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Dalit literature its Growth and History: आत्म घटित ही है दलित साहित्य

Dalit Literature In India: पिछले कुछ वर्षों से हिंदी भाषी प्रदेशों में दलित राजनीति के उभार के साथ हिंदी साहित्य में भी दलित चेतना की अनुगूँज सुनाई पड़ने लगी है।

Yogesh Mishra
Written By Yogesh Mishra
Published on: 31 May 2022 4:08 PM IST
आत्म घटित ही है दलित साहित्य
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दलित साहित्य (कॉन्सेप्ट फोटो साभार- सोशल मीडिया)

Dalit Literature: दलित समाज का दलित शब्द से पहचाना जाना काफ़ी बाद में शुरू होता है। यह पहले हरिजन, शूद्र व कमीन कहे जाते थे। सबसे पहले मराठी बुद्धिजीवियों ने यह आंदोलन चलाया कि हमारे संबोधन निंदा सूचक हैं। अत: हमें दलित (Dalit) कहा जाना चाहिए। फिर दलित समाज का सामाजिक आंदोलन मराठी में 'दलित पैंथर' (Dalit Panthers) के नाम पर 1960 के दशक में चला। दलित पैंथर आंदोलन अमेरिका के' ब्लैक पैंथर' आंदोलन का समानान्तर था। प्रकारांतर दलित पैंथर के ही कुछ बुद्धिजीवियों ने ही दलित साहित्य (Dalit Literature) पर काम किया। इसमें दया पवार का नाम विशेष उल्लेखनीय हैं। दलित साहित्य के नाम पर मराठी में कविताएँ प्रभावी रहीं। मराठी में जब दलित आंदोलन चल रहा था। तब हिंदी में दलित साहित्य के प्रतिनिधि के रूप में कोई नहीं था। दलित वर्ग के कुछ लेखक मधुकर सिंह, शिवमूर्ति , राजेंद्र यादव थे ज़रूर। लेकिन ये दलित साहित्य नहीं लिख रहे थे।

आरंभ में दलितों से संबंधित लेखन ज़्यादातर सवर्णों ने किया। इनमें निराला, प्रेमचन्द, रेणु, मैत्रेयी पुष्पा, मन्नु भंडारी, विजय दानेदेथा व विष्णु खरे का नाम है। परंतु इन्होंने अपने साहित्य में जो भी दलितों के लिए लिखा वह दलित साहित्य है, घोषित करके नहीं लिखा। वैसे तो हिंदी में दलित साहित्य का लेखन दया पवार के प्रभाव से शुरू हुआ। दया पवार ने मराठी में काफ़ी दलित साहित्य लिखा। दलित साहित्य के मामले में हिंदी में ओम प्रकाश वाल्मीकि महत्वपूर्ण लेखक हैं। जिन्होंने आत्मकथात्मक साहित्य से शुरू करके वैचारिक साहित्य लिखा।

हिंदी साहित्य में भी दलित चेतना की अनुगूँज

इधर, पिछले कुछ वर्षों से हिंदी भाषी प्रदेशों में दलित राजनीति के उभार के साथ हिंदी साहित्य में भी दलित चेतना की अनुगूँज सुनाई पड़ने लगी है। मराठी, गुजराती, तमिल एवं मलयालम भाषाओं में दलित साहित्य चेतना आंदोलन का रूप ले चुकी है। लेकिन हिंदी में आत्म कथात्मक साहित्य से शुरू हो कर दलित साहित्य में आज भी रचनात्मक साहित्य कम, विचारात्मक पुस्तकें ज़्यादा हैं। कविताएँ तो नगण्य कहीं जा सकती हैं। अमेरिका के ब्लैक पैंथर सामाजिक आंदोलन की रचनाधर्मिता के पक्षधर बुद्धिजिवियों ने ब्लैक लिट्रेचर के माध्यम से जो अभियान चलाया वह हिंदी में मराठी साहित्य से होता हुआ अब आ पहुँचा है।

साहित्यकारों को दलित साहित्य एक द्वीप सा लग रहा है। इसकी स्वीकृति के सामने सवाल खड़े किये जा रहे हैं। सर्वप्रथम दलित साहित्य को दलित शब्द की व्याख्या करनी होगी। दलित साहित्य के लेखक शरण कुमार लिंबाले मानते हैं," दलित अर्थात् केवल हरिजन व नव बौद्ध ही नहीं, बल्कि गाँव की सीमा से बाहर आने वाली सभी अछूत जातियाँ, आदिवासी, भूमिहीन खेत मज़दूर, श्रमिक, दुखी जनता, भटकी बहिष्कृत जाति इन सभी को दलित शब्द की व्याख्या में शामिल करना होगा। दलित शब्द की व्याख्या केवल अछूत जाति का उल्लेख करने से नहीं होगी। इसमें आर्थिक तौर पर पिछड़े हुए लोगों का भी समावेश करना चाहिए। दलित की परेशानी, ग़ुलामी, पारिवारिक विघटन, दुख, ग़रीबी और उपेक्षापूर्ण जीवन का वास्तविक चित्रण करने वाला साहित्य ही दलित साहित्य हैं। पीड़ा व आह का उदात्त स्वरूप अर्थात् दलित साहित्य।"

कैसे हुई दलित साहित्य की शुरुआत?

