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लखनवी चिकन ही नहीं बंगाली रसगुल्‍ला भी GI पेटेंट, जानिए क्‍यों खास है ये Tagging

Manali Rastogi
Published on: 1 Jun 2018 6:40 AM GMT
लखनवी चिकन ही नहीं बंगाली रसगुल्‍ला भी GI पेटेंट, जानिए क्‍यों खास है ये Tagging
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लखनऊ: अगर आप खाने-पीने से लेकर पहनने ओढ़ने के शौकीन हैं तो ज्‍योग्राफिकल टैग या इंडीकेटर (GI) आपकी मदद के लिए खास हथियार साबित हो सकता है। बस एक क्लिक पर आप जान सकते हैं कि ऑल इंडिया में किस जगह की क्‍या खासियत है।

प्रोडक्‍ट के ओरिजन की जानकारी मिलते ही आप उसे ऑनलाइन मंगवा भी सकते हैं। जी आई टैग आपको पल भर में बता देगा कि कौन सा प्रोडक्‍ट किस ज्‍योग्राफिकल एरिया से आता है और किन परिस्थितयों में किस विधि के द्वारा इसे तैयार किया जाता है। आपको जानकर आश्‍चर्य होगा कि अब तक भारत के करीब 300 प्रोडक्‍ट्स को जीआई टैग दिया जा चुका है।

क्‍या है GI टैग, कैसे करें पहचान

आईआईटीआर के रिसर्च, प्‍लानिंग और बिजनेस डेवलपमेंट डिवीजन के हेड डॉ के सी खुल्‍बे ने बताया कि जी आई टैगिंग प्रोडक्‍ट की क्‍वालिटी, इंटरनेशनल मार्केट में उसकी वैल्‍यू और इसकी डुप्‍लीकेसी से निजात दिलाने का एक इकोनॉमिकल टूल है। अगर आपको ये जानना है कि आम कहां का फेमस है तो आपको बस एक क्लिक करके आम की क्‍वालिटी और इंटरनेशनल मार्केट में उसकी वैल्‍यू के आधार पर इसके ओरिजन यानि ज्‍योग्राफिकल टैरिटरी की जानकारी ले सकते हैं।

इससे आपको ये पता चल जाएगा कि जो प्रोडक्‍ट आप खरीदने या खाने जा रहे हैं, वो वास्‍तव में भारत के हिस्‍से से आता है और उसकी इंटरनेशनल मार्केट में वैल्‍यू क्‍या है। इसके साथ ही अगर आपको प्रोडक्‍ट समझ में नहीं आता है या क्‍वालिटी में कुछ कमी या डुप्‍लीकेसी लगती है तो आप बकायदा इसके लिए लीगल एक्‍शन भी ले सकेंगे। क्‍योंकि जी आई टैग के प्रोडक्‍ट्स को कानूनी संरक्षण भी प्राप्‍त होता है। किसी भी तरह की डुप्‍लीकेसी या ठगी होने पर कंज्‍यमूर कानून की शरण में जा सकता है।

क्‍यों होती है GI टैगिंग

आईआईटीआर के डॉ के सी खुल्‍बे ने बताया कि जी आई टैंगिंग एक इंटरनेशनल साइन है जिसे वर्ल्‍ड ट्रेड आर्गेनाइजेशन के सभी सदस्‍य देशों को अपनाना पड़ता है। भारत भी डब्‍लयू टी ओ का मेंबर है। ऐसे में वर्ल्‍ड ट्रेड आर्गेनाइजेशन के ज्‍योग्राफिकल इंडीकेशंस ऑफ गुड्स ( रजिस्‍ट्रेशन एंड प्रोटेक्‍शन एक्‍ट 1999) को वर्ष 2003 से लागू किया गया है।

डब्‍ल्‍यू टी ओ के ट्रेड रिलेटेड एस्‍पैक्‍ट ऑफ इंटलैक्‍चुअल प्रापर्टी राइट्स (ट्रिप्‍स) की धारा 22(1) में जी आई टैग को परिभाषित किया गया है। अगर किसी प्रोडक्‍ट को जी आई टैगिंग मिलती है तो इसका मतलब है कि उस भौगोलिक क्षेत्र में उस प्रोडक्‍ट को सबसे बेहतर और गुणवत्‍ता युक्‍त तरीके से तैयार किया जाता है।

जैसे भारत का सबसे पहला जी आई टैगिंग का प्रोडक्‍ट दार्जिलिंग की चाय है,‍ जिसे वर्ष 2004 में जी आई टैगिंग मिली थी। इसका मतलब हुआ कि इस नाम से केवल दार्जिलिंग की ज्‍योग्राफिकल टैरिटरी में रहने वाले लोग ही प्रोडक्‍ट बनाकर बेंच सकते हैं। दूसरे किसी ज्‍योग्राफिकल रीजन से इसे बनाकर बेंचना गैर कानूनी है।

ऐसे होती है जी आई टैगिंग, 10 साल है वैलेडिटी

कामर्स एंड इंडसट्री मिनिसट्री के अंतर्गत कंट्रोलर जनरल ऑफ पेटेंट्स, डिजाइंस एंड ट्रेडमार्क्‍स ही जी आई टैगिंग के रजिसट्रेशन और उसके रिनीवल के लिए जिम्‍मेदार है। हर साल मार्च में जी आई टैंगिंग के लिए आवेदन मांगे जाते हैं। ये आवेदन ज्‍योग्राफिकल इंडीकेटर के जनरल में प्र‍काशित होते हैं।

राज्‍य सरकार के माध्‍यम से इसके लिए आवेदन किया जाता है।अगर सब कुछ ठीक रहता है और उस आवेदन के खिलाफ कोई आपत्ति नहीं होती है तो करीब 120 दिन बाद जुलाई माह तक राज्‍य सरकार को उस प्रोडक्‍ट के लिए जी आई टैगिंग दे दी जाती है। एक बार जी आई टैगिंग मिलने के बाद करीब 10 साल तक उसकी वैलेडिटी रहती है।

यूपी के इन प्रोडक्‍ट्स के पास है GI टैगिंग

उत्‍तर प्रदेश की बात करें तो नवाबी नगरी यानि लखनऊ की चिकनकारी, मलिहाबाद के आम, वाराणसी की जरदोजी, भदोही की कालीन, फिरोजाबाद की चूडि़यां, कन्‍नौज का इत्र, मुरादाबाद के पीतल के बर्तन , सहारनपुर का लकड़ी का काम और वाराणसी के कांच के मनकों के काम को जी आई टैगिंग मिल चुकी है। इसके अलावा इंडिया के करीब 300 प्रोडक्‍ट्स की जी आई टैगिंग की जा चुकी है। इनमें दार्जिलिंग की चाय, तिरूपति बालाजी के मंदिर का लड्डू, पश्चिम बंगाल का बांगलर रसगुल्‍ला, राजस्‍थान की कठपुतली समेत सैंकड़ों प्रोडक्‍ट्स दर्ज हैं।

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