TRENDING TAGS :
Lok Sabha Elections : राजीनीति में वंशवाद अब भी हावी
नई दिल्ली : यह सही है कि कांग्रेस और कुछ अन्य क्षेत्रीय दलों की प्रमुख 'वंशावलियां' २०१९ के लोकसभा चुनावों में धूल चाटने को मजबूर हुई हैं जिनमें अमेठी से राहुल गांधी, पाटलिपुत्र से मीसा भारती, गुना से ज्योतिरादित्य सिंधिया आदि शामिल हैं, लेकिन इसके बावजूद सच्चाई यही है कि इस चुनाव में वंशवाद की बेल और भी लहलहाई है। यहां यह साफ कर देना जरूरी है कि 'वंशावली' का मतलब है क्या। इसका तात्पर्य ऐसे प्रत्याशी या सांसद से है जिसका कोई रिश्तेदार जनप्रतिनिधि रहा हो या वर्तमान में हो। इसके अलावा वो भी इसमें शामिल हैं जिनके संबंधी पार्टी संगठनों में प्रमुख पदों हों या रह चुके हों।
तथ्य तो यह है कि कोई भी दल इस फैक्टर से अछूता नहीं है। अपवाद के रूप में सीपीआई और सीपीएम हैं। ऐसा माना जाता है कि क्षेत्रीय दल परिवारवाद के दम पर चलते हैं, लेकिन वास्तव में राष्ट्रीय दल परिवारवाद से कहीं ज्यादा ग्रसित हैं। इस चुनाव की बात करें तो बिहार में राष्ट्रीय दलों के सबसे ज्यादा ५८ फीसदी वंशवादी प्रत्याशी थे। क्षेत्रीय दलों में इनकी तादाद १४ फीसदी थी। उत्तर प्रदेश में २८ फीसदी व १८ फीसदी का आंकड़ा था।
कांग्रेस में वंशवाद सबसे ज्यादा
पूरे देश पर नजर डालें तो कांग्रेस में यह वाद सबसे ज्यादा दिखाई दिया। इसके ३१ फीसदी प्रत्याशी किसी न किसी राजनीतिक परिवार से जुड़े थे। भाजपा भी बहुत पीछे नहीं रही। इसके २२ फीसदी प्रत्याशी इसी तरह के थे। यह हैरत की बात है क्योंकि भाजपा परिवारवाद को लेकर अपने प्रतिद्वंद्वियों की आलोचना करती आई है। इसके अलावा भाजपा ने १६वीं लोकसभा के अपने २८२ सांसदों में से १०० को इस बार टिकट नहीं दिया था। इसके बावजूद भाजपा में वंशवादी प्रत्याशियों की संख्या इतनी ज्यादा बढ़ गई। इसका कारण संभवत: यह है कि पार्टियां ज्यादा से ज्यादा सीटें जीतने के लिए ऐसे उम्मीदवार उतारती हैं जिनके जीतने की अच्छी खासी संभावना हो। इस संभावना के पैमाने पर अगर वंशवादी प्रत्याशी आते हैं तो उन्हें अवश्य ही टिकट दिया जाता है।
यह भी पढ़ें : आंध्र प्रदेश: CM जगनमोहन रेड्डी ने डीजीपी को पद से हटाने का निर्देश दिया
महिला प्रत्याशी ज्यादा वंशवादी
एक और दिलचस्प बात यह है कि महिला प्रत्याशी पुरुषों की तुलना में ज्यादा वंशवादी होती हैं। राजनीतिक दल अपनी महिला प्रत्याशी राजनीतिक परिवारों के भीतर से ही ढूंढते हैं। इसकी वजह यह है कि राजनीतिक दल अब भी महिला प्रत्याशियों को जोखिम वाला मानते हैं। यही वजह है कि समाजवादी पार्टी, तेलुगु देशम पार्टी, द्रमुक और टीआरएस की समस्त महिला प्रत्याशी राजनीतिक परिवारों की सदस्य थीं। छोटे दलों में तो महिला प्रत्याशी पार्टी नेताओं की सीधे तौर पर संबंधी होती हैं। राजद की तीन महिला प्रत्याशी जेल में बंद पार्टी नेताओं की बीवियां ही थीं।
भाजपा-कांग्रेस दोनों ने रखा ख्याल
भाजपा और कांग्रेस में भी यही बात लागू होती है। इस चुनाव में कांग्रेस द्वारा उतारी गई महिला प्रत्याशियों में ५४ फीसदी तथा भाजपा में ५३ फीसदी राजनीतिक परिवारों की थीं। तृणमूल कांग्रेस ने इस बार रिकार्ड संख्या में महिलाओं को मैदान में उतारा, लेकिन वहां भी राजनीतिक परिवारों का ख्याल रखा गया। टीएमसी की २७ फीसदी महिला प्रत्याशी राजनीतिक परिवारों की थीं।
एक बात यह भी ध्यान देने वाली है कि राजनीतिक वंशावली वाले प्रत्याशी चुनाव नतीजे भी बेहतर देते हैं। भाजपा ने २२ फीसदी ऐसे प्रत्याशी उतारे, लेकिन इसके कुल विजयी सांसदों में २५ फीसदी राजनीतिक वंशावली वाले हैं। कांग्रेस ने ३१ फीसदी ऐसे प्रत्याशी उतारे और उसके कुल सांसदों में ४४ फीसदी यही हैं।