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Lok Sabha Election 2024: 2024 की हैट्रिक गेंद और हिट विकेट होता विपक्ष

Lok Sabha Election 2024: 2024 के चुनाव में ऐसा होता ही नज़र आ रहा है। हैट्रिक गेंद खेलने के लिए राहुल, ममता, नीतीश, केसीआर, स्टालिन, केजरीवाल जैसे स्टार खिलाड़ी तैयार दिखते हैं। लेकिन दिक्कत यह है कि सब के सब कप्तानी के लिए ही तैयार हैं । क्योंकि नज़र सबकी ट्रॉफी पर है।

Yogesh Mishra
Published on: 11 April 2023 6:08 PM GMT (Updated on: 11 April 2023 7:20 PM GMT)

Lok Sabha Election 2024: 2024 के आम चुनाव बस करीब ही हैं। इस बार भी मुकाबला भारतीय जनता पार्टी बनाम अन्य दलों के बीच ही है । जिसमें कांग्रेस मुख्य भूमिका में होगी। सभी पार्टियां और मतदाता इस स्थिति को अच्छी तरह जानते हैं। इसमें किसी को कोई शक शुबहा भी नहीं होना चाहिए। भारतीय जनता पार्टी के लिए 2024 का लोकसभा चुनाव क्रिकेट की हैट्रिक गेंद की जानिब है। दो बार वह विकेट गिरा चुकी है। अब तीसरी बार भी गिरा दिया तो तहलका मच जाएगा और न सिर्फ प्रतिद्वंद्वी टीम तार- तार हो जाएगी बल्कि ट्रॉफी पर मजबूत कब्जा हो जाएगा।

लेकिन हैट्रिक बॉल बहुत कठिन होती है। ज्यादातर मामलों में यह फेल ही साबित हुई है। हां, नया बल्लेबाज ही हड़बड़ा कर उटपटांग खेल जाए तो आउट होना निश्चित है।

2024 के चुनाव में ऐसा होता ही नज़र आ रहा है। हैट्रिक गेंद खेलने के लिए राहुल, ममता, नीतीश, केसीआर, स्टालिन, केजरीवाल जैसे स्टार खिलाड़ी तैयार दिखते हैं। लेकिन दिक्कत यह है कि सब के सब कप्तानी के लिए ही तैयार हैं । क्योंकि नज़र सबकी ट्रॉफी पर है। यही सबसे बड़ी दिक्कत है। जैसा कि अंग्रेजी में कहावत है - ‘टू मेनी कुक्स स्पॉइल द ब्रोथ।’ यानी जब कई खानसामे जुट जाते हैं तो खाना खराब हो ही जाता है।

मुख्य मुकाबला तो कांग्रेस से

स्वाभाविक रूप से भाजपा के सामने एकल पार्टी के रूप में सिर्फ और सिर्फ कांग्रेस ही है। भले ही भाजपा ने कांग्रेस मुक्त भारत का अभियान विगत 9 वर्षों से छेड़ रखा है। लेकिन कांग्रेस खत्म होने की बजाए और ज्यादा दिखाई देने लगी है। कांग्रेस में अब राहुल गांधी सबसे बड़े नेता हैं, इस तथ्य को भाजपा जानती है। दिक्कत यह है कि इस तथ्य को बाकी विपक्षी दल और उनके नेता जानते हुए भी स्वीकार नहीं करना चाहते। ममता, स्टालिन केसीआर, अरविंद केजरीवाल, नीतीश .... इनमें से कोई हैट्रिक गेंद खेल कर ट्रॉफी किसी अन्य - यानी राहुल के हाथ में नहीं जाने देना चाहता।

प्रतिद्वंद्वी खिलाड़ी आपस में इतना उलझे हुए हैं कि वो अपनी हरकतों और खींचतान से भाजपा यानी मोदी को 2024 की ट्रॉफी खुद ही भेंट दे देंगे। भाजपा को पता है कि 2024 आसान नहीं होने वाला है, विपक्षी भी ये जानते हैं । लेकिन क्या करें मजबूर हैं कि जिसकी चांस ज्यादा है वो कप्तान उनको मंजूर नहीं और उनकी खुद की ओवरऑल कप्तानी जनता को मंजूर नहीं।

