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स्मृति: दृढ़ संकल्प का दूसरा नाम थे महामना मदन मोहन मालवीय

महामना का जन्म 25 दिसंबर 1861 को इलाहाबाद में हुआ और शिक्षा-दीक्षा कलकत्ता विश्वविद्यालय में। पढ़ाई पूरी करने के बाद उन्होंने शिक्षक की नौकरी की, वकालत की और एक समाचार पत्र का संपादन भी किया।

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Published on: 12 Nov 2020 5:05 AM GMT
स्मृति: दृढ़ संकल्प का दूसरा नाम थे महामना मदन मोहन मालवीय
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स्मृति: दृढ़ संकल्प का दूसरा नाम थे महामना मदन मोहन मालवीय (Photo by social media)

लखनऊ: व्यक्ति अगर किसी कार्य का संकल्प कर ले और उसके लिए पूरी शक्ति से जुट जाए तो उसका वह कार्य पूरा होने से कोई नहीं रोक सकता है। इस वाक्य को यथार्थ के धरातल पर उतारने वाले किसी व्यक्ति का स्मरण करे तो पंडित मदन मोहन मालवीय का नाम प्रमुखता से सामने आता है। एक ऐसा व्यक्ति जिसकी इच्छाशक्ति इतनी प्रबल कि बगैर किसी संसाधन के ही एक ऐसे विश्वविद्यालय की स्थापना कर दी, जो कालांतर में पूरे देश में बनारस हिंदू विश्वविद्यालय के नाम से प्रसिद्ध हुआ। पंडित मदन मोहन मालवीय एक महान स्वतंत्रता सेनानी, पत्रकार, वकील और समाज सुधारक थे। महात्मा गांधी द्वारा दी गई उपाधि महामना के नाम से प्रसिद्ध पंडित मदन मोहन मालवीय का निधन आज ही के दिन 1946 में बनारस में हुआ था।

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महामना का जन्म 25 दिसंबर 1861 को इलाहाबाद में हुआ

महामना का जन्म 25 दिसंबर 1861 को इलाहाबाद में हुआ और शिक्षा-दीक्षा कलकत्ता विश्वविद्यालय में। पढ़ाई पूरी करने के बाद उन्होंने शिक्षक की नौकरी की, वकालत की और एक समाचार पत्र का संपादन भी किया। लेकिन देश में शिक्षा का अभाव देख कर उन्होंने वर्ष 1915 में बनारस हिंदू विश्वविद्यालय की स्थापना की।

madan mohan malaviya madan mohan malaviya (Photo by social media)

महात्मा गांधी भी महामना की दृढ़ संकल्पशक्ति के इतने कायल थे कि वह उन्हे अपना बड़ा भाई मानते थे। महामना, देश की गुलामी की स्थिति से बहुत दुखी थे और आजादी के प्रबल समर्थक। उन्होंने करीब 50 वर्षों तक कांग्रेस से जुड़ कर आजादी की लड़ाई में अपना योगदान दिया और ब्रिटिश सरकार के खिलाफ सविनय अवज्ञा तथा असहयोग आंदोलन में प्रमुख भूमिका निभाई थी। वह देश को आजाद देखना चाहते थे लेकिन आजादी मिलने से एक वर्ष पूर्व ही उनका निधन हो गया।

महामना के संबंध में एक किस्सा बहुत ही मशहूर है

महामना के संबंध में एक किस्सा बहुत ही मशहूर है, जिसमे उन्होंने हैदराबाद के निजाम को सबक सिखाया था। हुआ कुछ यूं कि महामना उन दिनों बनारस विश्वविद्यालय के लिए पूरे देश में घूम-घूम कर चंदा एकत्र कर रहे थे। इसी क्रम में वह हैदराबाद के निजाम के पास भी पहुंचे और उनसे विश्वविद्यालय के निर्माण के लिए आर्थिक सहायता मांगी।

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जिस पर निजाम ने साफ इनकार ही नहीं किया बल्कि उनका अपमान करने के लिए कहा कि उन्हे दान में देने के लिए उसके पास केवल जूता ही है। इस पर महामना ने निजाम से उसके जूते ले लिए और बाजार में खडे़ होकर उसको बेंचने लगे। निजाम को जब इस बात की खबर लगी तो उसने बदनामी के ड़र से महामना को बुलाया और बहुत बड़ी रकम दान में दे कर इज्जत के साथ विदा किया। अंग्रेजी शासन के दौर में देश में एक स्वदेशी विश्वविद्यालय का निर्माण महामना की बड़ी उपलब्धि थी।

रिपोर्ट- मनीष श्रीवास्तव

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