वैसे तो डॉक्टर भीमराव अंबेडकर को दलित साहित्य का पिता माना जाता है। गौर से देखें तो दलित साहित्य कीं शुरुआत चौदहवीं सदी (एडी) के संत चोखा मेवा से होती है। परंतु कुछ लोग (1828-90) महात्मा फूले एवं एक वर्ग विशेष एस एम माते (1886-1957) को दलित साहित्य का पक्षधर मानता है। यद्यपि उस समय दलित साहित्य जैसा शब्द नहीं था। 1920 में दलितों के हालात एवं मनु स्मृति पर प्रहार करते हुए गोपाल बाबा बालंगकर, पंडित कोडिराम, किशन फागोजी वंशोड ने कई लेख लिखे। 1950 के आसपास महाराष्ट्र में दलित युवकों का पहला स्नातक बैच निकला। जिसने सिद्धार्थ साहित्य संघ का गठन किया। इसके बाद महाराष्ट्र दलित साहित्य संघ बना। महाराष्ट्र दलित साहित्य संघ के गठन के पीछे दलित युवकों का यह तर्क था कि हमारा जीवन एवं समस्याएं आम लोगों से भिन्न हैं। इसलिए हमारा साहित्य भी होना चाहिए। परिणामतः इस काल का साहित्य 'रिपब्लिकन पार्टी ऑफ इंडिया' के 'प्रबुद्ध भारत' के माध्यम से प्रकाश में आया।

डॉ अंबेडकर ने 1927 में महाड सत्याग्रह एवं 1930 में नासिक सत्याग्रह किया। परंतु इन सत्याग्रहों का उल्लेख उस समय की पत्र पत्रिकाओं में कुछ ख़ास ढंग से नहीं हुआ। यहाँ तक कि प्रगतिशील साहित्य में जो यदा कदा दलित अभिव्यक्ति दिखाई पड़ जाती थी, उसने भी डॉ अंबेडकर के इन सत्याग्रहों की उपेक्षा की। परिणामतः डॉ अंबेडकर ने जाति आधारित शेड्यूल कास्ट फ़ेडरेशन बनाया।वैसे तो लगभग सौ वर्षों पहले महात्मा फुले ने मराठी ग्रंथकार सभा ( वार्षिक सभा, जो अब साहित्य सम्मेलन कहा जाता है) में ग़ैर दलित लेखकों को रेखांकित करते हुए कहा था," हमारे बैठकों में जो विचार एवं अनुभूतियाँ व्यक्त की जाती हैं, उन्हें किताबों का हिस्सा क्यों नहीं बनाया जाता?" महात्मा फुले का यह वाक्य दलित साहित्य की स्थापना की ओर सीधा संकेत करता है। हिंदी में दलित साहित्य के इतिहास की बात करते हुए एक बहुत बड़ा वर्ग इसे संत साहित्य से जोड़कर बताता है। परंतु आज के दलित लेखक इसे स्वीकार नहीं करते। आज के दलित लेखक का मानना है कि संत साहित्य में याचना है, क्रांति या विद्रोह नहीं। इसलिए इसे दलित साहित्य के इतिहास के रूप में नहीं स्वीकार किया जा सकता है।

दलित लेखकों की 'कांफ्रेंस'

1958 में सबसे पहली बार दलित लेखकों की 'कांफ्रेंस' महाराष्ट्र दलित साहित्य संघ मुंबई में आयोजित हुई थी। बंधु माधव ने 1958 को 'प्रबुद्ध भारत' में अपने लेख में इस कांफ्रेंस के औचित्य के संबंध में लिखा कि "जिस तरह रूसी लेखक लेनिन के क्रांतिकारी सिद्धांतों व नीतियों के प्रचार प्रसार के लिए प्रगतिशील साहित्य की बात करते हैं, उसी तरह डॉ अंबेडकर के नीतियों व सिद्धांतों के लिए दलित साहित्य का औचित्य है।" इसी कांफ्रेंस में प्रस्ताव नंबर- पाँच के माध्यम से यह कहा गया- "जो साहित्य दलितों द्वारा लिखा गया , उसे हम लोग एक अलग दलित साहित्य के नाम से महत्व देंगे। इसी कांफ्रेंस में यह भी तय किया गया कि दलित साहित्य के सांस्कृतिक महत्व को ध्यान में रखते हुए विश्वविद्यालय एवं साहित्यिक संगठन दलित साहित्य को उचित स्थान प्रदान करें।

