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नेहरू की ये लाड़ली: ऐसे बन गई लौह महिला, लड़ गई पूँजीपतियों से
इंदिरा गांधी के जीवन में 1967 से लेकर 1971 के काल खंड को उनका कायांतरण काल कहा जा सकता है। नेहरू के निधन के बाद उन्होंने जब कांग्रेस के साथ मिलकर काम करना शुरू किया तो मोरार जी देसाई जैसे नेताओं के कड़े विरोध का सामना करना पड़ा।
अखिलेश तिवारी
लखनऊ: देश के दूसरे प्रधानमंत्री लालबहादुर शास्त्री के निधन के पश्चात कांग्रेस सिंडीकेट ने इंदिरा गांधी को अपने घेरे में ले लिया था। प्रधानमंत्री होने के बावजूद उन्हें सारे काम सिंडीकेट के इशारे पर ही करने पड रहे थे लेकिन इंदिरा ने जब देखा कि सिंडीकेट उन्हें देश के पूंजीपतियों के पक्ष में काम करने को मजबूर कर रहा है तो उन्होंने गूंगी गुडिया का चोला उतार फेंका। बैंकों के राष्ट्रीयकरण से लेकर गरीबी हटाओ योजना के जरिये उन्होंने देश के पूंजीपति और सामंतवर्ग के खिलाफ हल्ला बोल दिया। इससे कांग्रेस सिंडीकेट मुश्किल में आ गया । लोकप्रियता के ज्वार पर सवार होकर इंदिरा ने कांग्रेस का पूरा स्वरूप ही बदल दिया और देश ने भी उन्हें आयरन लेडी मान लिया।
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1967 से लेकर 1971 के काल खंड को उनका कायांतरण काल कहा जा सकता है
indira gandhi (photo by social media)
इंदिरा गांधी के जीवन में 1967 से लेकर 1971 के काल खंड को उनका कायांतरण काल कहा जा सकता है। नेहरू के निधन के बाद उन्होंने जब कांग्रेस के साथ मिलकर काम करना शुरू किया तो मोरार जी देसाई जैसे नेताओं के कड़े विरोध का सामना करना पड़ा। तब तमिलनाडु के नेता के कामराज व कर्नाटक के निजलिंगप्पा महाराष्ट्र के एसके पाटिल सरीखे नेताओं ने इंदिरा का साथ दिया। उन्हें शास्त्री के मंत्रिमंडल में शामिल किया गया और शास्त्री के असामयिक निधन के पश्चात इसी सिंडीकेट ने उन्हें प्रधानमंत्री की कुर्सी तक पहुंचा दिया।
कांग्रेस के दिग्गज नेताओं के इस गठजोड को मोरार जी भाई ने ही सिंडीकेट का नाम दिया
कांग्रेस के दिग्गज नेताओं के इस गठजोड को मोरार जी भाई ने ही सिंडीकेट का नाम दिया, क्योंकि कांग्रेस के इन वरिष्ठ नेताओं का गुट मोरार जी का विरोध करता था। मोरार जी कहते थे कि सिंडीकेट के इशारे पर ही इंदिरा सारा राजकाज चला रही हैं। इसके समर्थन में वह कई उदाहरण भी दिया करते थे। इसलिए वह इंदिरा को गूंगी गुडिया कहते थे जो सिंडीकेट के चाबी भरने से ही चलती थी। मोरार जी भाई के इस कथन की हकीकत से शायद इंदिरा भी वाकिफ थीं।
सिंडीकेट के नियंत्रण से बाहर निकलने के लिए इंदिरा ने सबसे पहले राष्ट्रपति चुनाव में अपनी ताकत दिखाई और नीलम संजीव रेड्डी के बजाय वीवी गिरि को राष्ट्रपति बनवा दिया। इस घटना ने सिंडीकेट को भी आइना दिखाया और कांग्रेस में दोफाड़ हो गया। वरिष्ठ कांग्रेसियों ने कांग्रेस (संगठन) के नाम से तत्कालीन संगठन पर कब्जा जमा लिया लेकिन इंदिरा ने उसी समय कांग्रेस (आर) का गठन कर 1970 में लोकसभा भंग कर दी। इससे 1972 में होने वाला आम चुनाव 1971 में ही हो गया और चुनाव में इंदिरा ने ऐसा दांव चला कि सिंडीकेट का नामोनिशान भी भारतीय राजनीति से समाप्त हो गया।
