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सौरमंडल के सृजन का पड़ाव मकर संक्रान्ति : 14 एवं 15 जनवरी
यह एक पोर है। एक विंदु है। रेखा का एक छोर है।एक अंत है।एक प्रारम्भ है। यह सृष्टि का सूर्य पर्व है।यह कोटि -कोटि ब्रह्मांडो में से इस पृश्नि ब्रह्माण्ड के द्वितीय मन्वन्तर में वाराहकल्प के कलियुग के काली प्रथम चरण में प्रति वर्ष आने वाला वह पर्व है जो हमें जीवन के सिद्धांतो और उद्देश्यों का स्मरण कराता है।जिस सौ
संजय तिवारी
यह एक पोर है। एक विंदु है। रेखा का एक छोर है।एक अंत है।एक प्रारम्भ है। यह सृष्टि का सूर्य पर्व है।यह कोटि -कोटि ब्रह्मांडो में से इस पृश्नि ब्रह्माण्ड के द्वितीय मन्वन्तर में वाराहकल्प के कलियुग के काली प्रथम चरण में प्रति वर्ष आने वाला वह पर्व है जो हमें जीवन के सिद्धांतो और उद्देश्यों का स्मरण कराता है।जिस सौर मंडल में हम रहते है,उस सौर मंडल के सर्जन का एक पड़ाव है मकर संक्रांति। पर्व शब्द का सामान्य लोक अर्थ प्रचलन में किसी भी उत्सव या त्योहार से जुड़ा है लेकिन यह पर्याप्त नहीं है। पर्व वस्तुतः सृष्टि के पड़ाव का द्योतक है।सृष्टि का कोई भी क्रम जब एक चक्र पूर्ण करता है वही उसका पर्व होता है।
इसी आधार पर सौरमंडल की यात्रा के आधार पर वर्ष की प्रत्येक तिथि पर्व के रूप में आती है। इनमें से वे तिथियां जिनकों लोकमानस या जीवन में किसी अनुष्ठान या उत्सव से जोड़ा गया है ,वे उस उत्सव विशेष के पर्व के रूप में स्थापित है।इस प्रकार मानव जीवन के सभी उत्सव और त्यौहार पर्व के रूप में ही आते है। यह किसी तिथि विशेष के यात्रा का एक पड़ाव है। यह ठीक वैसे ही है जैसे बांस की वृद्धि होती है।एक पोर से दूसरा पोर,फिर तीसरा और इसी तरह वृद्धि का क्रम चलता है और बांस लंबा होता चलता है।मानव जीवन की यात्रा भी इसी प्रकार प्रत्येक पर्व पर आगे बढती रहती है। किसी भी तंत्र में किसी भी संधिस्थल को पर्व ही संज्ञा दी जाती है। यह उत्सव हो सकता है।जीवन हो सकता है। कोई कार्य हो सकता है। ग्रन्थ हो सकता है। शरीर के अंग हो सकते है।
सौरमंडल के सृजन का पड़ाव मकर संक्रान्ति : 14 एवं 15 जनवरी
सृष्टि,सूर्य नारायण और गायत्री मंत्र
वर्तमान सृष्टि,भगवान् सूर्य नारायण और गायत्री मंत्र का आपस में बहुत गहरा सम्बन्ध है।जो गायत्री मंत्र के प्रतिपाद्य देव है वही इस समस्त सृष्टि के भी प्रतिपाद्य देव है। भगवान नारायण ही इन दोनों में विद्यमान है। सूर्य तो रश्मियों का प्रभामंडल भर है।इन रश्मियों के केंद्र में जो विद्यमान है उनको मिलकर ही भगवान् सूर्य नारायण की अवस्थापना है। यही नारायण भगवान् विष्णु है। इसी लिए बाल्मीकि रामायण का प्रारम्भ गायत्री मंत्र के प्रथमाक्षर त से हुआ है तथा बाल्मीकि रामायण के समापन का अक्षर भी त है,क्योंकि गायत्री मंत्र के समापन का अक्षर भी त ही है। अर्थात जो बाल्मीकि रामायण के प्रतिपाद्य देव है वही गायत्री मंत्र के भी प्रतिपाद्य देवता है - अर्थात भगवान् विष्णु। आचार्यो का मत है की गायत्री मंत्र के 24 अक्षरों का विस्तार ही बाल्मीकि रामायण के 24 हज़ार श्लोक हैं। तात्पर्य यह कि गायत्री मंत्र,जिसको वेद माता की संज्ञा भी दी जाती है,यह किसी देवी की स्तुति नहीं है,बल्कि सीधे श्रीमन्नारायण की स्तुति है। इसमे श्री नारायण को ही केंद्रित किया गया है,ऐसा वैदिक आचार्यगण भी स्वीकार करते है।
वास्तविक रूप में जब भी भारतीय पर्व परंपरा सूर्य से जुडती है तो बहुत ही घनिष्ठ सम्बन्ध अपनी श्रुति परम्पपरा यानी वेदों से सम्बन्ध स्थापित होता है। लोक प्रचलन में हम जिस गायत्री मन्त्र को जानते है वह वास्तव में सूर्य का ही मंत्र है। गायत्री मंत्र में - तत्सवितुर्वरेण्यं - में जिस सविता देवता की आराधना हम करते है वह यही सूर्य देवता है।यहाँ किसी गायत्री नाम की देवी भ्रम नहीं रखना चाहिए क्योकि मंत्र में हम - भर्गो देवस्य - की पूजा करते है न कि किसी देवी की। यह सविता देवता यही है जो प्रभामंडल के केंद्र में नारायण के रूप में विद्यमान है जिनको सूर्यनारायण की संज्ञा दी जाती है। यही सूर्य नारायण,यानी नारायण,यानी भगवान् विष्णु है जिनकी आराधना गायत्री मंत्र के माध्यम से की जाती है। इसी नारायण से यह सृष्टि है,और संक्रांति इसी सृष्टि का एक पर्व यानी यात्रा का एक पड़ाव होता है।आचार्य श्री जगद्गुरु राघवाचार्य जी महाराज ने भी गायत्री मंत्र और बाल्मीकि रामायण के अंतरसंबंधों पर बहुत ही विस्तृत व्याख्या दी है।
खिचड़ी या मकर संक्रांति से बिलकुल नयी शुरुआत होती है सृष्टि की। इस दिन से सूर्य उत्तरायण होता है,जब उत्तरी गोलार्ध सूर्य की ओर मुड़ जाता है। परम्परा से यह विश्वास किया जाता है कि इसी दिन सूर्य मकर राशि में प्रवेश करता है।यह वैदिक उत्सव है। इस दिन खिचड़ी का भोग लगाया जाता है। गुड़–तिल, रेवड़ी, गजक का प्रसाद बाँटा जाता है। इस त्यौहार का सम्बन्ध प्रकृति, ऋतु परिवर्तन और कृषि से है। ये तीनों चीज़ें ही जीवन का आधार हैं। प्रकृति के कारक के तौर पर इस पर्व में सूर्य देव को पूजा जाता है, जिन्हें शास्त्रों में भौतिक एवं अभौतिक तत्वों की आत्मा कहा गया है। इन्हीं की स्थिति के अनुसार ऋतु परिवर्तन होता है और धरती अनाज उत्पन्न करती है, जिससे जीव समुदाय का भरण-पोषण होता है।