इधर पिछले कुछ अर्से से हिन्दी भाषी प्रदेशों में दलित राजनीति के उभार के साथ हिन्दी साहित्य में भी दलित चेतना की अनुगूंज सुनाई पड़ने लगी है। मराठी, गुजराती, तमिल एवं मलायालम भाषाओं में दलित साहित्य चेतना आंदोलन का रूप ले चुकी है। लेकिन हिन्दी में आत्मकथात्मक साहित्य से आरम्भ हुआ दलित साहित्य आज भी खासा विवाद का विषय है। दलित साहित्य के सन्दर्भ में देश के कुछ साहित्यकारों से बातचीत की गयी। दलित लेखकों की दलित साहित्य के इस विमर्श में अपनी अलग-अलग राय है।

प्रस्तुत है उनके बातचीत के अंश:

राजेन्द्र यादव का मानना है कि साहित्य की रचना सामाजिक विसंगतियोंको लेकर ही होती है। चाहे वह सिद्ध साहित्य हो अथवा संत साहित्य। वह हमेशा दीन और दलित के पक्ष में बोलता है। शायद यही वजह है कि हिन्दी साहित्य के रास्ते में जब-जब अवरोध आया है,उसे दलित साहित्यकारों ने ही एक नया मोड दिया है। संत साहित्य का अधिकांश हिस्सा जो साहित्य की दरबारी संस्कृति के खिलाफ लिखा गया, दलितों द्वारा रचित है। आज दलित समाज के लोग जिस मार्मिकता के साथ अपनी अनुभूतियां प्रस्तुत कर रहे हैं, उसे गलत नहीं कहा जा सकता है।क्योंकि आदर्श तो यही है कि आदमी अपनी बात स्वयं कहे। इस आधार पर अगर दलित लेखक कहते हैं कि गैर दलित लेखक, दलितों के मिथ को जीते हैं और इस तरह उसमें वास्तविकता नहीं है तो इसमें क्या गलत है? चाहे वह अमृतलाल नागर का लेखन हो या गिरिराज किशोर का। इन सबने गम्भीरता के साथ दलित साहित्य में योगदान किया है परन्तु प्रस्तुति में कहीं न कहीं तो फर्क है ही और कमी भी है। इसलिए अगर दलित साहित्यकार गैर दलित लेखकों द्वारा लिखे गये दलित साहित्य को स्वीकार नहीं कर पा रहे हैं तो इसका सीधा मतलब है कि गैर दलित लेखकों पर उनका विश्वास नहीं है। दलित लेखक ही, दलित समाज की जिन्दगी को सच्चाई के साथ उभार पायेंगे, ऐसा भी मानते हैं।राजेन्द्र यादव का कहना है कि अब समय दलित साहित्य का है, कितने दिनों तक ललित साहित्य ओढ़ते -बिछाते रहेंगे।

लब्ध प्रतिष्ठ मराठी साहित्यकार शरण कुमार लिंबाले कहते हैं, "दलित समाज का अनुभव अब तक साहित्य में व्यक्त नहीं हुआ है। यह जाति विशेष का अनुभव है। इसीलिए यह एक व्यक्ति का होते हुए भी पूरी जाति को प्रतिनिधित्व देता है। उसकी पीड़ा और आक्रोश को प्रतिबिंबित करता है। दलित साहित्य के अनुभव, स्वतंत्रता की आकांक्षा से व्यक्त होते हैं ।उसका स्वरूप मैं की अपेक्षा हम जैसा है । इसी अनुभव ने दलित लेखकों को लिखने के लिए प्रेरित किया। दलित होने का ज्ञान गुलाम को गुलामी के ज्ञान की तरह है। यह ज्ञान ही दलित साहित्य का सार है, यह ज्ञान अन्य लेखकों की अपेक्षा दलित लेखक के ज्ञान को अलग करता है, उसे विशिष्ट बनाता है । दलित लेखक का आधार उसका निजी अनुभव है। उसके लेखन में हमेशा एक भूमिका रहती है कि इसके विरूद्ध विद्रोह करना है।यह नकारना है अथवा इसका निर्माण करना है। पहले से निर्धारित विश्वास से दलित लेखक लिखता है ।इसलिए उसका लेखन उददेश्यपूर्ण दिखाई देता है। दलित लेखक सामाजिक जिम्मेदारी से लिखता है। उसके लेखन में कार्यकर्ता का आवेश एवं निष्ठा व्यक्त होती है। वह चाहता है समाज बदले। समाज अपने सवाल समझे, यह तिलमिलाहट उसके लेखन में व्यक्त होती है। दलित लेखक आन्दोलन करके लिखने वाला कार्यकर्ता कलाकार हैं ।वह अपने साहित्य को आन्दोलन मानता है। बाबा साहेब अम्बेडकर के विचारों से दलितों को अपनी गुलामी का अहसास हुआ। उसकी वेदना को वाणी मिली। दलितों की वेदना ही दलित साहित्य की जन्मदात्री है। दलित साहित्य की वेदना मैं की वेदना नहीं है। वह बहिष्कृत समाज की वेदना है, इसलिए इस वेदना का स्वरूप सामाजिक है।"

