कभी ग्रीष्मकालीन कभी शीतकालीन, आओ, राजधानी-राजधानी खेलें

raghvendra
Published on: 8 Dec 2017 9:45 AM GMT
कभी ग्रीष्मकालीन कभी शीतकालीन, आओ, राजधानी-राजधानी खेलें
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आलोक अवस्थी

देहरादून : पूरे प्रदेश में शायद अकेला प्रदेश उत्तराखंड है जो अपने निर्माण के सत्रह साल पूरे होने के बाद भी अपनी राजधानी का पता नहीं घोषित कर पाया...। करता भी कैसे? जिस दिन से जन्म हुआ... सारी ऊर्जा हर काल के मुख्यमंत्रियों ने अपनी-अपनी कुर्सी बचाने में खर्च कर दी...

राजधानी भी यहां राजनीति के दाँव पेंच में उलझी हुई है! ऐसा नहीं कि कवायद नहीं हुई, राजधानी की खोज के लिए च्च्दीक्षित आयोगज्ज् बना तीन साल अट्ठारह करोड़ खर्च कर रिपोर्ट भी आई... निशंक की सरकार में चर्चा में भी रही-लेकिन अब उस पर बात करना बंद हो गया है।

जनभावना के आधार पर गैरसैंण का नारा भी उछला लेकिन व्यवहार की कसौटी पर खरा नहीं उतरा... दीक्षित आयोग ने टोपोपोग्राफी के आधार पर इस क्षेत्र को पूरी तरह नकार दिया...। लेकिन कोई भी नेतृत्व या पार्टी इस सत्य को हिम्मत के साथ रखने का साहस नहीं जुटा पा रहा है। उल्टे इस प्रकरण पर राजनीति जारी है।

जब विजय बहुगुणा ने कमान संभाली तो २०१४ में फैसला लिया गया कि विधानसभा का एक सत्र गैरसैंण में केरेंगे, टैंट तक देहरादून से गए... और टैंट लगाकर जून २०१४ में इस कलह को राजनैतिक हवा देने की शुरुआत हो गई... फिर मुख्यमंत्री बदले... हरीश रावत जी ने कमान संभाली...दो हजार पंद्रह में दो और तीन नवंबर को विधानसभा का एक सत्र फिर गैरसैंण में हो गया।

इसी बीच बिना किसी बहस-बिना किसी प्रस्ताव के हरीशजी ने वहां पर विधान भवन बनाना भी शुरू करवा दिया। तत्कालीन विपक्ष के नेता अजय भट्ट का आरोप है कि इस भवन के निर्माण के लिए किसी को भरोसे में नहीं लिया गया। यहां तक कि एन.जी.टी.(नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल) की परमीशन तक नहीं ली गई! फिर जनभावना का आलाप।

सात से तेरह दिसंबर को एक बार फिर गैरसैंण में विधानसभा सभा का अधिवेशन होने जा रहा है। संसदीय कार्य मंत्री प्रकाश पंत इस मुद्दे पर कहते हैं कि यदि गैरसैंण को ग्रीष्मकालीन राजधानी बनाने का प्रस्ताव आया तो... सरकार विचार करेगी। इससे आगे बढ़कर भाजपा के नेता नरेश बंसल कहते हैं कि कहां है गैरसैंण में विधानसभा? वो तो गेस्ट हाउस है?? राजधानी तो रायपुर (देहरादून) में बन रही है।

दरअसल सच्चाई यह है कि जब राजधानी के लिए गैरसैंण का नाम आया तब कई नेताओं ने संभावनाओं के आधार पर गैरसैंण के आसपास की सारी जमीन खरीद ली... इसमें सिर्फ नेता ही नहीं हैं अधिकारी भी शामिल हैं... जिनके प्लान को च्च्दीक्षित आयोगज्ज् ने चौपट कर दिया... बैठे बैठाए अरबों रुपए की कमाई का स्वप्न भी इस बहस क जिंदा रखने के पीछे एक महत्वपूर्ण कारण है। पता नहीं किन जनभावनाओं का हवाला दिया जा रहा है... कांग्रेस के एक बड़े नेता कहते हैं कि कौन जाएगा गैरसैंण? जो नारा लगाते थे उनको तो जनता ने (यू.के.डी.) पहले ही घर बैठा दिया... भाई जी एक भी चपरासी ढूंढ लाओ जो वहां जाने को तैयार हो...।

इस भावना को बीजेपी के नेता भी व्यवहारिकता से समझते हैं कि एक टीचर तो पहाड़ की पोस्टिंग लेने को तैयार नहीं है... सचिवालय के अफसर क्या खाक जाएंगे पहाड़ पर चढ़ने...! क्या फरक पड़ता है दाजू! आइए राजधानी राजधानी खेलते हैं लेकिन ठहरिए...ये बताइए कि दिल्ली में त्रिवेन्दर को लेकर क्या चर्चा है...सुना है कि चारधाम वाली सड़क के मामले में गडकरी जी काफी नाराज है.....! क्या लगता है कि ये कितने दिन चलेंगे...!!