यह एक अति महत्त्वपूर्ण धार्मिक कृत्य एवं उत्सव है। लगभग 80 वर्ष पूर्व उन दिनों के पंचांगों के अनुसार, यह 12वीं या 13वीं जनवरी को पड़ती थी, किंतु अब विषुवतों के अग्रगमन (अयनचलन) के कारण 13वीं या 14वीं जनवरी को पड़ा करती है। इस साल भी ज्योतिषों में मतभेद नजर आ रहा है। कुछ मकर संक्रांति 14 तो कुछ 15 जनवरी को मनाने की बात कह रहे है। लेकिन इसमें उलझन की कोई बात नहीं। इस केवल खगोलीय गणना के चलते हो रहा है जो बिलकुल सटीक भी है।
इस गणना के अनुसार हर साल सूर्य के धनु से मकर राशि में प्रवेश करने का समय करीब 20 मिनट बढ़ जाता है। इतिहास में ऐसा उल्लेख मिलता है कि मुगल काल में अकबर के शासन काल के दौरान मकर संक्रांति 10 जनवरी को मनाई जाती थी।उस समय से अब तक इसमें चार दिन का अंतर आ चुका है। अब सूर्य के मकर राशि में प्रवेश का समय 14 और 15 के बीच में होने लगा, इसके पीछे संक्रमण काल का होना है।
साल 2012 में सूर्य का मकर राशि में प्रवेश 15 जनवरी को हुआ था, इसलिए मकर सक्रांति का त्योहार इस दिन मनाया गया। आने वाले कुछ वर्षों में मकर संक्रांति हर साल 15 जनवरी को ही मनाई जाएगी, ऐसी ज्योतिष गणना कहती है। करीब 5000 साल बाद मकर संक्रांति फरवरी के अंतिम सप्ताह में मनाई जाने लगेगी। ज्योतिषीय गणना के अनुसार, इस साल सूर्य का मकर राशि में प्रवेश 14 जनवरी को दोपहर 1 बजकर 45 मिनट पर होगा।
इस दिन भगवान सूर्य की पूजा करने का विशेष विधान है। सनातन शास्त्रों के अनुसार मकर संक्रांति से देवताओं का दिन आरंभ होता है जो कि आषाढ़ मास तक रहता है। इसी दिन सूर्य धनु राशि को छोड़ मकर राशि में प्रवेश करता है। मकर संक्रान्ति के दिन से ही सूर्य की उत्तरायण गति भी प्रारम्भ होती है। तमिलनाडु में इसे पोंगल नामक उत्सव के रूप में मनाते हैं। जबकि उत्तर भारत में यह खिचड़ी के रूप में मनाया जाता है।
इस पर्व की एक कथा गुरु गोरक्षनाथ और माता ज्वालादेवी से भी जुडी है। इस दिन गोरखपुर स्थित गोरखनाथ मंदिर में प्रथम खिचड़ी नेपाल के महाराजा की तरफ से चढ़ाई जाती है। ऐसा परंपरा रूप में सैकड़ो वर्षो से होता आ रहा है। ब्राह्मण एवं औपनिषदिक ग्रंथों में उत्तरायण के छ: मासों का उल्लेख है में 'अयन' शब्द आया है, जिसका अर्थ है 'मार्ग' या 'स्थल। गृह्यसूत्रों में 'उदगयन' उत्तरायण का ही द्योतक है जहाँ स्पष्ट रूप से उत्तरायण आदि कालों में संस्कारों के करने की विधि वर्णित है। किंतु प्राचीन श्रौत, गृह्य एवं धर्म सूत्रों में राशियों का उल्लेख नहीं है, उनमें केवल नक्षत्रों के संबंध में कालों का उल्लेख है।
याज्ञवल्क्यस्मृति में भी राशियों का उल्लेख नहीं है, जैसा कि विश्वरूप की टीका से प्रकट है। 'उदगयन' बहुत शताब्दियों पूर्व से शुभ काल माना जाता रहा है, अत: मकर संक्रान्ति, जिससे सूर्य की उत्तरायण गति आरम्भ होती है, राशियों के चलन के उपरान्त पवित्र दिन मानी जाने लगी। मकर संक्रान्ति पर तिल को इतनी महत्ता क्यों प्राप्त हुई, कहना कठिन है। सम्भवत: मकर संक्रान्ति के समय जाड़ा होने के कारण तिल जैसे पदार्थों का प्रयोग सम्भव है।
सौरमंडल के सृजन का पड़ाव मकर संक्रान्ति : 14 एवं 15 जनवरी
संक्रांति का अर्थ
'संक्रान्ति' का अर्थ है सूर्य का एक राशि से दूसरी राशि में जाना, अत: वह राशि जिसमें सूर्य प्रवेश करता है, संक्रान्ति की संज्ञा से विख्यात है। राशियाँ बारह हैं, यथा मेष, वृषभ, मिथुन, कर्क, सिंह, कन्या, तुला, वृश्चिक , धनु, मकर, कुम्भ, मीन। मलमास पड़ जाने पर भी वर्ष में केवल 12 राशियाँ होती हैं। प्रत्येक संक्रान्ति पवित्र दिन के रूप में ग्राह्य है। मत्स्यपुराण ने संक्रान्ति व्रत का वर्णन किया है। एक दिन पूर्व व्यक्ति (नारी या पुरुष) को केवल एक बार मध्याह्न में भोजन करना चाहिए और संक्रान्ति के दिन दाँतों को स्वच्छ करके तिल युक्त जल से स्नान करना चाहिए।
व्यक्ति को चाहिए कि वह किसी संयमी ब्राह्मण गृहस्थ को भोजन सामग्रियों से युक्त तीन पात्र तथा एक गाययम, रुद्र एवं धर्म के नाम पर दे और चार श्लोकों को पढ़े, जिनमें से एक यह है- 'यथा भेदं' न पश्यामि शिवविष्ण्वर्कपद्मजान्। तथा ममास्तु विश्वात्मा शंकर:शंकर: सदा।।, अर्थात् 'मैं शिव एवं विष्णु तथा सूर्य एवं ब्रह्मा में अन्तर नहीं करता, वह शंकर, जो विश्वात्मा है, सदा कल्याण करने वाला है। दूसरे शंकर शब्द का अर्थ है- शं कल्याणं करोति। यदि हो सके तो व्यक्ति को चाहिए कि वह ब्राह्मण को आभूषणों, पर्यंक, स्वर्णपात्रों (दो) का दान करे।
यदि वह दरिद्र हो तो ब्राह्मण को केवल फल दे। इसके उपरान्त उसे तैल-विहीन भोजन करना चाहिए और यथा शक्ति अन्य लोगों को भोजन देना चाहिए। स्त्रियों को भी यह व्रत करना चाहिए। संक्रान्ति, ग्रहण, अमावस्या एवं पूर्णिमा पर गंगा स्नान महापुण्यदायक माना गया है और ऐसा करने पर व्यक्ति ब्रह्मलोक को प्राप्त करता है। प्रत्येक संक्रान्ति पर सामान्य जल (गर्म नहीं किया हुआ) से स्नान करना नित्यकर्म कहा जाता है, जैसा कि देवीपुराण में घोषित है- 'जो व्यक्ति संक्रान्ति के पवित्र दिन पर स्नान नहीं करता वह सात जन्मों तक रोगी एवं निर्धन रहेगा; संक्रान्ति पर जो भी देवों को हव्य एवं पितरों को कव्य दिया जाता है, वह सूर्य द्वारा भविष्य के जन्मों में लौटा दिया जाता है।
पुण्यकाल