दलित साहित्य का यथार्थ अलग है। इस यथार्थ की भाषा अलग है। यह शिष्ट संकेतों और व्याकरण से विहीन भाषा है। दलित लेखकों ने अपने लेखन के लिए प्रमाणिक भाषा नहीं बल्कि बोली का प्रयोग किया है। क्योंकि अपने अनुभव को अपनी मातृभाषा में बिना प्रयास के अधिक तीव्रता से व्यक्त किया जा सकता है। दलित साहित्य में अत्यधिक आक्रोश दिखाई पड़ता है और यह नकारवादी है। इस लेखन में आन्दोलन के प्रति आग्रह है, इसमें निर्लिप्तता एवं तटस्थता नहीं है। इसलिए दलित लेखक की प्रतिक्रिया क्रोधपूर्ण होती है। उसके लेखन में आग्रह और अभिनिवेश होता है। दलित साहित्य ने अपने प्रवाह और विशिष्टता से मराठी साहित्य को समृद्ध किया है। नये अनुभव, नया विश्वास, नये शब्द, नया नायक, नयी दृष्टि और वेदना-विद्रोह का नया रसायन दिया है। इतना ही नहीं, उसने मराठी साहित्य को आत्मनिरीक्षण के लिए प्रेरणा दी है।

अपने लेखन के नाते खासे विवाद के केन्द्र रहे मुद्रा राक्षस से जब दलित विमर्श पर बात आरम्भ कहीं गयी तो बोले, "कल राकेश का एक प्ले हुआ। नयी आर्थिक नीति पर। यह प्ले जिस शिल्प में हुआ वह शास्त्रीय परम्परा का नहीं है। वह तो दलित परम्परा का ही नाटक है।शिल्प है। जैसे हबीब तनवीर कहते हैं। साहित्य का जो वर्तमान रूप है, वह ठहरा हुआ है। यानी 35 वर्ष से कविताएँ, कहानियाँ वैसी ही हैं जैसी 35 वर्ष पहले लिखी जा रही थी, जाहिर है कि दूसरे क्षेत्रों में जब परितर्वन हो चुका है तो साहित्य में शिल्प एवं कथ्यगत वैसा परिवर्तन हो जाना चाहिए। जैसा कला और नाटक के क्षेत्र में हुआ है। नाटकों ने शत-प्रतिशत दलित आदिवासी मुहावरा अपनाया। वैसे ही साहित्य को भी शत-प्रतिशत दलित मुहावरा अपनाना पड़ेगा, नहीं तो ठहराव समाप्त नहीं होगा। परिवर्तन नहीं आयेगा। यानि आने वाले समाज के साहित्य को दलित और आदिवासी समाज का प्रतिबिंब बनना पड़ेगा। यह थोड़ा कठिन काम जरूर है । लेकिन करना तो पड़ेगा ही। कठिनाई तो यह कि शिक्षा तंत्र में सर्वत्र सवर्ण हैं।अधिकांश आलोचक भी इसी वर्ग के ही हैं। इसीलिए पाठ्क्रमों में लगने वाली पुस्तकें वे बदलना नहीं चाहते हैं। लेकिन जब तक साहित्य की जड़ता नहीं टूटेगी, तब तक साहित्य का नया अध्याय नहीं शुरू होगा।

लखनऊ विश्वविद्यालय के हिन्दी के विभागध्यक्ष एवं क्रियात्मक हिन्दी के क्षेत्र में कार्य करने वाले डा. सूर्य प्रसाद दीक्षित का मानना है, "कुल मिलाकर दलित साहित्य एक समसमायिक नारा है। वैसे तो नारे का समर्थन ही करना चाहिए।परन्तु मन यह कहता है कि हिन्दी साहित्य के परिप्रेक्ष्य में दलित साहित्य जैसी किसी धारणा का पृथक अस्तित्व नहीं होना चाहिए। क्योंकि हिन्दी का अधिकांश साहित्य कहीं न कहीं जन चेतना से प्रेरित है। यह अभिजात्य एव इलिट की भाषा तो नहीं रही है। हमारे भक्ति काव्य के अधिकतर कवि अंतज और शोषित परम्परा के रहे हैं।" गोस्वामी तुलसीदास जी को सवर्णों का प्रतीक माना जाता है। उन्होंने भी जन साधारण की पीड़ा को बेहद मार्मिक ढंग से चित्रित किया है-

