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विंग कमांडर रहें हैं जूना अखाड़े के महामंडलेश्वर, जानिए इस अखाड़े के विराट इतिहास के बारे में

Juna Akhara: जूना गढ़ के निजाम को धूल चटा दी थी जूना अखाड़े के नागा साधुओं ने, हुए थे कूटनीति का शिकार।

Jyotsna Singh
Published on: 20 Nov 2024 1:56 PM IST
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Juna Akhara: कुंभ स्नान के दौरान जूना अखाड़े की शाही पेशवाई देखते ही बनती है। ढोल नगाड़ों की गूंज के बीच राजा महाराजाओं की ठाठ बाठ से लैस इस पेशवाई में हाथी और ऊंट पर सोने और चांदी के रथ समेत कई विस्मृत कर देने वाले नजारे होते हैं। इस अखाड़े की पेशवाई में अस्त्र शस्त्र से लैस करतब दिखाते साधुओं को देखने के लिए देश के साथ विदेशों से भी लोग बड़ी संख्या में एकत्र होते हैं। जूना अखाड़े के साधु धर्म रक्षा के साथ समाज सुधार के लिए भी काम करते हैं। उन्होंने किन्नरों को समाज की मुख्यधारा में लाने के लिए उन्हें अपने अखाड़े में जगह दी है। इसके अलावा जूना अखाड़े ने चार दलित संतों को महामंडलेश्वर की उपाधि दी है।

ऐसा माना जाता है कि शिव संन्यासी संप्रदाय के 7 अखाड़ों में जूना अखाड़ा सबसे बड़ा है। जिसके लगभग 5 लाख नागा साधु और महामंडलेश्वर संन्यासी है। इनसे अलग अलग क्षेत्र के अनुसार महंत होते हैं। वर्तमान में इस अखाड़े के महंत नारायण गिरीजी महाराज हैं।

इस सन में हुई थी जूना अखाड़े की स्थापना

जूना अखाड़ें का 1145 में उत्तराखंड के कर्णप्रयाग में पहला मठ स्थापित किया गया था। जिसे भैरव अखाड़ा भी कहा जाता हैं। इस अखाड़े के ईष्टदेव शिव और रुद्रावतार गुरु दत्तात्रेय भगवान हैं। शिव संन्यासी संप्रदाय के अंतर्गत ही दशनामी संप्रदाय जुड़ा हुआ है। इनके कुल 7 अखाड़ों में से जूना अखाड़ा इनके लिए सबसे अधिक खास महत्व रखता है। इनका केंद्र वाराणसी के हनुमान घाट पर माना जाता है और हरिद्वार के माया मंदिर के पास इनका आश्रम हैं। श्री पंचदशनाम जूना अखाड़ा का मुख्यालय वाराणसी में स्थित है। दशनामी संप्रदाय के अंतर्गत गिरी, पर्वत, सागर, पुरी, भारती, सरस्वती, वन, अरण्य, तीर्थ और आश्रम ये दस नाम आते हैं।


कई विदेशी भी हैं इस अखाड़े के संत

जूना अखाड़े से सिर्फ भारतीय सनातनी परम्परा में विश्वास रखने वाले संतों के अलावा इस परंपरा में गहरी आस्था रखने वाले कई अलग अलग देशों से आए विदेशी संत भी इस अखाड़े के सदस्य हैं। जूना अखाड़े के आचार्य महामंडलेश्वर स्वामी अवधेशानंद गिरी जी महाराज हैं। वे ही पीठाधीश्वर और आचार्य महामंडलेश्वर हैं। स्वामी अवधेशानंद गिरी जी महाराज ने सनातन संस्कृति की रक्षा के लिए अखाड़े का विस्तार करते हुए अब तक एक लाख से भी ज्यादा सन्यासियों को दीक्षा प्रदान कर उन्हें नागा संत की उपाधि प्रदान करने का काम किया है। इस अखाड़े में बड़ी तादात में संन्यासी हैं जिनकी संख्या करोड़ों में हैं।