प्राचीन ग्रंथ में ऐसा लिखित है कि केवल सूर्य का किसी राशि में प्रवेश मात्र ही पुनीतता का द्योतक नहीं है, प्रत्युत सभी ग्रहों का अन्य नक्षत्र या राशि में प्रवेश पुण्यकाल माना जाता है। हेमाद्रि एवं काल निर्णय ने क्रम से जैमिनि एवं ज्योति:शास्त्र से उद्धरण देकर सूर्य एवं ग्रहों की संक्रान्ति का पुण्यकाल को घोषित किया है- 'सूर्य के विषय में संक्रान्ति के पूर्व या पश्चात् 16 घटिकाओं का समय पुण्य समय है; चन्द्र के विषय में दोनों ओर एक घटी 13 फल पुण्यकाल है; मंगल के लिए 4 घटिकाएँ एवं एक पल; बुध के लिए 3 घटिकाएँ एवं 14 पल, बृहस्पति के लिए चार घटिकाएँ एवं 37 पल, शुक्र के लिए 4 घटिकाएँ एवं एक पल तथा शनि के लिए 82 घटिकाएँ एवं 7 पल।
सूर्य जब एक राशि छोड़कर दूसरी में प्रवेश करता है तो उस काल का यथावत् ज्ञान हमारी माँसल आँखों से सम्भव नहीं है, अत: संक्रान्ति की 30 घटिकाएँ इधर या उधर के काल का द्योतन करती हैं। सूर्य का दूसरी राशि में प्रवेश काल इतना कम होता है कि उसमें संक्रान्ति कृत्यों का सम्पादन असम्भव है, अत: इसकी सन्निधि का काल उचित ठहराया गया है। देवीपुराण में संक्रान्ति काल की लघुता का उल्लेख यों है- 'स्वस्थ एवं सुखी मनुष्य जब एक बार पलक गिराता है तो उसका तीसवाँ काल 'तत्पर' कहलाता है, तत्पर का सौवाँ भाग 'त्रुटि' कहा जाता है तथा त्रुटि के सौवें भाग में सूर्य का दूसरी राशि में प्रवेश होता है। सामान्य नियम यह है कि वास्तविक काल के जितने ही समीप कृत्य हो वह उतना ही पुनीत माना जाता है।' इसी से संक्रान्तियों में पुण्यतम काल सात प्रकार के माने गये हैं- 3, 4, 5, 7, 8, 9 या 12 घटिकाएँ। इन्हीं अवधियों में वास्तविक फल प्राप्ति होती है। यदि कोई इन अवधियों के भीतर प्रतिपादित कृत्य न कर सके तो उसके लिए अधिकतम काल सीमाएँ 30 घटिकाओं की होती हैं; किंतु ये पुण्यकाल-अवधियाँ षडशीति एवं विष्णुपदी को छोड़कर अन्य सभी संक्रान्तियों के लिए है।'
आज के ज्योतिष शास्त्र के अनुसार जाड़े का अयन काल 21 दिसम्बर को होता है और उसी दिन से सूर्य उत्तरायण होते हैं। किंतु भारत में वे लोग, जो प्राचीन पद्धतियों के अनुसार रचे पंचांगों का सहारा लेते हैं, उत्तरायण का आरम्भ 14 जनवरी से मानते हैं। वे इस प्रकार उपयुक्त मकर संक्रान्ति से 23 दिन पीछे हैं। मध्यकाल के धर्मशास्त्र ग्रंथों में यह बात उल्लिखित है, यथा हेमाद्रि ने कहा है कि प्रचलित संक्रान्ति से 12 दिन पूर्व ही पुण्यकाल पड़ता है, अत: प्रतिपादित दान आदि कृत्य प्रचलित संक्रान्ति दिन के 12 दिन पूर्व भी किये जा सकते हैं।
पुण्यकाल के नियम
संक्रान्ति के पुण्यकाल के विषय में सामान्य नियम के प्रश्न पर कई मत हैं। शातातप, जाबाल एवं मरीचि ने संक्रान्ति के धार्मिक कृत्यों के लिए संक्रान्ति के पूर्व एवं उपरान्त 16 घटिकाओं का पुण्यकाल प्रतिपादित किया है; किंतु देवीपुराण एवं वसिष्ठ ने 15 घटिकाओं के पुण्यकाल की व्यवस्था दी है। यह विरोध यह कहकर दूर किया जाता है कि लघु अवधि केवल अधिक पुण्य फल देने के लिए है और 16 घटिकाओं की अवधि विष्णुपदी संक्रान्तियों के लिए प्रतिपादित है। संक्रान्ति दिन या रात्रि दोनों में हो सकती है। दिन वाली संक्रान्ति पूरे दिन भर पुण्यकाल वाली होती है। रात्रि वाली संक्रान्ति के विषय में हेमाद्रि, माधव आदि में लम्बे विवेचन उपस्थित किए गये हैं। एक नियम यह है कि दस संक्रान्तियों में, मकर एवं कर्कट को छोड़कर पुण्यकाल दिन में होता है, जबकि वे रात्रि में पड़ती हैं। इस विषय का विस्तृत विवरण तिथितत्त्व और धर्मसिंधु में मिलता है।
ग्रहों की संक्रान्ति
ग्रहों की भी संक्रान्तियाँ होती हैं, किन्तु पश्चात्कालीन लेखकों के अनुसार 'संक्रान्ति' शब्द केवल रवि-संक्रान्ति के नाम से ही द्योतित है, जैसा कि स्मृतिकौस्तुभ में उल्लिखित है। वर्ष भर की 12 संक्रान्तियाँ चार श्रेणियों में विभक्त हैं-
दो अयन संक्रान्तियाँ- मकर संक्रान्ति, जब उत्तरायण का आरम्भ होता है एवं कर्कट संक्रान्ति, जब दक्षिणायन का आरम्भ होता है।
दो विषुव संक्रान्तियाँ अर्थात मेष एवं तुला संक्रान्तियाँ, जब रात्रि एवं दिन बराबर होते हैं।
वे चार संक्रान्तियाँ, जिन्हें षडयीतिमुख अर्थात् मिथुन, कन्या, धनु एवं मीन कहा जाता है तथा
विष्णुपदी या विष्णुपद अर्थात् वृषभ, सिंह, वृश्चिक एवं कुम्भ नामक संक्रान्तियाँ।
संक्रांति के प्रकार
'ये बारह संक्रान्तियाँ सात प्रकार की, सात नामों वाली हैं, जो किसी सप्ताह के दिन या किसी विशिष्ट नक्षत्र के सम्मिलन के आधार पर उल्लिखित हैं; वे ये हैं- मन्दा, मन्दाकिनी, ध्वांक्षी, घोरा, महोदरी, राक्षसी एवं मिश्रिता।
घोरा रविवार, मेष या कर्क या मकर संक्रान्ति को,
ध्वांक्षी सोमवार को,
महोदरी मंगल को,
मन्दाकिनी बुध को,
मन्दा बृहस्पति को,
मिश्रिता शुक्र को एवं
राक्षसी शनि को होती है।
इसके अतिरिक्त कोई संक्रान्ति यथा मेष या कर्क आदि क्रम से मन्दा, मन्दाकिनी, ध्वांक्षी, घोरा, महोदरी, राक्षसी, मिश्रित कही जाती है, यदि वह क्रम से ध्रुव, मृदु, क्षिप्र, उग्र, चर, क्रूर या मिश्रित नक्षत्र से युक्त हों। 27 या 28 नक्षत्र निम्नोक्त रूप से सात दलों में विभाजित हैं-
ध्रुव (या स्थिर) – उत्तराफाल्गुनी, उत्तराषाढ़ा, उत्तराभाद्रपदा, रोहिणी
मृदु – अनुराधा, चित्रा, रेवती, मृगशीर्ष
क्षिप्र (या लघु) – हस्त, अश्विनी, पुष्य, अभिजित
उग्र – पूर्वाफाल्गुनी, पूर्वाषाढ़ा, पूर्वाभाद्रपदा, भरणी, मघा
चर – पुनर्वसु, श्रवण, धनिष्ठा, स्वाति , शतभिषक