indira gandhi (photo by social media)
पूंजीपतियों व धनाढय वर्ग के खिलाफ गरीबों के साथ खड़ी हो गईं इंदिरा
गोरखपुर के मानीराम विधानसभा क्षेत्र से विधायक रहे हरद्वार पांडेय बताते हैं कि इंदिरा जी के मन में गरीबों के उत्थान की भावना अत्यंत प्रबल थी। वह वास्तव में गरीबों के अच्छे दिन लाना चाहती थीं लेकिन पूंजीपतियों के इशारे पर राजनीति करने वाले सिंडीकेट के नेता इसमें अडंगा बने हुए थे। बैंकों के राष्ट्रीयकरण के साथ ही वह चाहती थीं कि गांव-गांव तक बैंक की सुविधा पहुंचे। जिससे साहूकारों का शोषण बंद हो। राजाओं- महाराजाओं के प्रिवीपर्स समाप्त करने समेत कई ऐसे फैसले उन्होंने इस कालखंड में किए जिसने उन्हें गरीबों का मसीहा बना दिया।
नेहरू की बेटी गरीबों की किस्मत बदलना चाहती है
लोगों को यह भरोसा हो गया कि नेहरू की बेटी गरीबों की किस्मत बदलना चाहती है। इसका असर 1971 के आम चुनाव में देखने को मिला जब कांग्रेस (संगठन) ने इंदिरा के खिलाफ पूरे देश में चुनाव लडा लेकिन उसे कुल 16 सीटों पर ही जीत मिल पाई। इसमें भी 11 सीट तो गुजरात से आई थीं जहां मोरारजी भाई का प्रभाव अधिक था। कांग्रेस आर ने 441 सीटों पर चुनाव लड़ा और लगभग 45 प्रतिशत मत हासिल करते हुए 352 सीटों पर जीत दर्ज कराते हुए गूंगी गुडिया को लौह महिला में तब्दील कर दिया। इसके बाद बांग्लादेश की लड़ाई जीतने पर तो विपक्ष के नेता अटल बिहारी वाजपेयी ने भी उन्हें दुर्गा कहना शुरू कर दिया।
इंदिरा के साथ पुराने दिनों को याद करते हुए हरद्वार पांडेय बताते हैं
Hardwar Pandey (photo by social media)
इंदिरा के साथ पुराने दिनों को याद करते हुए हरद्वार पांडेय बताते हैं कि तब उनकी युवावस्था थी। सेवादल में सक्रिय रहते हुए उन्हें इंदिरा जी के करीब जाने का कई बार अवसर मिला। अपने कार्यकर्ताओं को वह खूब अच्छे से पहचानती थीं। फरीदाबाद अधिवेशन से निजलिंगप्पा भाग चले। वहां अव्यवस्था फैल गई। लोग इधर से उधर भाग रहे थे तब इंदिरा जी को केवल इस बात की चिंता थी कि उनके कार्यकर्ता वहां से सुरक्षित निकल जाएं। हम लोग उनके साथ थे और सुरक्षित निकलने के लिए कहते रहे लेकिन जब तक अधिवेशन स्थल से सभी कार्यकर्ता सुरक्षित नहीं निकल गए तब तक वह डटी रहीं।
उन्होंने अपनी जान की परवाह नहीं की। ऐसे अनेक मौके आए हैं जब कार्यकर्ता के सम्मान और हित रक्षा के लिए उन्होंने सब कुछ भुलाकर मदद की। यही वजह है कि पूरा देश उन्हें अपना नेता और आदर्श मानता था। विरोधी भी उनके कायल थे। कम्यूनिस्ट पार्टी के नेता भी मानते थे कि गरीबों के हित के लिए इंदिरा की नीयत में कोई खोट नहीं है।
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