ये होती है जूना अखाड़े की आंतरिक संरचना

जूना अखाड़े में आंतरिक व्यवस्था की एक खास प्रणाली है। सबसे विशाल अखाड़े के तौर पर स्थापित जूना अखाड़े के भीतर साधुओं के बावन परिवारों के सभी बड़े सदस्यों की एक कमेटी कंट्रोल सिस्टम की तरह काम करती है। इस कमेटी के सदस्य ही जूना अखाड़े के लिए सभापति चुनते हैं। एक बार चुनाव होने के बाद यह पद जीवन भर के लिए चुने हुए व्यक्तियों का हो जाता है। ये चुनाव कुंभ मेले के दौरान होते हैं। जूना अखाड़े की चार मढ़ियां हैं। इन चारों मढ़ियों में महंत से लेकर अष्टकौशल महंत और कोतवाल के पद पर चुन कर लाए गए संतों को गद्दी पर बैठाया जाता है।


जूना अखाड़े में संन्यासी बनने के बहुत कठिन है प्रक्रिया

जूना अखाड़ा सैव संप्रदाय के 7 अखाड़ों में सबसे बड़ा अखाड़ा माना जाता है। इस अखाड़े में संन्यासी बनने के लिए 4 या 5 साल नहीं बल्कि अपने जीवन के कुल बारह वर्षों का संकल्प पूरा करना पड़ता है। संन्यासी को संकल्प की इस अवधि के दौरान ब्रह्मचारी की तरह जीवन बिताना होता है। इस दौरान उसको अखाड़े के नियम और परंपराएं सिखाई जाती हैं। इस अखाड़े में महिला नागा संन्यासियों को भी जगह दी जाती है। लेकिन वस्त्रधारी महिला संन्यासी का आश्रम माईवाड़ा में स्थित है। जहां इनको योग्यता अनुसार महंत और महामंडलेश्वर का दर्जा भी हासिल है।

जूना अखाड़े का इतिहास

कुंभ स्नान में खास महत्व रखने वाले जूना अखाड़े का गौरवशाली इतिहास रहा है। इस अखाड़े के संन्यासी शिक्षित और संयमित होने के साथ ही बड़े वीर माने जाते हैं। इस अखाड़े को लेकर मान्यता है इसकी शुरुआत 8 वीं शताब्दी में भैरव अखाड़े से हुई थी। इस अखाड़े के संन्यासी शस्त्र विद्या में निपुण होने के साथ ही सदैव तलवार, भाला, फरसा जैसे खतरनाक अस्त्रों के साथ रहा करते थे। मुगल काल में जब बार-बार मंदिरों और मठों को नष्ट करने की चेष्टा की जा रही थी तब इन शस्त्रधारी संन्यासिनी ने मुगलों के साथ युद्ध में सक्रिय भूमिका निभाई। कई हजार नागाओं ने अपने प्राणों की आहुति भी दी।


मुगलों को धूल चटाने में माहिर थे नागा साधु, लेकिन कूटनीति के हुए शिकार

मुग़ल काल में भैरव अखाड़ा के संन्यासिनी ने अत्याचारी मुगल शासकों से भीषण युद्ध किया। जिनमें नागा योद्धाओं ने अपनी वीरता से मुगलों को धूल चटाने पर मजबूर कर दिया। ऐसे ही अहमद शाह अब्दाली द्वारा मथुरा-वृन्दावन के बाद गोकुल पर आक्रमण के समय नागा साधुओं ने उसकी सेना का मुकाबला करके गोकुल की रक्षा की। इसी प्रकार एक युद्ध में संन्यासिनियों ने जूनागढ़ के निजाम के साथ भी भीषण युद्ध किया जिसमे निजाम बुरी तरह पराजित हुआ। नागाओं द्वारा हार मिलने पर जूनागढ़ के निजाम ने कूटनीति के तहत नागाओं के सम्मुख संधि का प्रस्ताव रखा और भैरव अखाड़ा के सन्यासियों को रात्रि भोज पर आमंत्रित किया। धोखेबाज निजाम ने संन्यासियों के भोजन में विष मिला कर उन्हें एक साथ करीब चालीस हजार नागा साधुओं को मृत्यु के घाट उतार दिया।