क्रूर (या तीक्ष्ण) – मूल, ज्येष्ठा, आर्द्रा, आश्लेषा
मिश्रित (या मृदुतीक्ष्ण या साधारण) – कृत्तिका, विशाखा । ऐसा उल्लिखित है कि ब्राह्मणों के लिए मन्दा, क्षत्रियों के लिए मन्दाकिनी, वैश्यों के लिए ध्वांक्षी, शूद्रों के लिए घोरा, चोरों के लिए महोदरी, मद्य विक्रेताओं के लिए राक्षसी तथा चाण्डालों, पुक्कसों तथा जिनकी वृत्तियाँ (पेशे) भयंकर हों एवं अन्य शिल्पियों के लिए मिश्रित संक्रान्ति श्रेयस्कर होती है।
संक्रान्ति का देवीकरण
आगे चलकर संक्रान्ति का देवीकरण हो गया और वह साक्षात् दुर्गा कही जाने लगी। देवीपुराण में आया है कि देवी वर्ष, अयन, ऋतु, मास, पक्ष, दिन आदि के क्रम से सूक्ष्म विभाग के कारण सर्वगत विभु रूप वाली है। देवी पुण्य तवं पाप के विभागों के अनुसार फल देने वाली है। संक्रान्ति के काल में किये गये एक कृत्य से भी कोटि-कोटि फलों की प्राप्ति होती है। धर्म से आयु, राज्य, पुत्र, सुख आदि की वृद्धि होती है, अधर्म से व्याधि, शोक आदि बढ़ते हैं। विषुव संक्रान्ति के समय जो दान या जप किया जाता है या अयन में जो सम्पादित होता है, वह अक्षय होता है। यही बात विष्णुपद एवं षडशीति मुख के विषय में भी है।
तिल के लड्डू
आजकल के पंचांगों में मकर संक्रान्ति का देवीकरण भी हो गया है। वह देवी मान ली गयी है। संक्रान्ति किसी वाहन पर चढ़ती है, उसका प्रमुख वाहन हाथी जैसे वाहन पशु हैं; उसके उपवाहन भी हैं; उसके वस्त्र काले, श्वेत या लाल आदि रंगों के होते हैं; उसके हाथ में धनुष या शूल रहता है, वह लाह या गोरोचन जैसे पदार्थों का तिलक करती है; वह युवा, प्रौढ़ या वृद्ध है; वह खड़ी या बैठी हुई वर्णित है; उसके पुष्पों, भोजन, आभूषणों का उल्लेख है; उसके दो नाम सात नामों में से विशिष्ट हैं; वह पूर्व आदि दिशाओं से आती है और पश्चिम आदि दिशाओं को चली जाती है और तीसरी दिशा की ओर झाँकती है; उसके अधर झुके हैं, नाक लम्बी है, उसके 9 हाथ है। उसके विषय में अग्र सूचनाएँ ये हैं- संक्रान्ति जो कुछ ग्रहण करती है, उसके मूल्य बढ़ जाते हैं या वह नष्ट हो जाता है; वह जिसे देखती है, वह नष्ट हो जाता है, जिस दिशा से वह जाती है, वहाँ के लोग सुखी होते हैं, जिस दिशा को वह चली जाती है, वहाँ के लोग दुखी हो जाते हैं।
संक्रांति पर दान पुण्य
पूर्व पुण्यलाभ के लिए पुण्यकाल में ही स्नान दान आदि कृत्य किये जाते हैं। सामान्य नियम यह है कि रात्रि में न तो स्नान किया जाता है और न ही दान। पराशर में आया है कि सूर्य किरणों से पूरे दिन में स्नान करना चाहिए, रात्रि में ग्रहण को छोड़कर अन्य अवसरों पर स्नान नहीं करना चाहिए। यही बात विष्णुधर्मसूत्र में भी है। किंतु कुछ अपवाद भी प्रतिपादित हैं। भविष्यपुराण में आया है कि रात्रि में स्नान नहीं करना चाहिए, विशेषत: रात्रि में दान तो नहीं ही करना चाहिए, किंतु उचित अवसरों पर ऐसा किया जा सकता है, यथा ग्रहण, विवाह, संक्रान्ति, यात्रा, जनन, मरण तथा इतिहास श्रवण में। अत: प्रत्येक संक्रान्ति पर विशेषत: मकर संक्रान्ति पर स्नान नित्य कर्म है।
दान निम्न प्रकार के किये जाते हैं
मेष में भेड़, वृषभ में गायें, मिथुन में वस्त्र, भोजन एवं पेय पदार्थ, कर्कट में घृतधेनु, सिंह में सोने के साथ वाहन, कन्या में वस्त्र एवं गौएँ, नाना प्रकार के अन्न एवं बीज, तुला-वृश्चिक में वस्त्र एवं घर, धनु में वस्त्र एवं वाहन, मकर में इन्घन एवं अग्नि, कुम्भ में गौएँ जल एवं घास, मीन में नये पुष्प। अन्य विशेष प्रकार के दानों के विषय में देखिए स्कन्दपुराण , विष्णुधर्मोत्तर, कालिका. आदि।
उपवास
मकर संक्रान्ति के सम्मान में तीन दिनों या एक दिन का उपवास करना चाहिए। जो व्यक्ति तीन दिनों तक उपवास करता है और उसके उपरान्त स्नान करके अयन पर सूर्य की पूजा करता है, विषुव एवं सूर्य या चन्द्र के ग्रहण पर पूजा करता है तो वह वांछित इच्छाओं की पूर्णता पाता है। आपस्तम्ब में आया है कि जो व्यक्ति स्नान के उपरान्त अयन, विषुव, सूर्यचंद्र-ग्रहण पर दिन भर उपवास करता है, वह सभी पापों से मुक्त हो जाता है। किंतु पुत्रवान व्यक्ति को रविवार, संक्रान्ति एवं ग्रहणों पर उपवास नहीं करना चाहिए। राजमार्तण्ड में संक्रान्ति पर किये गये दानों के पुण्य-लाभ पर दो श्लोक हैं- 'अयन संक्रान्ति पर किये गये दानों का फल सामान्य दिन के दान के फल का कोटिगुना होता है और विष्णुपदी पर वह लक्षगुना होता है; षडशीति पर यह 86000 गुना घोषित है। चंद्र ग्रहण पर दान सौ गुना एवं सूर्य ग्रहण पर सहस्त्र गुना, विषुव पर शतसहस्त्र गुना तथा आकामावै। की पूर्णिमा पर अनन्त फलों को देने वाला है। भविष्यपुराण ने अयन एवं विषुव संक्रान्तियों पर गंगा-यमुना की प्रभूत महत्ता गायी है।
नारी द्वारा दान
मकर संक्रान्ति पर अधिकांश में नारियाँ ही दान करती हैं। वे पुजारियों को मिट्टी या ताम्र या पीतल के पात्र, जिनमें सुपारी एवं सिक्के रहते हैं, दान करती हैं और अपनी सहेलियों को बुलाया करती हैं तथा उन्हें कुंकुम, हल्दी, सुपारी, ईख के टुकड़े आदि से पूर्ण मिट्टी के पात्र देती हैं। दक्षिण भारत में पोंगल नामक उत्सव होता है, जो उत्तरी या पश्चिमी भारत में मनाये जाने वाली मकर संक्रान्ति के समान है। पोंगल तमिल वर्ष का प्रथम दिवस है। यह उत्सव तीन दिनों का होता है। पोंगल का अर्थ है 'क्या यह उबल रहा' या 'पकाया जा रहा है?'