दारिद दसानन दबाये दुखी दीन बन्धु,

दुरित दहन देखि तुलसी हहकोरी

भगवान राम को तुलसी ने याद दिलाया कि दलित दरिद्र रूपी रावण ने पूरी दुनिया को दबोच लिया है। हे दीन बन्धु ! इस रावण को भी मारो। हिन्दी साहित्य में भारतेन्दु और प्रसाद को छोड़कर सभी कवि जन साधारण के बीच के रहे हैं। रीतिकाल के एक -डेढ़ वर्षों को छोड़ दिया जाए तो हिन्दी साहित्य का लेखक मानवता से प्रेरित है। निराला में तो स्थिति यहां तक पहुंच गयी है कि उनकी कथनी और करनी के दोनों में दलित बोध हैं। निराला 'तुलसीदास' नामक काव्य में भारतीय नरेशों के पराजय के कारण को चित्रित करते हुए कहते हैं,"यह पराजय दलित वर्ग के कमजोर होने के कारण हुई।" प्रेमचन्द्र और निराला ने लघु मानव को नायक बनाया। निराला के 'चतुरी चमार' की हालत यह है कि निराला इसका गुण गिनाते हुए कहते हैं-"चतुर्वेदियों से भी ज्यादा चतुरी चमार शब्द साहित्य एवं दर्शन का बड़ा विद्वान है।" नागार्जुन की 'हरिजन गाथा', धूमिल कि 'मोचीराम' रचनाएं दलित साहित्य की प्रतिनिधि हैं। 1936 में जब लखनऊ में जनवादी लेखक संघ का सम्मेलन हुआ था और प्रगतिशील साहित्य प्रभाव में आया तो मुंशी प्रेमचन्द्र ने साफ शब्दों में कहा था कि साहित्य में प्रगतिशील लगाने का क्या औचित्य है? अगर प्रगतिशील स्कूल अलग बनाया गया तो बाकी साहित्य इतर हो जाएगा। यह बात दलित साहित्य के सन्दर्भ में भी लागू होती है। मराठी साहित्य में कहा गया है कि दलितों द्वारा दलितों के प्रति लिखा गया साहित्य ही दलित साहित्य है। डा. दीक्षित राज्य सरकार की ओर से जारी एक परिपत्र का हवाला देते हुए कहते हैं कि गिरिराज किशोर की परिशिष्ट, डॉ. एन. सिंह का कविता संकलन 'दर्द के दस्तावेज', कहानी संकलन 'काले हाशिये' और 'कठौती में गंगा' किताबों को पाठयक्रम में शामिल करने के लिए निर्देश जारी किये गये थे। इनमें पाठ्यक्रम के लायक कोई पुस्तक नहीं पायी गयी। अगर दलित साहित्य जैसे आन्दोलन सफल हुए तो जातियों के साहित्य का दौर चल निकलेगा।

दलित साहित्य की शुरू से ही रही है अलग धारा

दलित लिबरेशन फ्रंट पत्रिका से जुड़े हुए सहित्यकार एस.आर. दारापुरी का कहना है कि दलित साहित्य की शुरू से ही अलग धारा रही है। इस वर्ग के लेखक संतों के रूप में अपना नजरिया पेश करते आये, जिसे पहले दबाया गया, नजर अंदाज किया गया। चूंकि सवर्ण साहित्य डोमिनेट करता है, इसलिए दलित साहित्य की बात करने में शोर मचाया जा रहा है, जबकि दलित वर्ग बराबर लोकगीतों, दोहों के माध्यम से अपनी बात कहता रहा है। दारापुरी का मानना है कि साहित्य की सामान्य धारा में दलित आक्रोश की अभिव्यक्ति नही होती है। महज दयाभाव होता है । वह सहज साहित्य क्रांति की बात नहीं करता और मूलभूत परिवर्तन की बात भी नहीं करता। मुंशी प्रेमचन्द्र ने भी दलित पात्रों के माध्यम से क्रान्ति या परितर्वन की बात नहीं उठायी है। दैन्य स्थिति को चित्रित किया है। आज व्यवस्था बदलने की बात दलित साहित्य में उभर कर आ रही है। दलित साहित्य में भोगे हुए यथार्थ की अभिव्यक्ति है। यथार्थ को बदलने की की छटपटाहट है।अदम गोंडवी की कविता 'चमारों की गली'। इसमें कई ठाकुर मारे गये, कई दलितों के घर जलाये गये। वाल्मीकि की 'जूठन' आदि दलित साहित्य की संवेदना हैं। पंजाब में गुरदास आलम । भगवान दास की 'मैं भंगी हूँ'का कई भाषाओं में अनुवाद हो चुका है।

दलित साहित्यकार छेदी लाल साथी बताते हैं कि 'वर्ण व्यवस्था के आधार पर हजारों साल से जो मनोवृत्ति बनी है वह दलित साहित्य के उभार को रोकना चाहती है। वे डा. अम्बेडकर के जीवन की एक घटना का उल्लेख करते हुए कहते हैं, पांच साल की उम्र के जब अम्बेडकर थे तो नाई ने उसका बाल काटने से मना कर दिया था। इतना ही नहीं, पूना पैकट में दस साल के अन्दर छुआछूत समस्या को दूर करने के लिए कहा गया था । लेकिन यह करने की जगह गांधी जी अम्बेडकर की मुखालफत करने के लिए कहने लगे,"दलित साहित्य के लिए बगावत तो करनी ही पड़ेगी। लेकिन शेड्यूल कास्ट के आदमी को अन्य वर्ग के प्रगतिशील लोगों के साथ लेना ही पड़ेगा।बिना उनके कुछ सम्भव नहीं है।" ये कांशीराम को दलित मूवमेन्ट का पक्षधर नहीं मानते हैं। इन्होंने कहा कि सड़क पर दस आदमी एक आदमी को पीट रहे थे। लोग पूछ रहे थे क्यों पीटते हो , डा. अम्बेडकर ने पहली दफा पीटने वाले से यह पूछा-तुम क्यों पीट रहे हो। दलित साहित्य भी ऐसे ही सवाल उठा रहा है, इसलिए उसे विरोध झेलना ही पड़ेगा।

जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के डॉ. तुलसीराम दलित साहित्य लेखन को दो भागों में बांटकर देखते हैं। एक वह जो गैर दलित साहित्यकारों द्वारा लिखा गया है। दूसरा स्वयं दलितों द्वारा लिखा गया। इनका मानना है कि वेद, पुराण, महाभारत, गीता, कौटिल्य का अर्थशास्त्र, याज्ञवल्यक स्मृति, मनुस्मृति, रामायण , रामचरित मानस, कुमारिल भट्ट का श्लोकवार्तिका, तेजवर्तिका तथा शंकराचार्य का ब्रह्मसूत्र भाष्य सभी दलित विरोधी साहित्य हैं। इनका मूल आधार वर्ण व्यवस्था है। ये दलित साहित्य के दार्शनिक और वैचारिक आधार के स्रोत गौतम बुद्ध को मानते हैं। बुद्ध-निर्वाण के करीब 600 के बाद 'बुद्ध चरित' ग्रन्थ के रचनाकर अश्वघोष पहले संस्कृत कवि थे, जिन्होंने वर्ण व्यवस्था पर आक्रमण करते हुए 'वज्र सूची' नामक काव्य ग्रन्थ लिखा। डा. तुलसीराम 'वज्र सूची' को दलित साहित्य की रचना मानते हैं। ये सन्त कवियों की भूमिका को ब्राह्मणवाद मज़बूत करने वाली बताती है।डा. तुलसीराम आधुनिक दलित साहित्य का जनक डा. अम्बेडकर को मानते हुए कहते हैं, "यद्यपि डा. अम्बेडकर कोई कवि या उपन्यासकार नहीं थे, किन्तु बुद्ध के बाद वह पहले व्यक्ति थे, जिन्होंने वर्ण व्यवस्था को समूल उखाड़ फेंकने के लिए अपना सम्पूर्ण जीवन लगा दिया। वह बताते हैं कि गैर दलित लेखक भी दलित साहित्य लिख सकता है । परन्तु उसे हिन्दू धर्म छोड़ना होगा। यदि कोई गैर दलित गौतमबुद्ध की परम्परा में अश्वघोष बनकर आता है तो वह निश्चित रूप से दलित साहित्यकार बन सकता है, न कि कुमारिल भट्ट और शंकराचार्य की परम्परा का।" डा. तुलसीराम इस सन्दर्भ में एक वाक़ये का जिक्र करना प्रासंगिक समझते हैं- दक्षिण भारत में एक दलित ने सन् 1930 में डा. अम्बेडकर को पत्र लिखकर पूछा कि क्या दलितों को गांधी जी के नेतृत्व वाले मंदिर प्रवेश आन्दोलन में हिस्सा लेना चाहिए? इस पर डॉ. अम्बेडकर ने जवाब दिया कि दलितों को स्वयं अपना नेतृत्व विकसित करना चाहिए। डॉ. अम्बेडकर की यह बात दलित साहित्य पर भी लागू होती है। दलित साहित्य का नेतृत्व निश्चित रूप से दलितों के हाथों होना चाहिए। वरना वह अपना असली स्वरूप खो बैठेगा।

भारतीय दलित साहित्य के अध्यक्ष डा. सोहनलाल सुमनाक्षर का कहना है कि जो साहित्य दलितोत्थान के लिए लिखा जा रहा है, वह दलित साहित्य है। इसलिए हिन्दी का दलित साहित्य मराठी से अलग है। वे दलितों द्वारा लिखे साहित्य को दलित साहित्य मानते हैं, जबकि हमारी दृष्टि में हिंदी के जिन ग़ैर दलित लेखकों ने दलित समाज को लेकर रचना की, वह भी दलित साहित्य का अंग है। जिस प्रकार संत साहित्य की अपनी एक धारा रहीं है । उसी तरह डा. अम्बेडकर के प्रभाव में लिखी जाने वाली रचनाओं की भी अपनी एक अलग धारा हैं । मार्क्सवादी विचारधारा ने एक साहित्य को एक हद तक प्रभावित किया है। दलित साहित्य हिन्दी साहित्य के विकास की एक धारा नहीं है। जो ऐसा मानते हैं वे गलत हैं। दलित साहित्य की अपनी एक सोच है तथा वह दलितों के जीवन की सच्चाई को बिना किसी पूर्वाग्रह की भावना से व्यक्त करना चाहती है। दलित साहित्यकार किसी के सुने -सुनाये पर विश्वास नहीं करते। वे साहित्य में परिवर्तन चाहते हैं। इससे समाज भी बदलेगा और उसे एक नयी दिशा मिलेगी। छन्द, अलंकार और भाषा सौष्ठव में दलित साहित्यकारों का विश्वास नहीं है। दलित साहित्यकार जोर अभी सबसे अधिक अभिव्यक्ति पर है।दलित समाज श्रम की संस्कृति पर विश्वास करता है, इसके महत्व को दलित साहित्यकार समझते हैं । अगर हिन्दी साहित्य ने इनसे कुछ लेने की प्रेरणा ली तो उसमें जो ठहराव आ गया है वह खत्म जो जाएगा तथा उसे एक नयी ऊर्जा भी मिलेगी।

