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Mizoram Election 2023: जरूरत है ‘जन-शेषन’ की, मिज़ोरम में लागू जनता की आचार संहिता

Mizoram Assembly Election 2023: ये है पूर्वोत्तर के राज्य मिज़ोरम में, जहां मिज़ो पीपुल्स फोरम राजनीतिक दलों और नेतानगरी की नकेल कसे रहता है।

Yogesh Mishra
Written By Yogesh Mishra
Published on: 31 Oct 2023 2:14 PM GMT
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Mizoram Assembly Election 2023: आज़ादी के बाद से तक़रीबन पैंतालीस साल तक देश के लोगों को यह पता ही नहीं था कि देश में चुनाव कराने की जो संस्था है, चुनाव के अलावा उसका कोई अधिकार या कर्तव्य भी हैं। पर जब टी एन शेषन मुख्य निर्वाचन आयुक्त बने, उनकी सक्रियता के बाद लोगों को लगा कि देश में यह भी कोई संस्था है, जो काम करती है।यही वजह है कि आज़ादी के कुछ एक साल पहले और फिर आज़ादी के बाद तो देश लगातार चुनाव देखता रहा है। यह क्रम जारी है। जारी रहा। काल के पहिये की तरह। जो हमेशा घूमता रहता है। लेकिन चुनाव आयोग रूपी मशीनरी जो चुनावी पहिये को घुमाती है उसके तामझाम, उसके मुखिया को सन 90 के पहले शायद ही कोई जानता होगा। लेकिन दिसम्बर 90 के बाद हर कोई चुनाव आयोग को जानने लगा कि ये भी कोई शक्ति है। वजह थी टीएन शेषन नामक शख्सियत जो दिसम्बर 90 में चुनाव आयोग के दसवें अगुवा बनाये गए थे। अगले 6 साल में शेषन ने देश को, खास कर नेतानगरी और राजनीतिक दलों को बहुत अच्छे से समझा दिया कि चुनाव आयोग क्या होता है। शेषन को सब जानने लगे, वह जनता के हीरो बन गए। उन्होंने न केवल 1991 और 1996 के लोकसभा चुनाव करवाये बल्कि कई राज्यों के चुनाव निष्पक्ष रूप से करवाने की कामयाबी दिलाई। बिहार जहां वोट छापने का धंधा व्यापक रुप से फलता फूलता था, वह रुकवा कर दिखा दिया।

लेकिन 1996 में शेषन के हटने के बाद चुनाव आयोग 90 के पहले की स्थिति में पहुंच गया। कोई दूसरा शेषन नहीं हुआ आज तक। आयोग किसी भी सरकारी महकमे की तरफ बाबूगीरी का मकड़जाल बन गया।लेकिन किसी कोने में शेषन वाले आयोग को भुलाया नहीं गया। इसी तर्ज पर लोगों ने खुद का एक तंत्र खड़ा कर दिया जो वही काम करता था जो आयोग को करना चाहिए - चुनावी अनुशासन का एनफोर्समेंट।

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ये है पूर्वोत्तर के राज्य मिज़ोरम में, जहां मिज़ो पीपुल्स फोरम राजनीतिक दलों और नेतानगरी की नकेल कसे रहता है। 2006 में शुरू किए गए मिज़ो पीपुल्स फोरम की ही देन है कि पूरे देश की चुनावी फ़िज़ा और मिज़ोरम की चुनावी फ़िज़ा एकदम अलग अलग होती है। न कोई हल्ला, न बैनर पोस्टर, न पर्चों की भरमार, न अनियंत्रित रैलियों का भेड़ियाधसान, न कानफोड़ू लाउडस्पीकर, न वोटरों की खरीदारी। एक एक प्रत्याशी के पाई पाई का हिसाब। फ़ोरम वो सब कुछ एनफोर्स करता है जो चुनाव आयोग से अपेक्षित है। फोरम ही तय करता है कि पोस्टर, बैनर वगैरह का साइज क्या रहेगा, किस मैटेरियल का इस्तेमाल होगा, कहाँ ये लगाए जाएंगे, रैली कहाँ होगी, लाउडस्पीकर कब बजेगा, कब बन्द होगा.... सब तयशुदा।

तय करने वाले भी किसी दूसरे ग्रह से नहीं आते, बल्कि आम मिज़ो ही हैं। जनता से ही ये फोरम बना है सो जनता ही तय करती है, जनता ही कंट्रोल करती है। जनता भेड़ बकरी की तरह हांके जाने से इनकार कर चुकी है।अब इसकी सफलता का राज़ भी जान लीजिए - आम हिंदुस्तानियों की तरह मिज़ो भी बहुत धार्मिक झुकाव वाले होते हैं। फर्क यह है कि वहां की पूरी कम्युनिटी आपस में बहुत जुड़ी हुई है, बिखराव नहीं है। चूंकि ईसाइयत का बोलबाला है सो चर्च की बहुत चलती है। कट्टरपंथी सोच के एकदम परे सोशल रिफॉर्म पर ध्यान है। सो फोरम जैसी व्यवस्था चर्च और मिज़ो युवाओं के संगठन के सहयोग से स्थापित है। ध्येय स्पष्ट है - चुनाव स्वतंत्र और निष्पक्ष कराना है। मनी पवार को धता बताना है। और यही हो रहा है।

यह भी जान लीजिए कि मिज़ो पीपुल्स फोरम सिर्फ चुनाव के मौके पर ही एक्टिव होता है। मिज़ोरम ही ऐसा राज्य है जहां प्रत्याशी चुनाव आयोग से कहते हैं कि खर्च की निर्धारित सीमा घटा दीजिये क्यों कि हमारा खर्चा बहुत कम होता है। नियम तोड़ने के खिलाफ जीरो टॉलरेंस है। जनता जनार्दन है।