संक्रांति पर श्राद्ध
कुछ आचार्यो के मत से संक्रान्ति पर श्राद्ध करना चाहिए। विष्णु धर्मसूत्र में आया है- 'आदित्य अर्थात् सूर्य के संक्रमण पर अर्थात जब सूर्य एक राशि से दूसरी में प्रवेश करता है, दोनों विषुव दिनों पर, अपने जन्म-नक्षत्र पर विशिष्ट शुभ अवसरों पर काम्य श्राद्ध करना चाहिए; इन दिनों के श्राद्ध से पितरों को अक्षय संतोष प्राप्त होता है। यहाँ पर भी विरोधी मत हैं। शूलापाणि के मत से संक्रान्ति-श्राद्ध में पिण्डदान होना चाहिए, किंतु निर्णयसिंधु के मत से श्राद्ध पिण्डविहीन एवं पार्वण की भाँति होना चाहिए।
संक्रान्ति पर कुछ कृत्य वर्जित भी थे। विष्णुपुराण में वचन है- 'चतुर्दशी, अष्टमी, अमावस्या, पूर्णिमा एवं संक्रान्ति पर्व कहे गये हैं; जो व्यक्ति ऐसे अवसर पर संभोग करता है, तैल एवं मांस खाता है, वह विष्मूत्र-भोजन' नामक नरक में पड़ता है।
ब्रह्मपुराण में आया है- अष्टमी, पक्षों के अंत की तिथियों में, रवि-संक्रान्ति के दिन तथा पक्षोपान्त (चतुर्दशी) में संभोग, तिल-मांस-भोजन नहीं करना चाहिए।
आजकल मकर संक्रान्ति धार्मिक कृत्य की अपेक्षा सामाजिक अधिक है। उपवास नहीं किया जाता, कदाचित कोई श्राद्ध करता हो, किंतु बहुत से लोग समुद्र या प्रयाग जैसे तीर्थों पर गंगा स्नान करते हैं। तिल का प्रयोग अधिक होता है, विशेषत: दक्षिण में। तिल की महत्ता यों प्रदर्शित है- 'जो व्यक्ति तिल का प्रयोग छ: प्रकार से करता है वह नहीं डूबता अर्थात् वह असफल या अभागा नहीं होता; शरीर को तिल से नहाना, तिल से उवटना, सदा पवित्र रहकर तिलयुक्त जल देना , अग्नि में तिल डालना, तिल दान करना एवं तिल खाना।
सूर्य प्रार्थना
संस्कृत प्रार्थना के अनुसार "हे सूर्य देव, आपका दण्डवत प्रणाम, आप ही इस जगत की आँखें हो। आप सारे संसार के आरम्भ का मूल हो, उसके जीवन व नाश का कारण भी आप ही हो।" सूर्य का प्रकाश जीवन का प्रतीक है। चन्द्रमा भी सूर्य के प्रकाश से आलोकित है। वैदिक युग में सूर्योपासना दिन में तीन बार की जाती थी। महाभारत में पितामह भीष्म ने भी सूर्य के उत्तरायण होने पर ही अपना प्राणत्याग किया था। हमारे मनीषी इस समय को बहुत ही श्रेष्ठ मानते हैं। इस अवसर पर लोग पवित्र नदियों एवं तीर्थ स्थलों पर स्नान कर आदिदेव भगवान सूर्य से जीवन में सुख व समृद्धि हेतु प्रार्थना व याचना करते हैं।
मान्यता
यह विश्वास किया जाता है कि इस अवधि में देहत्याग करने वाले व्यक्ति जन्म-मरण के चक्र से पूर्णत: मुक्त हो जाते हैं। महाभारत महाकाव्य में वयोवृद्ध योद्धा पितामह भीष्म पांडवों और कौरवों के बीच हुए कुरुक्षेत्र युद्ध में सांघातिक रूप से घायल हो गये थे। उन्हें इच्छा-मृत्यु का वरदान प्राप्त था। पांडव वीर अर्जुन द्वारा रचित बाणशैया पर पड़े भीष्म उत्तरायण अवधि की प्रतीक्षा करते रहे। उन्होंने सूर्य के मकर राशि में प्रवेश करने पर ही अंतिम सांस ली, जिससे उनका पुनर्जन्म न हो।
तिल
तिल संक्राति
देश भर में लोग मकर संक्रांति के पर्व पर अलग-अलग रूपों में तिल, चावल, उड़द की दाल एवं गुड़ का सेवन करते हैं। इन सभी सामग्रियों में सबसे ज़्यादा महत्व तिल का दिया गया है। इस दिन कुछ अन्य चीज़ भले ही न खाई जाएँ, किन्तु किसी न किसी रूप में तिल अवश्य खाना चाहिए। इस दिन तिल के महत्व के कारण मकर संक्रांति पर्व को "तिल संक्राति" के नाम से भी पुकारा जाता है। तिल के गोल-गोल लड्डू इस दिन बनाए जाते हैं। ऐसा माना जाता है कि तिल की उत्पत्ति भगवान विष्णु के शरीर से हुई है तथा उपरोक्त उत्पादों का प्रयोग सभी प्रकार के पापों से मुक्त करता है; गर्मी देता है और शरीर को निरोग रखता है। मंकर संक्रांति में जिन चीज़ों को खाने में शामिल किया जाता है, वह पौष्टिक होने के साथ ही साथ शरीर को गर्म रखने वाले पदार्थ भी हैं।
सूर्य के उत्तरायण होने का पर्व
जितने समय में पृथ्वी सूर्य के चारों ओर एक चक्कर लगाती है, उस अवधि को "सौर वर्ष" कहते हैं। पृथ्वी का गोलाई में सूर्य के चारों ओर घूमना "क्रान्तिचक्र" कहलाता है। इस परिधि चक्र को बाँटकर बारह राशियाँ बनी हैं। सूर्य का एक राशि से दूसरी राशि में प्रवेश करना "संक्रान्ति" कहलाता है। इसी प्रकार सूर्य के मकर राशि में प्रवेश करने को "मकर संक्रान्ति" कहते हैं। इसी उत्तरायण सूर्य की प्रतीक्षा महाभारत युद्ध में मृत्यु का वरन करने के लिए गंगापुत्र भीष्म ने किया था। सूर्य का मकर रेखा से उत्तरी कर्क रेखा की ओर जाना 'उत्तरायण' तथा कर्क रेखा से दक्षिणी मकर रेखा की ओर जाना 'दक्षिणायन' है। उत्तरायण में दिन बड़े हो जाते हैं तथा रातें छोटी होने लगती हैं। दक्षिणायन में ठीक इसके विपरीत होता है। शास्त्रों के अनुसार उत्तरायण देवताओं का दिन तथा दक्षिणायन देवताओं की रात होती है। वैदिक काल में उत्तरायण को देवयान तथा दक्षिणायन को पितृयान कहा जाता था। मकर संक्रान्ति के दिन यज्ञ में दिये हव्य को ग्रहण करने के लिए देवता धरती पर अवतरित होते हैं। इसी मार्ग से पुण्यात्माएँ शरीर छोड़कर स्वर्ग आदि लोकों में प्रवेश करती हैं। इसलिए यह आलोक का अवसर माना जाता है। इस दिन पुण्य, दान, जप तथा धार्मिक अनुष्ठानों का अनन्य महत्त्व है और सौ गुणा फलदायी होकर प्राप्त होता है। मकर संक्रान्ति प्रत्येक वर्ष प्रायः 14 जनवरी को पड़ती है।
