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"लोकमान्य" पुण्यतिथि विशेष : "स्वराज मेरा जन्म सिद्ध अधिकार है ........
लखनऊ: अन्याय के घोर विरोधी, राष्ट्रवादी, समाज को बदल देने की धुन में तिलक ने जो नारा बुलंद किया उसे आज हम सब आजादी के नाम से जानते हैं। "स्वराज मेरा जन्म सिद्ध अधिकार है, और मै इसे लेकर रहूँगा।" इन शब्दों में ऐसा जादू कि भारतीय स्वतन्त्रता आंदोलन की आग जो भड़की कि अंग्रजों के छक्के छूट गए।
बाल गंगाधर तिलक का जन्म 23 जुलाई 1856 को महाराष्ट्र के रत्नागिरी के एक चित्पवन ब्राह्मण कुल में हुआ था। उनके पिता गंगाधर रामचन्द्र तिलक संस्कृत के विद्वान और एक प्रख्यात शिक्षक थे। तिलक एक प्रतिभाशाली विद्यार्थी थे और गणित विषय से उनको खास लगाव था। बचपन से ही वे अन्याय के घोर विरोधी थे और अपनी बात बिना हिचक के साफ़-साफ कह जाते थे। आधुनिक शिक्षा प्राप्त करने वाले पहली पीढ़ी के भारतीय युवाओं में से एक तिलक भी थे।
"लोकमान्य" पुण्यतिथि विशेष : "स्वराज मेरा जन्म सिद्ध अधिकार है, और मै इसे लेकर रहूँगा"
तिलक की शिक्षा पुणे के एंग्लो-वर्नाकुलर स्कूल में हुई। कम उम्र में ही तिलक के उपर से मॉ का साया उठ गया और 16 की उम्र में ही पिता का हाथ सर के ऊपर से उठ गया। मैट्रिकुलेशन में पढ़ाई के दौरान ही जीवन साथी के रूप में उनका विवाह एक 10 वर्षीय कन्या सत्यभामा से करा दिया गया। मैट्रिकुलेशन की परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद उन्होंने डेक्कन कॉलेज में दाखिला लिया। लोकमान्य ने अपनी पढाई जारी रखते हुए एल. एल. बी. डिग्री भी प्राप्त किया।
"लोकमान्य", एक भारतीय राष्ट्रवादी, कुशल संयोजक, शिक्षक, समाज सुधारक, वकील और एक स्वतन्त्रता सेनानी थे। ये भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम के पहले लोकप्रिय नेता हुए जिन्हे ब्रिटिश औपनिवेशिक प्राधिकारी उन्हें "भारतीय अशान्ति के पिता" कहते थे। उन्हें, "लोकमान्य" का आदरणीय शीर्षक भी प्राप्त हुआ।
"लोकमान्य" पुण्यतिथि विशेष : "स्वराज मेरा जन्म सिद्ध अधिकार है, और मै इसे लेकर रहूँगा"
"लोकमान्य" तिलक ब्रिटिश राज के दौरान स्वराज के सबसे पहले और मजबूत अधिवक्ताओं में से एक थे, उन्होंने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के कई नेताओं से गहरी मित्रता हुई, जिनमें बिपिन चन्द्र पाल, लाला लाजपत राय, अरविन्द घोष, वी० ओ० चिदम्बरम पिल्लै और मुहम्मद अली जिन्नाह शामिल थे।
एक आंदोलनकारी और शिक्षक के साथ-साथ तिलक एक महान समाज सुधारक भी थे। उन्होंने बाल विवाह जैसी कुरीतियों का विरोध किया और इसे प्रतिबंधित करने की मांग की। वे विधवा पुनर्विवाह के प्रबल समर्थक भी थे। तिलक एक कुशल संयोजक भी थे। गणेश उत्सव और शिवाजी के जन्म उत्सव जैसे सामाजिक उत्सवों को प्रतिष्ठित कर उन्होंने लोगों को एक साथ जोड़ने का कार्य भी किया।
सन 1896 में अंग्रेज़ सरकार ने तिलक पर भड़काऊ लेखों के माध्यम से जनता को उकसाने, कानून को तोड़ने और शांति व्यवस्था भंग करने का आरोप लगाया। उन्हें डेढ़ साल की सश्रम कारावास की सजा सुनाई गयी। सजा काटने के बाद तिलक सन 1896 में रिहा हुए और स्वदेशी आंदोलन को शुरू किया। समाचार पत्रों और भाषणों के माध्यम से उन्होंने महाराष्ट्र के गाँव-गाँव तक स्वदेशी आंदोलन का सन्देश पहुँचाया। उनके घर के सामने ही एक ‘स्वदेशी मार्केट’ का आयोजन भी किया गया।
इसी बीच कांग्रेस दो गुटों में विभाजित हो गया – उदारवादी और अतिवादी। तिलक के नेतृत्व वाला अतिवादी गुट गोपाल कृष्ण गोखले के उदारवादी गुट का पुरजोर विरोधी था। अतिवादी स्वराज के पक्ष में थे जबकि उदारवादियों का ये मानना था की स्वराज के लिए अनुकूल वक्त अभी नहीं आया था। इसी वैचारिक मतभेद ने अंततः कांग्रेस को दो हिस्सों में तोड़ दिया।
"लोकमान्य" पुण्यतिथि विशेष : "स्वराज मेरा जन्म सिद्ध अधिकार है, और मै इसे लेकर रहूँगा"
सन 1906 में अंग्रेज़ सरकार ने तिलक को विद्रोह के आरोप में गिरफ्तार किया। सुनवाई के पश्चात उन्हें 6 साल की सजा सुनाई गयी और उन्हें मांडले (बर्मा) जेल ले जाया गया। जेल में उन्होंने अपना अधिकतर समय पाठन-लेखन में बिताया। उन्होंने अपनी प्रसिद्ध पुष्तक ‘गीता रहष्य’ इसी दौरान लिखी। सन में तिलक ने ‘होम रूल लीग’ की स्थापना की जिसका उद्देश्य स्वराज था।