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क्या है 'यूथनेशिया', अगर तब मिली होती 'इजाजत' तो मौत को न तरसती अरुणा शानबाग

Charu Khare
Published on: 9 March 2018 2:20 PM IST
क्या है यूथनेशिया, अगर तब मिली होती इजाजत तो मौत को न तरसती अरुणा शानबाग
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लखनऊ: किसी की ज़िन्दगी कुछ ही पलों मे मौत कैसे बनती है, इसकी मिसाल 'अरुणा शानबाग' को कहा जाता था। जीवन के चार दशक उन्होनें बिस्तर पर कोमा मे गुजारे, लेकिन कहते हैं कि, 'मांगो तो मौत भी नहीं मिलती है।' कुछ ऐसा ही रहा था 'अरुणा शानबाग' का सफर। न सरकार पसीजी और न ही कोर्ट, सबने कानून की दुहाई देकर अपना-अपना पल्ला झाड़ लिया, और अरुणा को बिस्तर पर असहाय छोड़ दिया।

42 वर्ष तक मौत से लड़ने के बाद 18 मार्च 2015 को अरुणा इच्छामृत्यु को 'सवालिया घेरे' में खड़ा कर इस दुनिया से अलविदा हो चली पर अफ़सोस तो इस बात का है कि, अगर सुप्रीम कोर्ट ने आज की 8 मार्च की जगह वो 2011 की 8 मार्च को पत्रकार पिंकी वीरानी द्वारा दायर की गई याचिका को स्वीकार कर लिया होता तो शायद अरुणा को अपनी ही मौत के लिए ऐसे 42 बरस तक झूझना न पड़ता।

Image result for aruna shanbaug case hindi samachar एक थी अरुणा-

अरुणा एक ऐसी दर्दभरी कहानी का नाम है, जिसकी शुरुआत 27 नवंबर 1973 को मुंबई के केईएम अस्पताल से शुरू हुई। हम आपको याद दिला दें कि, ये अरुणा के जीवन की वही काली तारीख है, जिस दिन इसी अस्पताल के वार्ड बॉय सोहनलाल भरथा वाल्मीकि ने अरुणा पर यौन हमला किया था।

Image result for aruna shanbaug case hindi samachar और इसके साथ ही कुत्ते को बांधने वाली चेन से उनका गाला घोटने की कोशिश की, जिससे उनके ब्रेन मे ऑक्सीजन की सप्लाई रुक गई, और अरुणा हमेशा के लिए कोमा मे चली गई थी।

क्यों ठुकराई थी सुप्रीम कोर्ट ने पिटीशन-

8 मार्च 2011 को अरुणा को दया मृत्यु देने की याचिका सुप्रीम कोर्ट ने खारिज कर दी थी। वह पूरी तरह कोमा में न होते हुए दवाई, भोजन ले रही थीं। सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में कहा कि पिटीशनर पिंकी वीरानी का इस मामले से कुछ लेना-देना नहीं है, क्‍योंकि अरुणा की देखरेख केईएम हॉस्पिटल कर रहा है।

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बेंच ने कहा था कि अरुणा शानबाग के माता-पिता नहीं हैं। उनके रिश्तेदारों काे उनमें कभी दिलचस्पी नहीं रही। लेकिन केईएम हॉस्पिटल ने कई सालों तक दिन-रात अरुणा की बेहतरीन सेवा की है। लिहाजा, अरुणा के बारे में फैसले करने का हक केईएम हॉस्पिटल को है।

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बेंच ने यह भी कहा था कि अगर हम किसी भी मरीज से लाइफ सपोर्ट सिस्टम हटा लेने का हक उसके रिश्तेदारों या दोस्तों को दे देंगे तो इस देश में हमेशा यह जोखिम रहेगा कि इस हक का गलत इस्तेमाल हो जाए। मरीज की प्रॉपर्टी हथियाने के मकसद से लोग ऐसा कर सकते हैं।

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अरुणा की पूरी देखरेख केईएम अस्पताल की सारी नर्सें करती थी, और उन्ही के कहने पर वर्ष 2009 मे सुप्रीम कोर्ट ने अरुणा को दया मृत्यु देने के लिए पिंकी वीरानी की याचिका तो स्वीकार की, परन्तु बाद मे दया मृत्यु को आत्महत्या के समान मानते हुए 8 मार्च 2011 को पिंकी वीरानी की इस अर्ज़ी को खारिज कर दिया था। कहते है 'मौत छड़भर की होती है लेकिन अरुणा शानबाग के लिए वह 42 बरस मौत के जैसे ही थे'।

क्या है 'यूथनेशिया' -

जब कोई मरीज बहुत ज्यादा पीड़ा से गुजर रहा होता है या उसे ऐसी कोई बीमारी होती है जाे ठीक नहीं हो सकती और जिसमें हर दिन मरीज मौत जैसी स्थिति से गुजरता है तो उन मामलों में कुछ देशों में इच्छा मृत्यु दी जाती है।

बेल्जियम, नीदरलैंड, स्विट्जरलैंड और लक्जमबर्ग में Euthanasia (दया या इच्छामृत्यु) की इजाजत है। अमेरिका के सिर्फ 5 राज्यों में ही इसकी इजाजत है।

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भारत में यह मुद्दा विवादास्पद है। धार्मिक वजहों से लोग ये मानते हैं कि किसी को इच्छामृत्यु की इजाजत देना ईश्वर के खिलाफ जाने के समान है। मरीज के परिवार के लोग भी इसे लेकर सहज नहीं रहते। यह उम्मीद भी रहती है कि मरीज किसी दिन अपनी बीमारी से बाहर आ जाएगा।

यूथेनेशिया के दो मुख्य तरीके हैं। पहला ऐक्टिव यूथेनेशिया, इसमें गंभीर बीमारी से जूझ रहे मरीज को घातक पदार्थ देना शुरू किया जाता है, जिससे वह जल्द ही मर जाता है। पैसिव यूथेनेशिया वह तरीका है जिसमें मरीज को वे चीजें देना बंद कर दिया जाता है जिसपर वह जिंदा होता है।



Charu Khare

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