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Jagannath Yatra: जगन्नाथ जी की यह यात्रा कहलाती है पहाड़ी यात्रा
Jagannath Yatra: ज्येष्ठ की भीषण गर्मी में शीतल जल से स्नान के कारण भगवान जगन्नाथ को बुखार आ जाता है और वे अस्वस्थ हो जाते हैं। अस्वस्थ होने को उनकी 'ज्वरलीला' कहा जाता है।
Jagannath Yatra: यूं तो हर महीने की पूर्णिमा (full moon) का एक अलग ही विशेष महत्व होता है इस दिन किए गए जब तक स्नान ध्यान का फल सामान्य दिनों से थोड़ा बढ़ जाता है लेकिन यदि कोई कहे कि उसने पूर्णिमा के दिन इतना अध्यक्ष स्नान किया कि वह बीमार पड़ गया तो निश्चय ही आपको हंसी आएगी लेकिन यही बात भगवान के साथ जुड़ जाए तो आप क्या कहेंगे जी हां ज्येष्ठ पूर्णिमा के दिन ओडिशा स्थित जगन्नाथपुरी (Jagannathpuri) में भगवान जगन्नाथ की 'स्नान यात्रा' का महोत्सव मनाया जाता है जिसमें भगवान जगन्नाथ, बलराम एवं सुभद्राजी के काष्ठ विग्रहों को स्नान हेतु मंदिर से बाहर लाया जाता है। इस यात्रा को 'पहांडी' कहते हैं।
श्रीविग्रहों को मंदिर से बाहर लाने के पश्चात उन्हें सूती परिधान धारण करवाकर पुष्प आसन पर विराजमान किया जाता है। पुष्प आसन पर विराजमान करने के पश्चात भगवान जगन्नाथ को 108 स्वर्ण पात्रों द्वारा कुएं के चंदन मिश्रित शीतल जल से स्नान कराया जाता है।
शास्त्रानुसार कथा है कि भगवान जगन्नाथ ने स्वयं महाराज को मंदिर के सम्मुख एक वटवृक्ष के समीप एक कुआं खुदवाकर उसके शीतल जल से अपना स्नान कराने का आदेश दिया था एवं इस स्नान के पश्चात 15 दिनों तक किसी को भी उनके दर्शन न करने का निर्देश दिया।
भगवान जगन्नाथ के अस्वस्थ होने को उनकी 'ज्वरलीला' कहा जाता है
ज्येष्ठ की भीषण गर्मी में शीतल जल से स्नान के कारण भगवान जगन्नाथ को ज्वर (बुखार) आ जाता है और वे अस्वस्थ हो जाते हैं। शास्त्रानुसार भगवान जगन्नाथ के अस्वस्थ होने को उनकी 'ज्वरलीला' कहा जाता है। इस अवधि में केवल उनके व निजी सेवक जिन्हें 'दयितगण' कहा जाता, वे ही उनके एकांतवास में प्रवेश कर सकते हैं। 15 दिनों की इस अवधि को 'अनवसर' कहा जाता है।
'अनवसर' के इस काल में भगवान जगन्नाथ को स्वास्थ्य लाभ के लिए जड़ी-बूटी, खिचड़ी, दलिया एवं फलों के रस का भोग लगाया जाता है। अनवसर काल के पश्चात भगवान जगन्नाथ पूर्ण स्वस्थ होकर अपने भक्तों से मिलने के लिए रथ पर सवार होकर निकलते हैं जिसे सुप्रसिद्ध 'रथयात्रा कहा जाता है
माधव दास जी अकेले रहते थे और भगवान का भजन किया करते थे। हर रोज़ श्री जगन्नाथ प्रभु के दर्शन करते थे और अपनी मस्ती में मस्त रहते थे। वे संसारिक जीवन से कोई मोह-माया नहीं थी ना वे किसी से कोई लेना-देना रखते थे। प्रभु माधव जी के साथ अनेक लीलाएं किया करते थे ॥
एक दिन अचानक माधव दास जी की तबीयत खराब हो गई उन्हें उल्टी-दस्त का रोग हो गया। वह बहुत ही कमज़ोर हो गए की उठने-बैठने में भी उन्हें समस्या होने लगी। माधव जी अपना कार्य स्वयं करते थे वे किसी से मदद नहीं लेते थे। जो व्यक्ति उनकी मदद के लिए आता था उनसे कहते थे की भगवान जगन्नाथ स्वयं उनकी रक्षा करेंगे।
देखते ही देखते माधव जी की तबीयत इतनी खराब हो गई की वे अपना मल-मूत्र वस्त्रों में त्याग देते थे। तब स्वयं जगन्नाथ स्वामी सेवक के रुप में माधव जी के पास उनकी सेवा करने पहुंचे। माधव जी के गंदे वस्त्र भगवान जगन्नाथ अपने हाथों से साफ करते थे और उन्हें भी स्वच्छ करते थे उनकी संपूर्ण सेवा करते थे। जितनी सेवा भगवान जगन्नाथ करते थे शायद ही कोई व्यक्ति कर पाता।
यह मेरे प्रभु ही हैं
जब माधवदास जी स्वस्थ्य हुए और उन्हें होश आया तब भगवान जगन्नाथ जी को इतनी सेवा करते देख वे तुरंत पहचान गए की यह मेरे प्रभु ही हैं। एक दिन श्री माधवदास जी ने प्रभु से पूछा– "प्रभु ! आप तो त्रिभुवन के मालिक हो, स्वामी हो, आप मेरी सेवा कर रहे हो। आप चाहते तो मेरा ये रोग भी तो दूर कर सकते थे, रोग दूर कर देते तो यह सब करना नहीं पड़ता।" तब जगन्नाथ स्वामी ने उन्हे कहा– "देखो माधव! मुझसे भक्तों का कष्ट नहीं सहा जाता, इसी कारण तुम्हारी सेवा मैंने स्वयं की। जो प्रारब्ध होता है उसे तो भोगना ही पड़ता है। अगर उसको इस जन्म में नहीं काटोगे तो उसको भोगने के लिए फिर तुम्हें अगला जन्म लेना पड़ेगा और मैं नहीं चाहता की मेरे भक्त को जरा से प्रारब्ध के कारण अगला जन्म फिर लेना पड़े।
इसीलिए मैंने तुम्हारी सेवा की लेकिन अगर फिर भी तुम कह रहे हो तो भक्त की बात भी नहीं टाल सकता। अब तुम्हारे प्रारब्ध में ये 15 दिन का रोग और बचा है, इसलिए 15 दिन का रोग तू मुझे दे दे।" 15 दिन का वो रोग जगन्नाथ प्रभु ने माधवदासजी से ले लिया। तब से भगवान जगन्नाथ इन 15 दिन बीमार रहते हैं।