दो अपवाद

विपक्षी टीम में ओवरऑल कप्तानी के लिए दो ही प्रत्याशी सबसे मजबूत नज़र आते हैं, अपने ट्रैक रिकॉर्ड के चलते। ये हैं - नवीन पटनायक और नीतीश कुमार। इनके इर्दगिर्द न ईडी है, न सीबीआई और न इनकम टैक्स। बेदाग छवि, बेहतरीन परफॉर्मेंस और आम स्वीकार्यता। लेकिन दोनों ही चाह कर भी अपने अपने राज्य छोड़ना नहीं चाहते। नवीन बाबू ने अपने ओडिशा को भुखमरी और गरीबी से खींच कर एक सम्पन्न और अग्रणी राज्य बना दिया है। भारत में खत्म हो रही हॉकी को ओडिशा का गौरव बना दिया है। कालाहांडी को धान का प्रमुख उत्पादक बना दिया है। भुवनेश्वर, पुरी के मंदिर कबके वाराणसी के कॉरिडोर सरीखे बन चुके हैं। काम है, ढिंढोरा नहीं है।
नीतीश बाबू आज भले ही लालू की पार्टी से हाथ मिलाए हुए हैं, दोस्ती है । लेकिन वह जानते हैं कि उन्होंने अगर दिल्ली की ट्रॉफी के चक्कर में बिहार को लालटेन के हवाले कर दिया तो जंगल राज की वापसी होते समय नहीं लगेगा। जिस बिहार को उन्होंने बमुश्किल बचाया है । वह उसी पुरानी गलीच हालात में मुकम्मल हो जाएगा। नीतीश कुमार 22 फरवरी, 2015 से बिहार के मुख्यमंत्री हैं। इससे पहले उन्होंने 2005 से 2014 तक और 2000 में एक छोटी अवधि के लिए कार्यालय संभाला था। उनका काम ही ऐसा है कि उन्हें ‘सुशासन बाबू’ नाम से नवाज़ा गया है।

अब जरा देखते हैं कि कौन कितने पानी में है

कांग्रेस

138 साल की हो चुकी कांग्रेस आज भी भारत की प्रमुख राजनीतिक पार्टी है। आज़ादी से लेकर 2014 तक, 16 आम चुनावों में से कांग्रेस ने 6 में पूर्ण बहुमत जीता है और 4 में सत्तारूढ़ गठबंधन का नेतृत्व किया है। अतः कुल 49 वर्षों तक वह केंद्र सरकार का हिस्सा रही है। ये कम समय नहीं है।

भारत में कांग्रेस के सात प्रधानमंत्री रह चुके हैं; पहले जवाहरलाल नेहरू (1947-1965) थे। बाद में मनमोहन सिंह (2004 - 2014) आखिरी थे। 2014 के आम चुनाव में कांग्रेस ने आज़ादी से अब तक का सबसे ख़राब आम चुनावी प्रदर्शन किया और 543 सदस्यीय लोकसभा में केवल 44 सीट जीती। 2019 के आम चुनावों में भी कांग्रेस को करारी हार का सामना करना पड़ा। 2021 का साल पार्टी के लिए कठिन रहा । क्योंकि किसी भी विधानसभा चुनाव में पार्टी कोई करिश्मा नहीं दिखा सकी।

आप और अरविंद केजरीवाल

बीते दस साल में आप का प्रदर्शन ऐतिहासिक रहा है। दिल्ली में भ्रष्टाचार विरोधी मंच से निकली एक राजनीतिक पार्टी कागजों में एक बड़ी ताकत दिखती है। भाजपा, कांग्रेस, तृणमूल कांग्रेस, राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी, सीपीआई, सीपीआई (एम), बहुजन समाज पार्टी और नेशनल पीपुल्स फ्रंट के साथ अब आप देश की नौवीं राष्ट्रीय पार्टी दिल्ली और पंजाब के अलावा, जहां यह सत्ताधारी पार्टी है, गोवा में आप का वोट शेयर 6.77 फीसदी था।

गुजरात सोने पर सुहागा बन गया और कुल डाले गए वोटों का 13 फीसदी वोट और पर्याप्त सीटें हासिल कीं। इसके पहले दिल्ली नगर निगम चुनाव में आप ने भाजपा को हरा कर शानदार जीत हासिल की है। पार्टी ने पहले ही गुजरात में नगर निकाय चुनावों में सूरत में 27 सीटें जीतकर पैर जमा लिये हैं। मात्र 9 साल पहले अस्तित्व में आई आम आदमी पार्टी की दो राज्यों में सरकार है, एक लोकसभा सीट, 3 राज्यसभा सीट और 156 विधायक हैं। इस रफ्तार से भारत में शायद ही कोई राजनीतिक दल आगे बढ़ा है।

