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भारतीय रसोई का जायका, इस प्याज का क्या है राज?

raghvendra
Published on: 8 July 2023 5:21 PM GMT
भारतीय रसोई का जायका, इस प्याज का क्या है राज?
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नई दिल्ली: भारतीय रसोई में आलू, प्याज और टमाटर का स्थाई स्थान है। भारतीय सब्जियों के लिए तीनों आइटम बेहद जरूरी हैं। इनमें से कोई एक चीज तो लगभग हर भारतीय खाने में मौजूद रहती है। आमतौर पर तीनों आइटम के दाम सामान्य यानी सब तबकों की पहुंच के भीतर रहते हैं लेकिन लगभग हर साल इनमें से किसी एक आइटम के दाम आसमान छूने लगते हैं। इस साल प्याज के दाम बढ़ रहे हैं। कुछ राज्यों में प्याज के दाम 80 से 90 रुपये प्रति किलो तक पहुंच गए। इस ट्रेंड को देखते हुए केंद्र सरकार ने अगले आदेश तक प्याज के निर्यात पर रोक लगा दी। दामों को काबू में करने के लिए सरकार अफगानिस्तान और मिस्र से प्याज का आयात भी कर रही है। प्याज की कीमतें जब बढ़ती हैं तो उसका राजनीतिक असर भी होता है। 1998 में दिल्ली विधानसभा चुनावों में प्याज की कीमत ही सबसे बड़ा मुद्दा थी जो सुषमा स्वराज की सरकार के हारने का कारण बनी। 1980 में प्याज चुनावी मुद्दा बन गया था। पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने चुनाव प्रचार के दौरान प्याज के दाम का जमकर फायदा लिया। राजस्थान में भी यह मुद्दा काफी गरम रहा।

बहुत ज्यादा खपत

सरकार के आंकड़ों के मुताबिक भारत में प्रति हजार व्यक्ति पर 908 व्यक्ति प्याज खाते हैं। इसका मतलब भारत में प्याज के उपभोक्ताओं की संख्या 100 करोड़ से भी ज्यादा है। भारत में प्याज का उत्पादन सभी राज्यों में नहीं होता। कृषि मंत्रालय के मुताबिक भारत करीब 2.3 करोड़ टन प्याज का उत्पादन करता है। इसका 36 प्रतिशत उत्पादन महाराष्ट्र, 16 प्रतिशत मध्य प्रदेश, 13 प्रतिशत कर्नाटक, छह प्रतिशत बिहार और पांच प्रतिशत राजस्थान में होता है। बाकी राज्यों में प्याज का उत्पादन बेहद कम है।

उत्पादन और भंडारण ठीक नहीं होना

भारत में अलग-अलग राज्यों में पूरे साल प्याज की खेती होती है। अप्रैल से अगस्त के बीच रबी की फसल होती है जिसमें करीब 60 प्रतिशत प्याज का उत्पादन होता है। अक्टूबर से दिसंबर और जनवरी से मार्च के बीच 20-20 प्रतिशत प्याज का उत्पादन होता है। भारत में जून से लेकर अक्टूबर तक बारिश का समय रहता है। ज्यादा बारिश होने पर फसल खराब हो जाती है। प्याज के भंडारों में पहुंचने पर भी परेशानी खत्म नहीं होती। अगर भंडार में पहुंचने के बाद ज्यादा बारिश हो जाए और भंडार में नमी या पानी आ जाए तो प्याज सड़ जाते हैं। ऐसा अकसर होता है। इस साल मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र में आई बाढ़ का प्याज के उत्पादन पर बहुत असर पड़ा है। हैरत की बात है कि सरकारों ने ऐसी स्थिति से निपटने के लिये कोई स्थाई समाधान नहीं ढूंढा है।

व्यापारियों का जाल

प्याज का उत्पादन मुख्यत: छह राज्यों में होता है। 50 प्रतिशत प्याज भारत की 10 मंडियों से ही आता है जिनमें से छह महाराष्ट्र और कर्नाटक में हैं। यानी चंद व्यापारियों के हाथ में 50 प्रतिशत प्याज की कीमतें रहती हैं। ये व्यापारी अपने तरीकों से प्याज की कीमतों को प्रभावित कर सकते हैं। साथ ही प्याज का कोई न्यूनतम समर्थन मूल्य तय नहीं है। ऐसे में पैदावार के समय बड़ी संख्या में प्याज बाजार में पहुंच जाता है तब इसके दाम गिर कर 1 रुपये किलो तक हो जाते है। सस्ते में मिलने से कालाबाजारी भी शुरू हो जाती है। इसलिए जब पैदावार का समय नहीं होता तो दाम बढ़ जाते हैं।

स्टॉक का खराब हो जाना

किसी आपात स्थिति से निपटने के लिये सरकार हर चीज का एक हिस्सा अपने पास सुरक्षित भी रखती है। इसे बफर स्टॉक कहा जाता है। केंद्र सरकार करीब 13,000 टन प्याज का भी बफर स्टॉक रखती है लेकिन ये हर साल खराब हो जाता है। २०१८ में बफर स्टॉक का 6,500 टन प्याज सडक़र खराब हो गया था। बहरहाल, दाम कंट्रोल करने के लिए सरकारें बफर स्टॉक से प्याज कम दाम पर बेचती हैं।

पॉलिटिक्स का खेल

देखा गया है कि महाराष्ट्र के विधानसभा चुनावों के दौरान प्याज महंगा हो जाता है। दरअसल, प्याज का कारोबार करने वाले बड़े व्यापारियों के संबंध राजनेताओं और राजनीतिक दलों से होते हैं। चुनाव के समय ये व्यापारी नेताओं और पार्टियों को चुनाव लडऩे के लिए पैसे देते हैं। इस चंदे की भरपाई प्याज के दाम बढ़ा कर की जाती है। इसका कुछ हिस्सा किसानों तक भी पहुंचता है जिसका तात्कालिक लाभ वोट में भी होता है।

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राघवेंद्र प्रसाद मिश्र जो पत्रकारिता में डिप्लोमा करने के बाद एक छोटे से संस्थान से अपने कॅरियर की शुरुआत की और बाद में रायपुर से प्रकाशित दैनिक हरिभूमि व भाष्कर जैसे अखबारों में काम करने का मौका मिला। राघवेंद्र को रिपोर्टिंग व एडिटिंग का 10 साल का अनुभव है। इस दौरान इनकी कई स्टोरी व लेख छोटे बड़े अखबार व पोर्टलों में छपी, जिसकी काफी चर्चा भी हुई।

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