कहानीकार कामतानाथ साहित्य को बांटने से असहमत हैं। वह कहते हैं किसी वर्ग का साहित्य नहीं हो सकता है।यह सम्भव है कि आम साहित्य में किसी वर्ग विशेष की अभिव्यक्ति न हुए हो-मजदूर आंदोलनों और ब्यूरोक्रेसी के कार्य प्रणाली पर प्रभावी साहित्य नहीं लिखे गये हैं। दलित साहित्य की बात करने वालों को यह तय करना चाहिए कि दलित साहित्य मात्र दलितों द्वारा लिखा गया साहित्य है और /या दलितों की अभिव्यक्ति को प्रतिनिधित्व देने वाला साहित्य। अगर दलितों की अभिव्यक्ति का सवाल है तो प्रेमचंद , निराला की कई रचनाएं और पूरा का पूरा प्रगतिशील साहित्य आज के दलित साहित्य की जरूरत को पूरा करता है। लेकिन दलितों द्वारा लिखे जाने के कारण साहित्य को कण्डम नहीं किया जाना चाहिए। कामतानाथ कहना है कि भोगे गये यथार्थ को ही दलित साहित्य माना गया है तो ऐसा कहने वालों को नयी कहानी आन्दोलन से प्रेरणा लेनी चाहिए। भोगवाद यानि भोगे हुए यथार्थ की बात सबसे पहले कमलेश्वर ने नयी कहानी के सन्दर्भ में उठायी थी। बाद में कमलेश्वर को अपनी इस गलती की अहसास हुआ और उन्होंने इसे सुधारा । वह मानते है कि सच्चा साहित्य वही है जो प्री-दलित हो। आज दलित साहित्य का सवाल टकराव की आशंका जता रहा है।

मोहनदास नैमिशराय कहते हैं कि हमारे हिन्दी लेखक एक तरफ तो मानवता, दया, प्रेम, शांति की बाते करते हैं। दूसरी तरफ़ छूआछूत भी मानते हैं। दलितों की आत्मा-परमात्मा, स्वर्ण-नर्क, पाप-पुण्य, पुनर्जन्म, जात-पात, ऊंच-नीच के जाल में फंसाकर गुलाम या दास ही रहने का जितना प्रयास हिन्दी के सवर्ण लेखको-साहित्यकारों ने किया, शायद ही और किसी ने किया हो। पिछले दो-तीन वर्षों साहित्य की अवधारणा और प्रेमचन्द पर बहस हो रही है। प्रेमचन्द की दलित साहित्य शुरूआत करने वाला तक बताया-लिखा जाता रहा है। पर, दलित लेखकों के अनुसार तो प्रेमचन्द दलित विरोधी ही साबित हुए हैं। विश्लेषण करने का अधिकार तो स्वयं दलितों को होना चाहिए। यह तो नहीं की सवर्ण लेखक-कथाकार-समीक्षक-आलोचक चाहे जिसे दलित चेतना का साहित्यकार बना दे। सवर्ण लेखक-साहित्यकार ऐसा षड़यंत्र करने में जुट हुए हैं। उन्होंने घोषित करन दिया है कि अमुक-अमुक लेखक दलित चेतना के प्रथम कवि उपन्यासकार-कहानीकार हैं। आश्चर्य की बात यह है कि उनमें काई दलित समाज से न था। किसी के पास भी वैसे भोगे हुए कड़वे अनुभव नहीं थे। सवर्णों के पास तो कोरी कल्पनाएँ हैं। जबकि दलितों के पास समूचा इतिहास है, भोगे हुए अनुभव तथा पीड़ा से उपजे आक्रोश की विरासत है।जब वह विरासत आगे बढ़ेगी, तब दलित साहित्य का सूरज साहित्य के आकाश पर अपनी किरणों के साथ फैल जाएगा । जिसकी रोशनी से परम्परावादी लेखकों की आँखें चुंधिया जाएंगी। उस समय इनके सामने दलित साहित्य को स्वीकारने के अलावा कोई अन्य विकल्प नहीं बनेगा। निश्चित ही ऐसी स्थिति में आदमी-आदमी के बीच सही तौर पर सम्वाद होगा।