आप की राष्ट्रीय महत्वाकांक्षा नई नहीं है। 2013 में दिल्ली में 28 सीटें जीतने के कुछ महीनों बाद उसने 2014 के लोकसभा चुनाव में 400 सीटों पर चुनाव लड़ने का फैसला किया। उसने चार सीटें जीती थीं - ये सभी पंजाब में थीं। 2024 के लिए आप के पास दिखाने को अपना ट्रैकरिकार्ड भी है। वह लोगों को बता सकती है कि आप जीत सकती है। लेकिन अरविंद केजरीवाल कप्तान मैटेरियल नहीं हैं। टीम के बाकी मेंबर उनको न अपना नेता मानते हैं न मानेंगे। ये बड़ी दिक्कत है।

टीएमसी और ममता

ममता बनर्जी विपक्षी नेतृत्व की सबसे अग्रणी प्लेयर हैं। बंगाल में एक के बाद एक जीत दर्ज करके उन्होंने अपना रुतबा और रसूख बहुत बड़ा कर लिया है। 2021 में ममता के नेतृत्व में पार्टी ने 294 सीटों में से 213 सीटें जीतीं, ये 2016 की तुलना में दो अधिक थीं और पहली बार 2011 में वामपंथी शासन को उखाड़ फेंकने की तुलना में 29 अधिक। ममता 2011 से लगातार बंगाल की मुख्यमंत्री हैं। इसे वह अपने दिल्ली की ख्वाहिश के लिए सबसे बड़ा प्लस पॉइंट समझती हैं। दिक्कत यह है कि बंगाल के बाहर ममता की पार्टी कोई करिश्मा दिखा नहीं सकी है, तमाम विधानसभा चुनाव इसके गवाह हैं।

जहाँ तक विपक्षी एकता की बात है तो पश्चिम बंगाल में हाल ही में हुए उपचुनाव में ममता की पार्टी को झटका लगा था, जहां कांग्रेस ने सीपीएम के समर्थन से टीएमसी को हराकर सागरदिघी विधानसभा सीट जीती। इस हार के बाद ममता बनर्जी ने साफ़ कहा कि उनके उम्मीदवार को हराने के लिए कांग्रेस, सीपीएम और भाजपा की एक साजिश थी। तब उन्होंने 2024 में अकेले या बल्कि लोगों के "गठबंधन" के साथ लड़ने और जीतने की कसम खाई थी। ममता काफी पहले से विपक्षी एकता और उसके नेतृत्व के लिए हाथ पैर मार रही हैं लेकिन बात बन नहीं रही। उन्होंने नीतीश से लेकर नवीन पटनायक तक सबको लामबंद करने की कोशिशें की हुईं हैं।

केसीआर और बीआरएस

के.चंद्रशेखर राव या केसीआर 2 जून, 2014 से तेलंगाना के मुख्यमंत्री हैं। उन्होंने अपनी राष्ट्रीय आकांक्षा कई बार जाहिर की है । इसी क्रम में अपनी पार्टी तेलंगाना राष्ट्र समिति का नाम बदल कर भारत राष्ट्र समिति कर दिया है। केसीआर सिद्धिपेट से विधायक तथा महबूबनगर और करीमनगर से सांसद रह चुके हैं। वे केंद्र में श्रम और नियोजन मंत्री भी रह चुके हैं। उनकी तेलंगाना राष्ट्र समिति कांग्रेस के साथ 2004 में लोकसभा चुनाव लड़ी थी और उसे पांच सीटें मिली। साल 2014 में जब अलग तेलंगाना राज्य बना, तो वो पहले मुख्यमंत्री बने। इस चुनाव में उनकी पार्टी ने 119 में से 63 सीटों पर जीत हासिल की थी।