सवाल सिर्फ दो हैं - पहला, मिज़ोरम ही अकेला क्यों, बाकी राज्यों में ऐसे फोरम क्यों नहीं? जब चुनाव आयोग है तो ऐसे फोरम की जरूरत ही क्यों?दूसरा सवाल ज्यादा बड़ा है। जब हर राज्य में चुनाव आयोग है, देश का केंद्रीयकृत चुनाव आयोग है, भारी भरकम चुनावी मशीनरी है, चुनाव कानून हैं, टॉप लेवल से चुने गए अधिकारी सर्वे सर्वा हैं। तब दिक्कत क्या है? दिक्कत सिर्फ एक है - सब कुछ है लेकिन शेषन जैसा एक भी नहीं है। चुनाव आयोग नख दन्त विहीन शेर है। जिसे सियार और चूहे भी चिढ़ाते हैं। एक ऐसा शेर जिसने खुद अपने दांत निकलवा दिए, अपने नाखून जड़ से उखड़वा दिए।

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शेषन एक व्यक्ति नहीं - एक अवधारणा है, एक सिद्धांत है, एक व्यवस्था है।

सरकारें बनती हैं राजनीतिक दलों-नेताओं से, सो किसी को ‘शेषन’ बर्दाश्त नहीं, मंजूर नहीं। ‘शेषनी व्यवस्था’ सेमिनार और सभाओं के भाषणों तक ही अच्छी लगती हैं। टीवी पर बहस रूपी नाटक और आईएएस में नए नए सेलेक्ट हुए प्रत्याशी के अखबारी इंटरव्यू तक ही शेषनी तेवर सीमित रहते हैं। टीवी स्टूडियो और इंटरव्यू से बाहर कदम रखते ही सब बदल जाता है। यही वजह है कि चुनाव आयोग को मजबूत करने के सुप्रीम कोर्ट तक की कोशिशें बेकार हैं। जब आयोग की संरचना तक निष्पक्ष नहीं तब उसके कामकाज की गारंटी भला कौन ले सकता है?

इसीलिए मिज़ो पीपुल्स फोरम को जन्मना होता है। लेकिन दुखद यह है कि ये सिर्फ एक ही है। पहले सवाल का उत्तर कठिन हो जाता है। ठीक मिज़ोरम के बगलगीर राज्यों में ऐसा कोई इंतजाम नहीं है। ऐसा क्यों है, उसकी वजहें कई हो सकती हैं - मिज़ो समाज ज्यादा गुंथा-बुना हुआ है, आपसी गुटबाजी और बिखराव नहीं है, सिविल सोसाइटी ज्यादा प्रभावशाली है, चर्च का ज्यादा प्रभाव है, एक बार व्यवस्था स्थापित हो गई है और इसे जनसमर्थन है।

ऐसी ही व्यवस्था पड़ोसी राज्यों में बनाने की कोशिशें हुईं हैं और अब भी जारी हैं। रोड़ा हैं तो वही चीजें - एकजुटता की कमी, राजनीतिक दलों के अड़ंगे, सिविल सोसाइटी की कमियां। दरअसल, हममें चाहने की नितांत कमी है। हम नेताओं को सिर पर बैठाये हुए हैं। जीरो टॉलरेंस की क्या कहें, हम तो फुल टॉलरेंस अपनाए हुए हैं जबकि नेता लोग नियम-कानून के प्रति जीरो टॉलरेंस रखते हैं।

धर्म गुरुओं को सामाजिक मजबूती, व्यवस्था निर्माण से कोई लेनादेना नहीं है। इहलोक की परवाह नहीं, परलोक सुधरवाने में लगे हैं। सिविल सोसाइटी ड्राइंग रूमों और सोशल मीडिया में मसरूफ़ है। किसी को क्या मतलब? लेकिन सोचिये जरूर। एक ‘जन शेषन’ रूपी व्यवस्था आखिर हम भी क्यों नहीं बना सकते। न पूरा राज्य सही, कम से कम अपने मोहल्ले, अपने गांव, अपने वार्ड से शुरुआत तो कर सकते हैं। जब मिज़ोरम कर सकता है तो हम भी क्यों नहीं?हर काम सरकार पर छोड़ने से काम नहीं चलने वाला है। क्योंकि निर्वाचन के क्षेत्र में जितने भी सुधार हुए हैं, उनमें सरकार का नहीं सिविल सोसायटी का योगदान है। एसोसियेशन फ़ार डेमोक्रेटिक रिफार्म (एडीआर) और इलेक्शन वॉच जैसे संगठन नहीं होते तो हम साँपनाथ व नागनाथ के चुनाव में फँसे रहते । इसलिए हमें सिविल सोसायटी का महत्व समझना चाहिए । क्योंकि सरकार ने हिंदी को अपने हाथ में लिया, गंगा की सफ़ाई को एजेंडा बनाया। क्या गति हुई। ऐसी बहुत सी नज़रें हैं। जितने क़ानून बने। उतने कुनबे बँटे।उतनी अस्पृश्यता बढ़ी। पहले क्षेत्रों बाँटा। फिर धर्म में। फिर अगले पिछड़े में। दलित ग़ैर दलित में। अब जातियों में बाँट रहे हैं। यह सिलसिला कहाँ तक जायेगा , कहा नहीं जा सकता। पर इसे रोकने के लिए सिविल सोसायटी व सिविल पुलिसिंग की ज़रूरत है।इससे चूके नहीं। मिज़ोरम के प्रयोग के देश में फैलायें। जीवन व समाज के हर क्षेत्र में ले जायें।

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