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गोरखधंधा : क्या अस्पताल को बंद कर देना समस्या का निराकरण है ?

raghvendra
Published on: 22 Dec 2017 1:09 PM GMT
गोरखधंधा : क्या अस्पताल को बंद कर देना समस्या का निराकरण है ?
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राजधानी दिल्ली में एक अस्पताल का लाइसेंस रद्द किए जाने की घटना के हेल्थ के क्षेत्र में बिजनेस कर रही कंपनियों ने अपने कामकाज में कुछ बदलाव लाने की बात कही है। हाल में ही दिल्ली में मेदांता, अपोलो अस्पताल और नारायण हृदयालय के शीर्ष अधिकारियों ने मीडिया से कहा कि किसी अस्पताल को बंद कर देना समस्या का निराकरण नहीं है क्योंकि इससे कई अन्य मरीजों को बहुत परेशानियां उठानी पड़ती हैं।

गौरतलब है कि राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में दो अस्पतालों पर इलाज में कथित लापरवाही और बहुत अधिक पैसा लेने का आरोप है। दिल्ली सरकार ने शालीमार बाग के मैक्स अस्पताल में अविकसित बच्चे को मृत घोषित करने का मामला सामाने आने के बाद उसका लाइसेंस रद्द कर दिया लेकिन दिल्ली के उप राज्यपाल ने इस फैसले पर रोक ही लगा दी है। दूसरी ओर गुडग़ावं का फोर्टिस एक सात साल की बच्ची की हाल में डेंगू से हुई मौत और उससे जरुरत से ज्यादा पैसा लेने के मुद्दे पर चर्चा में है।

अस्पताल आये सफाई की मुद्रा में

मेदांता मेडीसिटी के चेयरमैन नरेश त्रेहान का कहना है कि निजी अस्पतालों के लिए इंडियन मेडिकल एसोसिएशन के तहत हमने एक स्व-नियमन प्रणाली बनायी है। सभी हितधारक इसे लेकर सहमत हैं। उनका दावा है कि यह एक ऐसा ढांचा बनाने की शुरुआत है जहां हर किसी को पारदर्शी होना होगा।

नारायण हृदयालय के संस्थापक देवी प्रसाद शेट्टी का कहना है कि स्वास्थ्य क्षेत्र के लिए देश में पर्याप्त मात्रा में नियमन एजेंसियां हैं। हर पेशे की तरह स्वास्थ्य क्षेत्र में भी अच्छे-बुरे दोनों तरह के लोग हैं। लेकिन अभी जो संदेश गया है वह यह है कि निजी क्षेत्र के सभी डॉक्टर धोखेबाजी करते हैं जो सत्य नहीं है। अपोलो हॉस्पिटल के वाइस चेयरमैन प्रीथा रेड्डी ने कहा कि लोगों को अधिक जागरुक बनाने के लिए इंडियन मेडिकल एसोसिएशन अच्छा काम कर रही है। यह स्व-नियमन को ला रही है।

क्लिनिकल इस्टैब्लिशमेंट एक्ट का पूरा पालन ही नहीं

कोई व्यक्ति जिस अस्पताल में इलाज के लिए जा रहा है वहां कैसी सुविधाएं होंगी, डॉक्टर अच्छे होंगे कि नहीं, न्यूनतम मापदंडों का पालन होगा कि नहीं और इलाज पर कितना खर्च होगा, ये तमाम सवाल हैं जिन पर अमूमन कोई इंसान ध्यान नहीं देता। लेकिन इन सभी सवालों के जवाब में क्लिनिकल इस्टैब्लिशमेंट एक्ट बनाया गया था।

इसमें अस्पतालों से कहा गया है कि वो अपनी सुविधाओं का स्तर बेहतर बना कर रखें लेकिन डॉक्टरों का इतना विरोध है कि इस क़ानून को लागू कर पाना संभव नहीं हो पाया है। ध्यान रहे कि यह कानून संविधान के अनुच्छेद 47 (जन स्वास्थ्य की सुरक्षा) के आलोक में बनाया गया है।

क्लीनिकल इस्टैब्लिशमेंट एक्ट केंद्र सरकार ने 2010 में बनाया था जिसका मक़सद था निजी अस्पतालों, क्लीनिक, डायग्नोस्टिक सेंटरों की जवाबदेही निर्धारित करना और ये सुनिश्चित करना कि वो खुद का पंजीकरण करवाएं और मानकों का पालन करें। कानून का पालन नहीं करने वालों पर जुर्माना लगाने का प्रावधान है।