प्रगतिशील साहित्यकार वीरेन्द्र यादव कहते हैं कि जहाँ भारतीय भाषाओं में दलित चेतना की अभिव्यक्ति सृजनात्मक साहित्य के माध्यम से हुई है, वहाँ हिन्दी में दलित चेतना की ठोस सृजनात्मक अभिव्यक्ति लगभग नदारद है। लेकिन दलित चेतना से दलित सृजनात्मक साहित्य का यह समाज दलित बुद्धिजीवियों को हिन्दी को सम्पूर्ण साहित्यिक सांस्कृतिक परम्परा को कटघरे में खड़ा करने से नहीं रोकता।

प्रेमचन्द, निराला से लेकर आधुनिक हिन्दी साहित्य की जन्मोमुख परम्परा को नकारता हुआ वह हिन्दी साहित्य में सम्पूर्ण विरासत को ब्राह्ममणवाद एवं मनुवाद की भेंट चढ़ा देता है। 'कफन' कहानी को दलित विरोधी नाम देते हुए प्रेमचन्द को सामन्ती मूल्यों एवं वर्ण व्यवस्था का पक्षधर घोषित करता है । तो निराला को ब्राह्मणवाद का पोषक बताते हुए इन विवेचकों की तर्ज पर हवा में तलवार भांजता हुआ काल्पनिक मनुवादियों की तलाश में निकल पड़ते। जिस साहित्य में प्रेमचन्द आर निराला सरीखे दलितो, पीड़ितों के प्रमुख एवं पक्षधर रहे हैं, वहां दलित साहित्य की पक्षधरता के नाम पर किसी साहित्येतर प्रेरणा की कोई आवश्यकता नहीं है। साहित्य एवं संस्कृति के क्षेत्र में दलितों को, दलितो के लिए, दलितों द्वारा का नारा एक संकीर्ण आत्मघाती प्रवृत्ति का ही परिचायक है । जो संस्कृति के क्षेत्र में शत्रु-मित्र पहचाने को धुंधलाते हुए दलित सांस्कृतिक अभियान की गति को बाधित करता है।

दस्तावेज पत्रिका के सम्पादक और समीक्षक डा. विश्वनाथ प्रसाद तिवारी का कहना है, हिन्दी में तो दलित साहित्य का आन्दोलन नया है। हिन्दी साहित्य में गैर दलित लेखकों ने बहुत कुछ ऐसा लिखा है जो दलित संवदेना को कड़ी गहराई से व्यक्त करता है। जो यह झगड़ा है कि दलित ही दलित चेतना को व्यक्त कर सकता है। इस पर मेरा विश्वास नहीं है। परकाया प्रवेश रचनाकार की बुनियादी विशेषता है।अगर किसी में परकाया प्रवेश की विशेषता नहीं है तो वह रचनाकार नहीं है। फिर भी अगर दलित लेखकों द्वारा लिखा साहित्य ही दलित साहित्य है, इसे मान लिया जाये तो मृत्यु के बारे में लिखने के लिए मरना पड़ेगा, जेल के बारे में लिखने के लिए जेल जाना पड़ेगा? निराला और प्रेमचन्द ने दलित संवेदना को लेकर जो कुछ लिखा है उसे खारिज नहीं किया जा सकता।दलित अगर अपना भोगा हुआ यथार्थ व्यक्त करना चाहे तो व्यक्त करे। परन्तु अनुभव का दूर तक स्थायी प्रभाव तभी पड़ेगा जब व्यक्त करने वाले में रचनाकार की विशेषता है। सीधे सीधे जो कहा और लिखा जायेगा वह भाषण हो जायेगा।

समीक्षक अध्यापक डा. दूधनाथ सिंह से जब दलित विमर्श के बावत पूछा गया तो बोले, "अरे यार! जस्ट आफ। मैं कुछ और काम कर रहा हूँ । फिर भी मेरा मानना है कि दलित साहित्य के नाम पर अगर कोई चीजें होती हैं तो वह नारे के रूप में होगी। अपनी पहचान बनाने के लिए होगी। जैसे दलितों के बारे में लिखने का अधिकार भी गैर दलितों क्यों नहीं होना चाहिए?

नयी कविता के सशक्त कवि एवं चित्रकार जगदीश गुप्त कहते हैं कि एक साहित्यिक दृष्टि होती हैं। दूसरी राजनीतिक दृष्टि होती है।विभेद साहित्य में नहीं होता। राजनीति में होता है। दलित की बात दलित ही कहे यह संर्कीणता है फिर भी उनका कहना कि हम दलित हैं, हमारी जीवन चर्या में जो समस्याएं प्रत्यक्षः आयी हैं उनके बारे में मै कह सकता हूँ। यह बात तो सही ही है। दलितों के प्रति लेखन व लेखक का नजरिया होना चाहिए।

( मूल रूप से यह लेख 1996 में प्रकाशित हुआ था।)

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Shreya

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