अक्कड़ बक्कड़... अस्सी नब्बे पूरे सौ...

अटल जी ने जब उत्तराखंड के निर्माण की घोषणा की तब हालात ये थे कि किसे मुख्यमंत्री बनाया जाए ये भी समझ में नहीं आ रहा था... श्रीमान नित्यानंद स्वामी जी को सरकार तो मिल गई... साथ विरोध भी शुरू हो गया... संगठन के मुखिया भगत सिंह कोश्यारी को अंततः कुर्सी देनी पड़ी...। फिर चुनाव हुए और पूरे अखंड उत्तर प्रदेश में अपनी हैसियत गवां चुकी कांग्रेस उत्तराखंड में जीवित हो उठी...।

यहां भी घमासान चरम में थी... दावेदारी हरीश रावत की थी और भेज दिए गए श्री नारायण दत्त तिवारी जी पूरे पांच साल झगड़ा चलता रहा... फिर चुनाव आए और बीजेपी ने मेजर जनरल खंडूड़ी जो को कमान सौंपी, फिर घमासान... परिणाम स्वरूप पार्टी ने अपने सबसे कम उम्र के तेज तर्रार नेता डॉ. रमेश पोखरियाल को मौका दिया... लेकिन चुनाव से पहले फिर खंडूड़ी है जरूरी के नारे के साथ वापस चुनाव का सामना करने के लिए तैनात कर दिया।

चुनाव का परिणाम फिर कांग्रेस के पक्ष में गया... कांग्रेस के नेतृत्व ने सारे नेताओं को दरकिनार कर हेमवती नंदन बहुगुणा के बेटे विजय बहुगुणा को चुना जिनको उत्तराखंड के अलावा देश दुनिया का ज्ञान था... फिर घमासान और फिर परिवर्तन... लंबी प्रतीक्षा के बाद अंततः हरीश रावत की लॉटरी लगी... आप समझ सकते हैं कि सत्रह साल की उत्तराखंड की पूरी यात्रा में सिवाय नेतृत्व के प्रति विरोध और षडयंत्र के सिवाय यहां क्या हुआ होगा।

अपनों के हजार सवाल में फंसी उत्तराखंड सरकार

उत्तराखंड सरकार बड़ी अजीबो गरीब स्थिति में फंस गई है। न जाने क्या सोच कर विधानसभा का सत्र गैरसैंड़ में रख लिया है। सत्र सात दिसंबर से होने जा रहा है। इसके अलावा भी तमाम मसलों पर मुखिया के लंबे मौन से सभी आहत हैं खासकर उनकी पार्टी के लोग तो कुछ ज्यादा ही।

दर्द से बेचैन सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी के विधायकों के लिए गैरसैंड़ सत्र सरकार पर हमलावर होने का एक मौका बनकर आया है। हालत यह है कि विपक्ष से ज्यादा सत्तापक्ष के विधायकों ने अपनी सरकार से सवाल पूछ डाले हैं। संसदीय कार्य मंत्री प्रकाश पंत की मानें तो सवालों की संख्या एक हजार के ऊपर जा सकती है।

कहा यह भी जा रहा है कि त्रिवेंद्र कैबिनेट के उन मंत्रियों को सत्तापक्ष के तीखे सवालों का सामना करना पड़ सकता है जो कांग्रेस छोड़कर भाजपा में आए हैं। यानी भीतरी बनाम बाहरी की आग भी कुछ तेज हो गई है। ये शुभ संकेत नहीं हैं। सदस्यों ने समाज कल्याण, लोक निर्माण, कृषि, परिवहन उद्यानिकी, पर्यटन, सिंचाई महिला एवं बाल कल्याण, पशुपालन व सिंचाई विभाग से जुड़े सवाल बड़ी संख्या में पूछे हैं।

इन हालात को देखकर मुखिया और उनके सलाहकार मंत्रियों के ठंड के इस मौसम में भी पसीने छूट रहे हैं। देखना यही है कि यह सत्र क्या गुल खिलाता है।