यह कानून 28 फरवरी 2012 को अधिसूचित या नोटिफाई किया गया और शुरुआती तौर पर चार राज्यों - अरुणाचल प्रदेश, हिमाचल प्रदेश, मिजोरम, सिक्किम और सभी केंद्र शासित राज्यों (दिल्ली के अलावा) में लागू किया गया। बाद में उत्तर प्रदेश, राजस्थान बिहार, झारखण्ड और उत्तराखंड ने इस कानून को स्वीकार कर किया।

राज्यों के पास विकल्प था कि या तो वो इसे अपने यहां लागू करें या फिर इस विषय पर अपना कोई अलग क़ानून बनाएं। राजस्थान, बिहार, उत्तर प्रदेश, झारखंड, असम और उत्तराखंड ने इस कानून को स्वीकार तो कर लिया लेकिन इसको पूरी तरह लागू नहीं किया।

इमरजेंसी इलाज

जस्टिस जे. राव की अध्यक्षता में लॉ कमीशन की रिपोर्ट अगस्त 2006 में आई थी जिसमें डॉक्टरों पर ज़िम्मेदारी डाली गई कि वो किसी भी अवस्था में इमर्जेंसी में आए किसी भी रोगी को बिना इलाज के वापस नहीं लौटाएंगे। खर्च की समस्या से निपटने के लिए इस रिपोर्ट में मेडिकल सर्विसेज़ फ़ंड बनाने का सुझाव दिया गया था। इस फंड की स्थापना राज्यों को करनी थी लेकिन हुआ कुछ नहीं।

डॉक्टरों की सबसे ज़्यादा नाराजग़ी एक्ट के सेक्शन 12 (2) से है जिसके मुताबिक अगर कोई रोगी इमर्जेंसी में अस्पताल पहुंचता है तो उसे वो सभी सुविधाएं मुहैया करवाई जाएंगी जिससे रोगी को ‘स्टेबल’ किया जा सके। डाक्टरों का सवाल है कि इमरजेंसी इलाज का खर्च कौन उठाएगा?

इसके अलावा डॉक्टरों का ये भी कहना है कि इस कानून में अधिकारियों को व्यापक अधिकार दिए गए हैं जिससे भ्रष्टाचार को बढ़ावा मिलेगा। इसके अलावा कानून में अस्पतालों - क्लीनिक की फीस नियत करने की बात है जिसके बारे में डॉक्टरों का कहना है कि विभिन्न सेवाओं के लिए उनकी फीस सरकार कंट्रोल नहीं कर सकती। डॉक्टरों को मरीजों का रिकॉर्ड रखने में भी आपत्ति है क्योंकि उनका कहना है कि इससे उनका खर्च बढ़ेगा।

इलाज में अधिकार

हर मरीज जब किसी अस्पताल या क्लिनिक में इलाज के लिए जाता है तो वह एक उपभोक्ता होता है और उपभोक्ता के नाते उनके भी अधिकार होते हैं। चूंकि स्वास्थ्य सेवाएं देने वाले अस्पताल मेडिकल क्लीनिक कंज्यूमर प्रोटेक्शन एक्ट’ के तहत आते हैं इसलिए अगर डॉक्टर की लापरवाही का मामला हो या सेवाओं को लेकर कोई शिकायत हो तो उपभोक्ता हर्जाने के लिए उपभोक्ता अदालत जा सकते हैं।

भारत में मेडिकल काउंसिल ऑफ़ इंडिया डाक्टरों को रेगुलेट करने वाली सर्वोच्च संस्था है और इस संस्था की ज़िम्मेदारी है कि वो ये सुनिश्चित करे कि डॉक्टर कोड ऑफ़ मेडिकल एथिक्स रेग्युलेशंस का पालन करें। इलाज के दौरान डाक्टरों को क्या नैतिक जिम्मेदारी निभानी चाहिए यह कोड इसकी चर्चा करता है।

मेडिकल काउंसिल ऑफ़ इंडिया के कोड ऑफ़ एथिक्स के अनुसार जहां तक संभव हो, डॉक्टर को दवाई का जेनेरिक नाम इस्तेमाल करना चाहिए। लेकिन कोई डाक्टर इसका पालन नहीं करता है। इसीलिए इस एथिकल कोड का कोई प्रभावी मातव नहीं रह जाता है।