2018 के अंत में हुए दूसरे विधानसभा चुनाव में उनकी पार्टी ने 88 सीटों पर जीत दर्ज़ की। दोनों चुनाव में कांग्रेस मुख्य विपक्षी पार्टी बन कर उभरी, 2014 में कांग्रेस के पास 21 सीटें थी। वहीं 2018 में कांग्रेस के पास 19 सीटें ही रह गई। 2019 में लोकसभा चुनाव हुए तो राज्य की 17 सीटों में से भाजपा के पास 4 सीटें आई, कांग्रेस के पास 3 सीटें, एआईएमआईएम के खाते में 1सीट. बाक़ी की 9 सीटों पर टीआरएस ने क़ब्ज़ा किया।
कहने को तो केसीआर भाजपा और मोदी के खिलाफ दीखते हैं । लेकिन उनकी पुरानी दोस्ती भी छिपी नहीं है। वो ओडिशा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक की तरह ही मुद्दों पर आधारित समर्थन भाजपा को समय समय पर देते नज़र आए हैं। नोटबंदी और जीएसटी बिल पर उन्होंने केंद्र सरकार का समर्थन किया था। तीन तलाक़ क़ानून पर उनके सांसद वोटिंग से ग़ैर हाज़िर रहे जिससे बिल पास कराने में मोदी सरकार को मदद मिली, पिछले राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति चुनाव में भी उन्होंने बीजेपी का समर्थन किया था, 2019 में अनुच्छेद 370 को हटाने पर भी टीआरएस भाजपा के साथ रही।

डी एम के और स्टालिन

1967 में जब द्रविड़ मुनेत्र कड़गम (डीएमके) ने मद्रास राज्य में विधानसभा चुनाव जीता, तो यह भारत में पहली क्षेत्रीय राजनीतिक पार्टी थी। 1957 में केरल में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के बाद दूसरी गैर-कांग्रेसी पार्टी थी, जो स्वतंत्र रूप से सत्ता में आई थी। इसकी मजबूती क्षेत्रीय तमिल पहचान के विचार को आगे बढ़ाना, सामाजिक न्याय और समाज के सभी वर्गों, विशेष रूप से महिलाओं के सशक्तिकरण के लिए काम करना रहा है। पहली बार सत्ता में आने से लेकर अब तक डीएमके का नेतृत्व केवल तीन व्यक्तियों द्वारा किया गया है: सी.एन. अन्नादुरई, एम. करुणानिधि, और एम.के. स्टालिन। स्टालिन ने अपनी राष्ट्रीय स्तर की महत्वाकांक्षाओं का खुलासा नहीं किया है। लेकिन उन्होंने जीएसटी, राज्यों की वित्तीय स्वायत्तता में कमी और नीट परीक्षा जैसे मुद्दों पर विपक्षी पार्टी के नेताओं को एक मंच पर लाने की कोशिश की है। वैचारिक स्तर पर पिछले साल उन्होंने 37 राजनीतिक दलों के नेताओं को पत्र लिखकर अनुरोध किया कि वे अखिल भारतीय सामाजिक न्याय संघ नामक एक मंच में शामिल हों। अप्रैल 2022 में, डीएमके के दिल्ली कार्यालय का उद्घाटन प्रमुख विपक्षी दल के नेताओं के एक साथ आने का एक मंच बन गया। उस बैठक में, स्टालिन ने विपक्षी दलों से "भारत को बचाने" के लिए एकजुट होने का अनुरोध किया।
पिछले एक साल में, भाजपा के खिलाफ संघर्ष के लिए एक वैचारिक आधार बनाने की कोशिश करते हुए, स्टालिन ने जानबूझकर राष्ट्रीय स्तर पर अपनी भूमिका को बढ़ा चढ़ा कर पेश नहीं किया है। नीतीश और नवीन पटनायक की तरह स्टालिन अपने राज्य में ‘सुशासन’ के लिए जाने जाते हैं। उनकी सरकार को देश में सबसे अच्छा प्रदर्शन करने वालों में से एक के रूप में देखा जाता है।
बहरहाल, हैट्रिक गेंद फेंकी जानी बाकी है लेकिन नतीजा काफी कुछ साफ़ है – कप्तान नदारद है और बल्लेबाज भ्रमित हैं । सो एक कमजोर गेंद भी तीसरा विकेट गिराने को तैयार है। स्टेडियम की जनता भी ये जानती है । लेकिन वो करे भी तो क्या करे, वह तो सिर्फ दूर से देख ही सकती है।
( लेखक पत्रकार हैं । दैनिक पूर्वोदय से साभार ।)

Yogesh Mishra

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