आभार प्रकट करने का दिन
पंजाब, बिहार व तमिलनाडु में यह समय फ़सल काटने का होता है। कृषक मकर संक्रान्ति को 'आभार दिवस' के रूप में मनाते हैं। पके हुए गेहूँ और धान को स्वर्णिम आभा उनके अथक मेहनत और प्रयास का ही फल होती है और यह सम्भव होता है, भगवान व प्रकृति के आशीर्वाद से। विभिन्न परम्पराओं व रीति–रिवाज़ों के अनुरूप पंजाब एवं जम्मू–कश्मीर में "लोहड़ी" नाम से "मकर संक्रान्ति" पर्व मनाया जाता है। सिन्धी समाज एक दिन पूर्व ही मकर संक्रान्ति को "लाल लोही" के रूप में मनाता है। तमिलनाडु में मकर संक्रान्ति 'पोंगल' के नाम से मनाया जाता है, तो उत्तर प्रदेश और बिहार में 'खिचड़ी' के नाम से मकर संक्रान्ति मनाया जाता है। इस दिन कहीं खिचड़ी तो कहीं चूड़ादही का भोजन किया जाता है तथा तिल के लड्डु बनाये जाते हैं। ये लड्डू मित्र व सगे सम्बन्धियों में बाँटें भी जाते हैं।
गुड़
खिचड़ी संक्रान्ति
चावल व मूंग की दाल को पकाकर खिचड़ी बनाई जाती है। इस दिन खिचड़ी खाने का प्रचलन व विधान है। घी व मसालों में पकी खिचड़ी स्वादिष्ट, पाचक व ऊर्जा से भरपूर होती है। इस दिन से शरद ऋतु क्षीण होनी प्रारम्भ हो जाती है। बसन्त के आगमन से स्वास्थ्य का विकास होना प्रारम्भ होता है। इस दिन गंगा नदी में स्नान व सूर्योपासना के बाद ब्राह्मणों को गुड़, चावल और तिल का दान भी अति श्रेष्ठ माना गया है। महाराष्ट्र में ऐसा माना जाता है कि मकर संक्रान्ति से सूर्य की गति तिल–तिल बढ़ती है, इसीलिए इस दिन तिल के विभिन्न मिष्ठान बनाकर एक–दूसरे का वितरित करते हुए शुभ कामनाएँ देकर यह त्योहार मनाया जाता है।
संक्रान्ति दान और पुण्यकर्म का दिन
संक्रान्ति काल अति पुण्य माना गया है। इस दिन गंगा तट पर स्नान व दान का विशेष महत्त्व है। इस दिन किए गए अच्छे कर्मों का फल अति शुभ होता है। वस्त्रों व कम्बल का दान, इस जन्म में नहीं; अपितु जन्म–जन्मांतर में भी पुण्यफलदायी माना जाता है। इस दिन घृत, तिल व चावल के दान का विशेष महत्त्व है। इसका दान करने वाला सम्पूर्ण भोगों को भोगकर मोक्ष को प्राप्त करता है, ऐसा शास्त्रों में कहा गया है। उत्तर प्रदेश में इस दिन तिल दान का विशेष महत्त्व है। महाराष्ट्र में नवविवाहिता स्त्रियाँ प्रथम संक्रान्ति पर तेल, कपास, नमक आदि वस्तुएँ सौभाग्यवती स्त्रियों को भेंट करती हैं। बंगाल में भी इस दिन तिल दान का महत्त्व है। राजस्थान में सौभाग्यवती स्त्रियाँ इस दिन तिल के लड्डू, घेवर तथा मोतीचूर के लड्डू आदि पर रुपये रखकर, "वायन" के रूप में अपनी सास को प्रणाम करके देती है तथा किसी भी वस्तु का चौदह की संख्या में संकल्प करके चौदह ब्राह्मणों को दान करती है।
सौरमंडल के सृजन का पड़ाव मकर संक्रान्ति : 14 एवं 15 जनवरी
पतंग
यह दिन सुन्दर पतंगों को उड़ाने का दिन भी माना जाता है। लोग बड़े उत्साह से पतंगें उड़ाकर पतंगबाज़ी के दाँव–पेचों का मज़ा लेते हैं। बड़े–बड़े शहरों में ही नहीं, अब गाँवों में भी पतंगबाज़ी की प्रतियोगिताएँ होती हैं।
सौरमंडल के सृजन का पड़ाव मकर संक्रान्ति : 14 एवं 15 जनवरी
गंगास्नान व सूर्य पूजा
पवित्र गंगा में नहाना व सूर्य उपासना संक्रान्ति के दिन अत्यन्त पवित्र कर्म माने गए हैं। संक्रान्ति के पावन अवसर पर हज़ारों लोग इलाहाबाद के त्रिवेणी संगम, वाराणसी में गंगाघाट, हरियाणा में कुरुक्षेत्र, राजस्थान में पुष्कर, महाराष्ट्र के नासिक में गोदावरी नदी में स्नान करते हैं। गुड़ व श्वेत तिल के पकवान सूर्य को अर्पित कर सभी में बाँटें जाते हैं। गंगासागर में पवित्र स्नान के लिए इन दिनों श्रद्धालुओं की एक बड़ी भीड़ उमड़ पड़ती है।
पुण्यकाल के शुभारम्भ का प्रतीक
मकर संक्रान्ति के आगामी दिन जब सूर्य की गति उत्तर की ओर होती है, तो बहुत से पर्व प्रारम्भ होने लगते हैं। इन्हीं दिनों में ऐसा प्रतीत होता है कि वातावरण व पर्यावरण स्वयं ही अच्छे होने लगे हैं। कहा जाता है कि इस समय जन्मे शिशु प्रगतिशील विचारों के, सुसंस्कृत, विनम्र स्वभाव के तथा अच्छे विचारों से पूर्ण होते हैं। यही विशेष कारण है, जो सूर्य की उत्तरायण गति को पवित्र बनाते हैं और मकर संक्रान्ति का दिन सबसे पवित्र दिन बन जाता है।
खगोलीय तथ्य
सन 2012 में मकर संक्रांति 15 जनवरी यानी रविवार की थी। राजा हर्षवर्द्धन के समय में यह पर्व 24 दिसम्बर को पड़ा था। मुग़ल बादशाह अकबर के शासन काल में 10 जनवरी को मकर संक्रांति थी। शिवाजी के जीवन काल में यह त्योहार 11 जनवरी को पड़ा था।
आखिर ऐसा क्यों?