क्या क्या है क्लीनिकल इस्टैब्लिशमेंट एक्ट में

  • सभी अस्पताल, क्लीनिक, मैटरनिटी होम, डिस्पेंसरी और नर्सिंग होम अपना पंजीकरण करवाएं ताकि ये सुनिश्चित किया जा सके कि वो लोगों को न्यूनतम सुविधाएं और सेवाएं दे रहे हैं।
  • एलोपैथी, होम्योपैथी, आयुर्वेद, यूनानी दवाओं से जुड़ी समस्त स्वास्थ्य सुविधाओं पर कानून लागू होगा।
  • इलाज और स्वास्थ्य सुविधाएं देने वाले सभी संस्थानों के लिए जरूरी होगा कि वो हर मरीज से सम्बंधित सभी इलेक्ट्रॉनिक हेल्थ या एलेक्ट्रिनिक मेडिकल रेकॉर्ड (ईएचआर या ईएमआर) सुरक्षित रखें।
  • अगर कोई रोगी इमर्जेंसी में किसी अस्पताल या क्लिनिक पहुंचता है तो उसे वो सभी सुविधाएं मुहैया करवाई जाएंगी जिससे रोगी को स्टेबल या सुरक्षित स्थिति में किया जा सके।
  • इलाज करने वाले संस्थान अपनी सेवाओं की फीस राज्य सरकारों से बातचीत करके और केंद्र सरकार की सूची में निर्धारित सीमाओं के भीतर तय करेंगे।
  • अस्पताल आदि अपनी समस्त सेवाओं की फीस की जानकारी स्थानीय और अंग्रेज़ी भाषा में अस्पताल में प्रदर्शित करेंगे।
  • अगर किसी भी निर्धारित प्रावधान का उल्लंघन होता है तो अस्पताल का रजिस्ट्रेशन रद्द कर दिया जाएगा।
  • पंजीकरण करने वाले अधिकारियों के पास जांच और तहकीकात के अधिकार होंगे।
  • कानून का उल्लंघन किये जाने पर 10 हजार रूपए से 5 लाख रुपये तक का जुर्माना लगाया जाएगा, जेल

    का कोई प्रावधान नहीं है।

  • समस्त अस्पतालों आदि का जिला स्तर पर डिजिटल रिकॉर्ड रखा जाएगा जिसे डिजिटल रजिस्ट्री कहा जाएगा।

अन्य देशों में हेल्थ रेगुलेशन

  • यूनाइटेड किंगडम में अस्पतालों की ग्रेडिंग और मान्यता देनी की व्यवस्था यूरोप में सबसे पुरानी है
  • अमेरिका में 1910 से ही अस्पतालों को मान्यता प्रदान करने की व्यवस्था है।
  • चीन में सरकार द्वारा स्वास्थ्य सेवा और अस्पतालों के लिए दिशा निर्देश बनाये गए हैं जिनको लागू

    करना स्थानी सरकार की जिम्मेदारी है।

  • थाईलैंड, ब्राज़ील और मलेशिया में भी अस्पतालों को मान्यता देने और उनके मानक की व्यवस्था है।