सवालों में गैरसैंण

गैरसैंण में सत्र के बहाने हर बरस वादों और नारों के शामियाने खड़े होते हैं, राजनीतिक दल एक दूसरे को खलनायक ठहराने की जो कोशिश करते हैं, नेताओं के पकड़म-पकड़ाई के खेल में फंसा गैरसैंण फिर अटक जाता है। पिछली कांग्रेस सरकार ने गैरसैंण में पहले कैबिनेट बैठक और फिर विधानसभा भवन का शिलान्यास कर इस मुद्दे को गरमाए रखा तो बाद में विधानसभा सत्र आयोजित कर बीजेपी पर बढ़त बनाए रखने में पूरा दम-खम लगा दिया। बीते वर्ष जब विपक्ष में रहते हुए बीजेपी की ओर से ग्रीष्मकालीन राजधानी का मुद्दा जोरों से उछाला गया तो पिछली कांग्रेस सरकार ने बीते नवंबर माह में शीतकालीन सत्र आहूत कर सियासी दांव खेल दिया था।

अब सत्ता परिवर्तन के बाद बीजेपी सरकार ने उसी अंदाज में पासा फेंका है। गैरसैंण में ग्रीष्मकालीन सत्र आहूत करने पर जोर देती रही कांग्रेस को सरकार ने शीतकालीन सत्र का फैसला लेकर सियासी पलटवार किया है। गैरसैंण को लेकर चल रही इस सियासत से राज्य की स्थायी राजधानी का मसला हल होगा या नहीं, लेकिन गैरसैंण में विधानसभा सत्र को हंगामाखेज बनाने की जमीन जरूर तैयार हो गई है।

कांग्रेस का रुख इससे भी स्पष्ट है कि सत्र से पहले हुई सर्वदलीय बैठक का विपक्ष ने बहिष्कार कर दिया। नेता प्रतिपक्ष इंदिरा ह्रदयेश ने कहा कि - हमारी मांग है कि बीजेपी सरकार इस सत्र में गैरसैंण को स्थायी राजधानी बनाने का ऐलान करे या सदन में यह स्पष्ट करे कि वो गैरसैंण को ग्रीष्मकालीन राजधानी बनाने जा रही है।

क्या गैरसैंण कभी उत्तराखंड की स्थाई राजधानी का रूप ले सकेगा। 28 नवंबर को रामनगर में एक विवाह समारोह में मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत से ये सवाल पूछा गया तो वह इससे बचने की कोशिश करते रहे। समारोह में मौजूद विधानसभा अध्यक्ष प्रेमचंद अग्रवाल ने इसका जवाब देने की जरूर कोशिश की।

उन्होंने कहा कि अब शहीदों के सपने और जनता की मांग को देखते हुए समय आ गया है कि गैरसैंण को राजधानी बनाया जाए। उत्तराखंड के 17 वर्षों के सफर में स्थायी राजधानी को लेकर कोई फैसला नहीं हो सका। विधानसभा अध्यक्ष प्रेमचंद अग्रवाल ने कहा कि बीजेपी को अपने इसी कार्यकाल में राजधानी के विषय पर पूर्णविराम लगाना चाहिए।

पहाड़ का आदमी

सवाल रहा पहाड़ के आदमी का तो उसे खुद पहाड़ पर चढऩा रास नहीं आ रहा है वह खुद नीचे उतर रहा है। गांव के गांव वीरान हो चुके हैं। खुद गैरसैंड़ में भी कड़ाके की ठंड पड़ती है जिसमें पारा कई बार जमाव बिंदु तक चला जाता है। ऐसे में अधिकारियों को छोड़ो एक चपरासी भी उत्तराखंड सरकार को गैरसैंड़ ले जाने को नहीं मिल रहा है।

पहाड़ के आदमी को नगरीय सुविधाएं बच्चों की पढ़ाई सभी कुछ दिखायी दे रहा है। इस राजनीतिक खेल में पहाड़ के आदमी की स्थिति तमाशबीन की हो गई है। जो मदारियों के खेल को देख रहा है।

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राघवेंद्र प्रसाद मिश्र जो पत्रकारिता में डिप्लोमा करने के बाद एक छोटे से संस्थान से अपने कॅरियर की शुरुआत की और बाद में रायपुर से प्रकाशित दैनिक हरिभूमि व भाष्कर जैसे अखबारों में काम करने का मौका मिला। राघवेंद्र को रिपोर्टिंग व एडिटिंग का 10 साल का अनुभव है। इस दौरान इनकी कई स्टोरी व लेख छोटे बड़े अखबार व पोर्टलों में छपी, जिसकी काफी चर्चा भी हुई।

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