इस दौरान अखाड़े में चली आ रही परम्परा के अनुसार पुजारी ,कोठारी समेत अखाड़े का काम काज देखने वाले संन्यासी सबके भोजन करने के पश्चात् ही खुद भोजन करते थे । वे ही इस कूटनीति का शिकार होने से बच गए। जो बच गए उन्होंने श्री पंच दशनाम जूना अखाड़ा का गठन किया। आज तक, अखाड़ा अपने सदस्यों के बीच शस्त्रधारी तपस्वियों की परंपरा को कायम रखता है। वे भगवान दत्तात्रेय की पूजा करते हैं।

वायुसेना में विंग कमांडर थे जूना अखाड़ा के महामंडलेश्वर

जूना अखाड़ा के महामंडलेश्वर पायलट बाबा वायुसेना में विंग कमांडर थे। जिनका इसी वर्ष 86 साल की उम्र में निधन हो गया। इनका नाम देश के काफी जाने माने उच्च स्तर के शिक्षित संत में आता है। बिहार में एक राजपूत परिवार में जन्म लेने वाले कपिल सिंह ने अपनी शिक्षा काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से प्राप्त की थी। इसके बाद ये भारतीय वायु सेना में शामिल हो गए। ये इसमें विंग कमांडर के पद पर तैनात थे। इस पद पर तैनात रहते हुए इन्होंने देश पर हुए आक्रमणों के दौरान सन 1962 और 1965 एवं 1971 में फाइटर प्लेन भी उड़ाया। इनकी वीरता के लिए इन्हें सम्मानित भी किया जा चुका है। साल 1996 में भारत के पूर्वोत्तर में मिग विमान उड़ाते समय उनके विमान ने पूरी तरह से नियंत्रण खो दिया था। उसी दौरान बाबा को उनके गुरु हरि गिरी महाराज का दर्शन प्राप्त हुए और रहस्यमई ढंग से वे मौत के मुंह से सुरक्षित बाहर निकल आए। इस घटना के उपरांत विंग कमांडर कपिल सिंह को वैराग्य प्राप्त हो गया। वे सेना की नौकरी छोड़ कर वैरागी जीवन चुन लिया। सेना की नौकरी के दौरान ही 1974 में इन्होंने विधिवत तरीके से दीक्षा लेकर जूना अखाड़े में शामिल हुए थे। वहीं नौकरी छोड़ने के बाद इनके संन्यास यात्रा शुरू हो गई।


पायलट बाबा जूना अखाड़े की उन्नति और विकास के लिए ही हमेशा सक्रिय भूमिका निभाते रहे। साल 1998 में महामंडलेश्वर पद ग्रहण होने के बाद 2010 में उज्जैन में प्राचीन जूना अखाड़ा शिवगिरी आश्रम, नीलकंठ मंदिर में पीठाधीश्वर पद भी ग्रहण किया था। पीएम मोदी और सीएम नीतीश कुमार भी पायलट बाबा से प्रभावित थे। कई बार आशीर्वाद प्राप्त करने भी जा चुके हैं। सनातनी परम्परा के प्रचार प्रसार में सदैव तत्पर रहने वाले महायोगी पायलट बाबा के भारत में उत्तरकाशी, हरिद्वार, नैनीताल, सासाराम समेत कई जगहों पर आश्रम हैं। इनके अतिरिक्त जापान और यूरोप में भी कई आश्रम हैं। पठन पाठन में हमेशा व्यस्त रहने वाले पायलट बाबा को लिखने का बेहद शौक था।इन्होंने ‘ज्ञान के मोती’, कैलाश मानसरोवर’, ‘हिमालय के रहस्यों को जानें’ जैसी करीब आधा दर्जन से भी अधिक पुस्तकों की रचना भी की है।

( लेखिका वरिष्ठ पत्रकार हैं ।)



Sonali kesarwani

Sonali kesarwani

Content Writer

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