क्या हैं बतौर मरीज उपभोक्ता अधिकार

  • इमरजेंसी मदद : अगर कोई व्यक्ति आपात स्थिति में अस्पताल पहुंचता है तो सरकारी हो या निजी, हर अस्पताल के डॉक्टरों की ज़िम्मेदारी है कि उस व्यक्ति को तुरंत डॉक्टरी मदद दी जाए, यानी तत्काल इमरजेंसी ट्रीटमेंट शुरू कर देना। जान बचाने के लिए जरूरी स्वास्थ्य सुविधाएं देने के बाद ही अस्पताल मरीज से पैसे मांग सकते हैं या फिर पुलिस को जानकारी देने की प्रक्रिया शुरू कर सकते हैं।
  • खर्च की जानकारी : सभी मरीज़ों को उनकी बीमारी की पूरी जानकारी दी जानी चाहिए, मरीज को ये बताया जाना चाहिए कि उनका जो इलाज किया जाएगा उसका क्या नतीजा निकलेगा। इसके अलावा मरीज़ को इलाज पर होने वाला खर्च, इलाज के फायदे और नुकसान और इलाज के विकल्पों के बारे में बताया जाना चाहिए।
  • मेडिकल रिपोट्र्स : किसी भी मरीज़ या फिर उसके प्रतिनिधि को अधिकार है कि अस्पताल उसे केस से जुड़े सभी दस्तावेजों की फोटोकॉपी दे। ये फोटोकॉपी मरीज के अस्पताल में भर्ती होने के 24 घंटे के भीतर और डिस्चार्ज होने के 72 घंटे के भीतर अवश्य दी जानी चाहिए। कोई भी अस्पताल मरीज़ को उसके मेडिकल रिकॉर्ड या रिपोर्ट देने से मना नहीं कर सकता हैढ्ढ इन रिकॉड्र्स में जांच की रिपोर्टें, डॉक्टर या विशेषज्ञ के पर्चे, अस्पताल में भर्ती का रिकॉर्ड आदि शामिल हैं। अस्पताल में यदि कोई मरीज भर्ती किया जाता है तो उसके डिस्चार्ज के समय मरीज को एक डिस्चार्ज कार्ड दिया जाना चाहिए जिसमें भर्ती के समय मरीज की स्थिति, जांचों के नतीजे, अस्पताल में भर्ती के दौरान इलाज, डिस्चार्ज के बाद इलाज, क्या कोई दवा लेनी है या नहीं लेनी है, क्या सावधानियां बरतनी हैं, क्या जांच के लिए वापस डॉक्टर के पास जाना है, इन सब बातों का ज़िक्र होना चाहिए।

  • सेकंड ओपिनियन : अगर मरीज किसी डॉक्टर या अस्पताल के तरीके से संतुष्ट नहीं है तो उसे किसी दूसरे डॉक्टर की सलाह लेने का अधिकार है। इस सेकंड ओपिनियन के लिए अस्पताल या डाक्टर इनकार नहीं कर सकता। ऐसे में ये अस्पताल को सभी मेडिकल और जांच रिपोर्ट मरीज को उपलब्ध करवानी होगी। किसी दूसरे डॉक्टर की सलाह उस वक्त महत्वपूर्ण हो जाती है जब बीमारी से जान को ख़तरा हो या डॉक्टर जिस लाइन पर इलाज सोच रहा है उस पर सवाल हो।
  • इलाज की गोपनीयता : इलाज के दौरान डॉक्टर को कई ऐसी बातें पता होती हैं जिसका ताल्लुक मरीज़ की निजी जिन्दगी से होता है। ऐसे में हर डाक्टर की ये जिम्मेदारी और नैतिक कर्तव्य होता है कि वो इन जानकारियों को गोपनीय रखे और किसी के संग साझा नहीं करे।
  • पूरी जानकारी : किसी ऑपरेशन के पहले डॉक्टर की जिमीदारी होती है कि वह मरीज या उसके तीमारदार को ऑपरेशन के जोखिमों के बारे में बताए और जानकारी देने के बाद यह भी पूछे कि क्या ऑपरेशन के बारे में मरीज राजी है। इसके बाद मरीज या तीमारदारी से एक सहमति पत्र पर हस्ताक्षर करवाए।
  • दवा और जांच : हर मरीज को ये अधिकार है कि वह जहाँ मन चाहे वहां से दवा खरीदे और अपनी डायग्नोस्टिक जांच करवाए। कोई भी अस्पताल या डाक्टर किसी ख़ास दूकान या जांच केंद्र के बारे में दबाव नहीं डाल सकता है।
  • अस्पताल से डिस्चार्ज : अस्पताल की ये ज़िम्मेदारी है कि वो इंडोर मरीज और उसके तीमारदार या परिवार को इलाज आदि के दैनिक खर्च के बारे में बताये लेकिन इसके बावजूद अगर फाइनल बिल पर कोई मतभेद होता है, तब भी मरीज को अस्पताल से बाहर जाने देने से या फिर शव को ले जाने से नहीं रोका जा सकता।

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राघवेंद्र प्रसाद मिश्र जो पत्रकारिता में डिप्लोमा करने के बाद एक छोटे से संस्थान से अपने कॅरियर की शुरुआत की और बाद में रायपुर से प्रकाशित दैनिक हरिभूमि व भाष्कर जैसे अखबारों में काम करने का मौका मिला। राघवेंद्र को रिपोर्टिंग व एडिटिंग का 10 साल का अनुभव है। इस दौरान इनकी कई स्टोरी व लेख छोटे बड़े अखबार व पोर्टलों में छपी, जिसकी काफी चर्चा भी हुई।

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