध्यक्ष की कुर्सी तक पहुंचाकर पार्टी ने बिहार में बैकवर्ड वोट बैंक को समेटने का प्रयास किया। हालांकि, इन सभी परिस्थितियों के बावजूद कांग्रेस को बिहार में अपना कोई मुख्यमंत्री नसीब नहीं हुआ।
भाजपा की गलती का फायदा लेना लक्ष्य
कांग्रेस में एक के बाद एक फॉरवर्ड नेताओं को पद-जिम्मेदारी देने की वजह ढूंढऩे का प्रयास किया जाए, तो सबसे पहले यह सामने आता है कि भारतीय जनता पार्टी बिहार में अपने कैडर फॉरवर्ड वोटरों से दूर होती दिख रही है। पिछले विधानसभा चुनाव की रैली में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने एक मंच से स्पष्ट संकेत दिया था कि बिहार में भाजपा की सरकार बनी तो कोई पिछड़ा ही मुख्यमंत्री बनेगा। इस बयान के बाद फॉरवर्ड जातियों में ज्यादा वोट प्रतिशत रखने वाले भूमिहार जाति के मतदाताओं ने भाजपा से हाथ खींच लिया था। बेगूसराय जैसे इलाके में विधानसभा सीटों पर भाजपा के प्रत्याशियों की हालत पतली होने की यही वजह थी।
सरकार तो नहीं ही बनी, भाजपा ने प्रदेश अध्यक्ष की कुर्सी भी भूमिहार जाति को देते-देते यादव समाज से आने वाले नित्यानंद राय को सौंप दी। संगठन के स्तर पर विशेष रूप से भूमिहार वर्ग को तवज्जो नहीं मिलने और आगामी लोकसभा चुनाव में जदयू के साथ सीट शेयरिंग में फॉरवर्ड सांसदों का टिकट ज्यादा कटने की आशंका से भाजपा समर्थकों का एक बड़ा वर्ग नाराज हो सकता है। भाजपा इस बात को स्वीकार नहीं कर रही, लेकिन माना जा रहा है कि कांग्रेस ने भाजपा के आधार वोटरों में सेंध लगाने के लिए ही फॉरवर्ड कार्ड खेला है। इसके साथ ही कांग्रेस ने महागठबंधन के फॉर्मूले को भी ध्यान में रखा है। महागठबंधन में राष्ट्रीय जनता दल के कारण यादवों का पूरा वोट बैंक तो है ही, मुसलमानों को भी इन्हीं के साथ माना जा सकता है (पिछले चुनाव में जदयू के साथ भी थे, लेकिन भाजपा से गठबंधन के बाद स्थितियां बदली हैं)। इसके अलावा हम (से) के कारण पिछड़ी जातियों को साधना भी महागठबंधन के लिए बड़ी चुनौती नहीं है।
राजद और हम के पास फॉरवर्ड जातियों का जनाधार बमुश्किल देख, कांग्रेस ने वक्त रहते फॉरवर्ड कार्ड खेलने में भलाई समझी। यही कारण है कि पार्टी लगातार पद और जिम्मेदारी में फॉरवर्ड नेताओं को सामने ला रही है। हालत यह है कि अध्यक्ष पद के लिए पार्टी में दो ही नाम भी चल रहे थे, एक अखिलेश सिंह और दूसरे डॉ. मदन मोहन झा।
पार्टी फॉरवर्ड कार्ड के सवाल पर कुछ बोलने से बच रही है और नए प्रदेश अध्यक्ष ने कहा भी कि कांग्रेस में सभी जाति-धर्मों को बराबर मौका देने की परंपरा है। सवर्ण या दलित कार्ड खेलने का कोई कॉन्सेप्ट नहीं है। कांग्रेस अध्यक्ष के अनुसार आलाकमान ने उनकी मेहनत में विश्वास जताते हुए यह जिम्मेदारी दी है, लेकिन राजनीतिक गलियारा इस बात को पचाने के लिए तैयार नहीं है।
‘फॉरवर्ड कार्ड’ के लिए फिर चर्चा में कांग्रेस
पिछले साल के पूर्वाद्ध तक महागठबंधन में राजद-कांग्रेस के साथ जदयू भी था। इन तीन दलों के साथ से भाजपा बुरी तरह कमजोर नजर आ रही थी। विधानसभा चुनाव परिणाम में तो यह दिखा ही था, बाद में भी कई स्तर पर ऐसा नजर आ रहा था। जुलाई में जैसे ही जदयू ने महागठबंधन से अलग राह चुनकर भाजपा का दामन था, कांग्रेस डगमगाने लगी। इतनी डगमगाई के प्रदेश कांग्रेस के तत्कालीन अध्यक्ष अशोक चौधरी ही जदयू में चले आए। कांग्रेस का चिंतन तभी शुरू हुआ, लेकिन फिर भी पार्टी ने अपनी राह नहीं बदली। पार्टी ने कौकब कादरी को प्रदेश अध्यक्ष की कमान सौंप दी।
लेकिन, लोकसभा चुनाव की आहट के बीच कांग्रेस अब लगातार होमवर्क कर रिजल्ट सामने ला रही है। सबसे पहले मार्च में पार्टी ने भूमिहार जाति से अखिलेश सिंह को राज्यसभा भेजकर फॉरवर्ड समूह में पैठ बनाने की कोशिश की। इसके बाद आश्चर्यजनक तरीके से वर्षों से पार्टी के झंडाबरदार रहे प्रेमचंद्र मिश्र को विधान परिषद् का टिकट दे दिया। कांग्रेस सूत्रों की मानें तो पार्टी के इन दो निर्णयों के बाद कांग्रेस के पुराने कैडर समूह में सकारात्मक संकेत पाकर लोकसभा चुनाव की तैयारियों के बीच प्रदेश अध्यक्ष की अहम जिम्मेदारी पूर्व मंत्री और पुराने कांग्रेसी नेता डॉ. मदन मोहन झा को सौंपी है। प्रदेश की नई कार्यसमिति में भी इस बार फॉरवर्ड नेताओं की दमदार उपस्थिति साफ दिख रही है।