सूर्य के धनु राशि से मकर राशि में प्रवेश करने को 'मकर संक्रांति' कहा जाता है। साल 2012 में यह 14 जनवरी की मध्यरात्रि में था। इसलिए उदय तिथि के अनुसार मकर संक्रांति 15 जनवरी को पड़ी थी। दरअसल हर साल सूर्य का धनु राशि से मकर राशि में प्रवेश 20 मिनट की देरी से होता है। इस तरह हर तीन साल के बाद सूर्य एक घंटे बाद और हर 72 साल में एक दिन की देरी से मकर राशि में प्रवेश करता है। मतलब 1728 (72 गुणा 24) साल में फिर सूर्य का मकर राशि में प्रवेश एक दिन की देरी से होगा और इस तरह 2080 के बाद 'मकर संक्रांति' 15 जनवरी को पड़ेगी।
ज्योतिषीय आकलन
ज्योतिषीय आकलन के अनुसार सूर्य की गति प्रतिवर्ष 20 सेकेंड बढ़ रही है। माना जाता है कि आज से 1000 साल पहले मकर संक्रांति 31 दिसंबर को मनाई जाती थी। पिछले एक हज़ार साल में इसके दो हफ्ते आगे खिसक जाने की वजह से 14 जनवरी को मनाई जाने लगी। अब सूर्य की चाल के आधार पर यह अनुमान लगाया जा रहा है कि 5000 साल बाद मकर संक्रांति फ़रवरी महीने के अंत में मनाई जाएगी।
विभिन्न राज्यों में मकर संक्रांति
मकर संक्रान्ति भारत के भिन्न-भिन्न लोगों के लिए भिन्न-भिन्न अर्थ रखती है। किन्तु सदा की भॉंति, नानाविधी उत्सवों को एक साथ पिरोने वाला एक सर्वमान्य सूत्र है, जो इस अवसर को अंकित करता है। यदि दीपावली ज्योति का पर्व है तो संक्रान्ति शस्य पर्व है, नई फ़सल का स्वागत करने तथा समृद्धि व सम्पन्नता के लिए प्रार्थना करने का एक अवसर है।
उत्तर प्रदेश में मकर-सक्रांति
उत्तर प्रदेश में यह मुख्य रूप से दान का पर्व है। इलाहाबाद में यह पर्व माघ मेले के नाम से जाना जाता है। 14 जनवरी से इलाहाबाद मे हर साल माघ मेले की शुरुआत होती है। 14 दिसम्बर से 14 जनवरी का समय खर मास के नाम से जाना जाता है। और उत्तर भारत मे तो पहले इस एक महीने मे किसी भी अच्छे कार्य को अंजाम नही दिया जाता था। मसलन विवाह आदि मंगल कार्य नहीं किए जाते थे पर अब तो समय के साथ लोग काफ़ी बदल गए है। 14 जनवरी यानी मकर संक्रान्ति से अच्छे दिनों की शुरुआत होती है। माघ मेला पहला नहान मकर संक्रान्ति से शुरू होकर शिवरात्रि तक यानी आख़िरी नहान तक चलता हैै। संक्रान्ति के दिन नहान के बाद दान करने का भी चलन है।समूचे उत्तर प्रदेश में इस व्रत को खिचड़ी के नाम से जाना जाता है और इस दिन खिचड़ी सेवन एवं खिचड़ी दान का अत्यधिक महत्व होता है। इलाहाबाद में गंगा, यमुना व सरस्वती के संगम पर प्रत्येक वर्ष एक माह तक माघ मेला लगता है।
उत्तराखंड में मकर-सक्रांति
उत्तराखंड के बागेश्वर में बड़ा मेला होता है। वैसे गंगा स्नान रामेश्वर, चित्रशिला व अन्य स्थानों में भी होते हैं। इस दिन गंगा स्नान करके, तिल के मिष्ठान आदि को ब्राह्मणों व पूज्य व्यक्तियों को दान दिया जाता है। इस पर्व पर भी क्षेत्र में गंगा एवं रामगंगा घाटों पर बड़े मेले लगते है।
महाराष्ट्र में मकर-सक्रांति
महाराष्ट्र में इस दिन सभी विवाहित महिलाएं अपनी पहली संक्रांति पर कपास, तेल, नमक आदि चीजें अन्य सुहागिन महिलाओं को दान करती हैं। ताल-गूल नामक हलवे के बांटने की प्रथा भी है. लोग एक दूसरे को तिल गुड़ देते हैं और देते समय बोलते हैं :- 'तिल गुड़ ध्या आणि गोड़ गोड़ बोला' अर्थात तिल गुड़ लो और मीठा मीठा बोलो। इस दिन महिलाएं आपस में तिल, गुड़, रोली और हल्दी बांटती हैं।
सौरमंडल के सृजन का पड़ाव मकर संक्रान्ति : 14 एवं 15 जनवरी
पंजाब में लोहड़ी
मकर संक्रान्ति भारत के अन्य क्षेत्रों में भी धार्मिक उत्साह और उल्लास के साथ मनाया जाता है। पंजाब में इसे 'लोहड़ी' कहते हैं जो ग्रामीण क्षेत्रों में नई फ़सल की कटाई के अवसर पर मनाया जाता है। पुरुष और स्त्रियाँ गाँव के चौक पर उत्सवाग्नि के चारों ओर परम्परागत वेशभूषा में लोकप्रिय नृत्य भांगड़ा का प्रदर्शन करते हैं। स्त्रियाँ इस अवसर पर अपनी हथेलियों और पाँवों पर आकर्षक आकृतियों में मेहंदी रचाती हैं।
बंगाल में मकर-सक्रांति
पश्चिम बंगाल में मकर सक्रांति के दिन देश भर के तीर्थयात्री गंगासागर द्वीप पर एकत्र होते हैं, जहाँ गंगा बंगाल की खाड़ी में मिल जाती है। एक धार्मिक मेला, जिसे 'गंगासागर मेला' कहते हैं, इस समारोह की महत्त्वपूर्ण विशेषता है। ऐसा विश्वास किया जाता है कि इस संगम पर डुबकी लगाने से सारा पाप धुल जाता है। बंगाल में इस पर्व पर स्नान पश्चात तिल दान करने की प्रथा है। यहां गंगासागर में हर साल विशाल मेला लगता है। मकर संक्रांति के दिन ही गंगाजी भगीरथ के पीछे-पीछे चलकर कपिल मुनि के आश्रम से होकर सागर में जा मिली थीं। मान्यता यह भी है कि इस दिन यशोदा जी ने श्रीकृष्ण को प्राप्त करने के लिए व्रत किया था। इस दिन गंगा सागर में स्नान-दान के लिए लाखों लोगों की भीड़ होती है। लोग कष्ट उठाकर गंगा सागर की यात्रा करते हैं।
कर्नाटक में मकर-सक्रांति
कर्नाटक में भी फ़सल का त्योहार शान से मनाया जाता है। बैलों और गायों को सुसज्जित कर उनकी शोभा यात्रा निकाली जाती है। नये परिधान में सजे नर-नारी, ईख, सूखा नारियल और भुने चने के साथ एक दूसरे का अभिवादन करते हैं। पंतगबाज़ी इस अवसर का लोकप्रिय परम्परागत खेल है।
गुजरात में मकर-सक्रांति
गुजरात का क्षितिज भी संक्रान्ति के अवसर पर रंगबिरंगी पंतगों से भर जाता है। गुजराती लोग संक्रान्ति को एक शुभ दिवस मानते हैं और इस अवसर पर छात्रों को छात्रवृतियाँ और पुरस्कार बाँटते हैं।
