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कहां, कैसे और कब हुआ शाह बानो प्रकरण, यहां जानें पूरी डिटेल
शाह बानो प्रकरण भारत में राजनीतिक विवाद को जन्म देने के लिये कुख्यात है। इसको अक्सर राजनैतिक लाभ के लिये अल्पसंख्यक वोट बैंक के तुष्टीकरण के उदाहरण के रूप में प्रस्तुत किया जाता है।
नई दिल्ली: शाह बानो प्रकरण भारत में राजनीतिक विवाद को जन्म देने के लिये कुख्यात है। इसको अक्सर राजनैतिक लाभ के लिये अल्पसंख्यक वोट बैंक के तुष्टीकरण के उदाहरण के रूप में प्रस्तुत किया जाता है।
शाह बानो प्रकरण का कानूनी विवरण
शाह बानो एक 62 वर्षीय मुस्लिम महिला और पांच बच्चों की मां थीं, जिन्हें साल 1978 में उनके पति ने तालाक दे दिया था। मुस्लिम पारिवारिक कानून के अनुसार पति पत्नी की मर्ज़ी के खिलाफ़ ऐसा कर सकता है।
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अपनी और अपने बच्चों की जीविका का कोई साधन न होने के कारण शाह बानो पति से गुज़ारा लेने के लिये कोर्ट पहुचीं। सुप्रीम कोर्ट तक पहुंचते मामले को सात साल बीत चुके थे।
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कोर्ट ने अपराध दंड संहिता की धारा 125 के अंतर्गत निर्णय लिया जो हर किसी पर लागू होता है, चाहे वो किसी भी धर्म, जाति या संप्रदाय का हो। कोर्ट ने निर्देश दिया कि शाह बानो को निर्वाह-व्यय के समान जीविका दी जाए।
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भारत के रूढ़िवादी मुसलमानों के अनुसार यह निर्णय उनकी संस्कृति और विधानों पर अनाधिकार हस्तक्षेप था। इससे उन्हें असुरक्षित अनुभव हुआ और उन्होंने इसका जमकर विरोध किया। उनके नेता और प्रवक्ता एमजे अकबर और सैयद शाहबुद्दीन थे।
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इन लोगों ने ऑल इंडिया पर्सनल लॉ बोर्ड नाम की एक संस्था बनाई और सभी प्रमुख शहरों में आंदोलन की धमकी दी। उस समय के प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने उनकी मांगें मान लीं और इसे "धर्म-निरपेक्षता" के उदाहरण के स्वरूप में प्रस्तुत किया।
भारत सरकार की प्रतिक्रिया
साल 1986 में कांग्रेस (आई) पार्टी ने, जिसे संसद में पूर्ण बहुमत प्राप्त था, एक कानून पास किया जिसने शाह बानो मामले में सुप्रीम कोर्ट के फैसले को उलट दिया। इस कानून के अनुसार (उद्धरण):
"हर वह आवेदन जो किसी तालाकशुदा महिला के द्वारा अपराध दंड संहिता 1973 की धारा 125 के अंतर्गत किसी कोर्ट में इस कानून के लागू होते समय विचाराधीन है, अब इस कानून के अंतर्गत निपटाया जाएगा, चाहे उपर्युक्त कानून में जो भी लिखा हो।"
क्योंकि सरकार को पूर्ण बहुमत प्राप्त था, सुप्रीम कोर्ट के धर्म-निरपेक्ष निर्णय को उलटने वाले, मुस्लिम महिला (तालाक अधिकार सरंक्षण) कानून 1986 आसानी से पास हो गया।
इस कानून के कारणों और प्रयोजनों की चर्चा करना आवश्यक है। कानून के वर्णित प्रयोजन के अनुसार जब एक मुसलमान तालाकशुदा महिला इद्दत के समय के बाद अपना गुज़ारा नहीं कर सकती है तो न्यायालय उन संबंधियों को उसे गुज़ारा देने का आदेश दे सकता है जो मुसलमान कानून के अनुसार उसकी संपत्ति के उत्तराधिकारी हैं।
लेकिन- अगर ऐसे संबंधी नहीं हैं अथवा वे गुज़ारा देने की हालत में नहीं हैं तो कोर्ट प्रदेश वक्फ़ बोर्ड को गुज़ारा देने का आदेश देगा। इस प्रकार से पति के गुज़ारा देने का उत्तरदायित्व इद्दत के समय के लिये सीमित कर दिया गया।