केरल में मकर-सक्रांति
केरल में भगवान अयप्पा की निवास स्थली सबरीमाला की वार्षिक तीर्थयात्रा की अवधि मकर संक्रान्ति के दिन ही समाप्त होती है, जब सुदूर पर्वतों के क्षितिज पर एक दिव्य आभा ‘मकर ज्योति’ दिखाई पड़ती है।
तमिलनाडु में मकर-सक्रांति
तमिलनाडु में इस त्योहार को पोंगल के रूप में चार दिन तक मनाया जाता है.पहले दिन भोगी-पोंगल, दूसरे दिन सूर्य-पोंगल, तीसरे दिन मट्टू-पोंगल अथवा केनू-पोंगल, चौथे व अंतिम दिन कन्या-पोंगल। इस प्रकार पहले दिन कूड़ा करकट इकट्ठा कर जलाया जाता है, दूसरे दिन लक्ष्मी जी की पूजा की जाती है और तीसरे दिन पशु धन की पूजा की जाती है। पोंगल मनाने के लिए स्नान करके खुले आंगन में मिट्टी के बर्तन में खीर बनाई जाती है, जिसे पोंगल कहते हैं। इसके बाद सूर्य देव को नैवैद्य चढ़ाया जाता है। उसके बाद खीर को प्रसाद के रूप में सभी ग्रहण करते हैं। असम में मकर संक्रांति को माघ-बिहू या भोगाली-बिहू के नाम से मनाते हैं। राजस्थान में इस पर्व पर सुहागन महिलाएं अपनी सास को वायना देकर आशीर्वाद लेती हैं। साथ ही महिलाएं किसी भी सौभाग्यसूचक वस्तु का चौदह की संख्या में पूजन व संकल्प कर चौदह ब्राह्मणों को दान देती हैं। अन्य भारतीय त्योहारों की तरह मकर संक्रांति पर भी लोगों में विशेष उत्साह देखने को मिलता है।
सौरमंडल के सृजन का पड़ाव मकर संक्रान्ति : 14 एवं 15 जनवरी
मकर संक्रांति पर खान-पान
तिल के लड्डू
मकर संक्रांति में सूर्य का दक्षिणायन से उत्तरायण में आने का स्वागत किया जाता है। शिशिर ऋतु की विदाई और बसंत का अभिवादन तथा अगहनी फ़सल के कट कर घर में आने का उत्सव मनाया जाता है। उत्सव का आयोजन होने पर सबसे पहले खान-पान की चर्चा होती है। मकर संक्रांति पर्व जिस प्रकार देश भर में अलग-अलग तरीक़े और नाम से मनाया जाता है, उसी प्रकार खान-पान में भी विविधता रहती है। किंतु एक विशेष तथ्य यह है कि मकर संक्राति के नाम, तरीक़े और खान-पान में अंतर के बावजूद सभी में एक समानता है कि इसमें व्यंजन तो अलग-अलग होते हैं, किन्तु उनमें प्रयोग होने वाली सामग्री एक-सी होती है। यह महत्त्वपूर्ण पर्व माघ मास में मनाया जाता है। भारत में माघ महीने में सबसे अधिक सर्दी पड़ती है, अत: शरीर को अंदर से गर्म रखने के लिए तिल, चावल, उड़द की दाल एवं गुड़ का सेवन किया जाता है।
मकर संक्रांति में इन खाद्य पदार्थों के सेवन का यह भौतिक आधार है। इन खाद्यों के सेवन का धार्मिक आधार भी है। शास्त्रों में लिखा है कि माघ मास में जो व्यक्ति प्रतिदिन विष्णु भगवान की पूजा तिल से करता है और तिल का सेवन करता है, उसके कई जन्मों के पाप कट जाते हैं। अगर व्यक्ति तिल का सेवन नहीं कर पाता है तो सिर्फ तिल-तिल जप करने से भी पुण्य की प्राप्ति होती है। तिल का महत्व मकर संक्रांति में इस कारण भी है कि सूर्य देवता धनु राशि से निकलकर मकर राशि में प्रवेश करते हैं। मकर राशि के स्वामी शनि देव हैं, जो सूर्य के पुत्र होने के बावजूद सूर्य से शत्रु भाव रखते हैं। अत: शनि देव के घर में सूर्य की उपस्थिति के दौरान शनि उन्हें कष्ट न दें, इसलिए तिल का दान व सेवन मकर संक्रांति में किया जाता है। चावल, गुड़ एवं उड़द खाने का धार्मिक आधार यह है कि इस समय ये फ़सलें तैयार होकर घर में आती हैं।
इन फ़सलों को सूर्य देवता को अर्पित करके उन्हें धन्यवाद दिया जाता है कि "हे देव! आपकी कृपा से यह फ़सल प्राप्त हुई है। अत: पहले आप इसे ग्रहण करें तत्पश्चात प्रसाद स्वरूप में हमें प्रदान करें, जो हमारे शरीर को उष्मा, बल और पुष्टता प्रदान करे।"
अन्य राज्यों का खान-पान
मकर संक्रांति पर भारत के विभिन्न राज्यों में अपना-अपना खान-पान है
सौरमंडल के सृजन का पड़ाव मकर संक्रान्ति : 14 एवं 15 जनवरी
बिहार तथा उत्तर प्रदेश
बिहार एवं उत्तर प्रदेश में खान-पान लगभग एक जैसा होता है। दोनों ही प्रांत में इस दिन अगहनी धान से प्राप्त चावल और उड़द की दाल से खिचड़ी बनाई जाती है। कुल देवता को इसका भोग लगाया जाता है। लोग एक-दूसरे के घर खिचड़ी के साथ विभिन्न प्रकार के अन्य व्यंजनों का आदान-प्रदान करते हैं। बिहार और उत्तर प्रदेश के लोग मकर संक्राति को "खिचड़ी पर्व" के नाम से भी पुकारते हैं। इस प्रांत में मकर संक्राति के दिन लोग चूड़ा-दही, गुड़ एवं तिल के लड्डू भी खाते हैं। चूड़े एवं मुरमुरे की लाई भी बनाई जाती है।
मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़
मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में मकर संक्रांति के दिन बिहार और उत्तर प्रदेश की ही तरह खिचड़ी और तिल खाने की परम्परा है। यहाँ के लोग इस दिन गुजिया भी बनाते हैं।
दक्षिण भारत
दक्षिण भारतीय प्रांतों में मकर संक्राति के दिन गुड़, चावल एवं दाल से पोंगल बनाया जाता है। विभिन्न प्रकार की कच्ची सब्जियों को लेकर मिश्रित सब्ज़ी बनाई जाती है। इन्हें सूर्य देव को अर्पित करने के पश्चात सभी लोग प्रसाद रूप में इसे ग्रहण करते हैं। इस दिन गन्ना खाने की भी परम्परा है।
पंजाब एवं हरियाणा
पंजाब एवं हरियाणा में इस पर्व में विभिन्न प्रकार के व्यंजनों में मक्के की रोटी एवं सरसों के साग को विशेष तौर पर शामिल किया जाता है। इस दिन पंजाब एवं हरियाणा के लोगों में तिलकूट, रेवड़ी और गजक खाने की भी परम्परा है। मक्के का लावा, मूँगफली एवं मिठाईयाँ भी लोग खाते हैं।