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उत्तराखंड में भी चला मोदी मैजिक, पिट गए 'बाहुबली-राउडी' रावत
इस बार भी उत्तराखंड ने भी यूपी की तरह ही वोटिंग की। मोदी के नाम पर बीजेपी को प्रचंड बहुमत दे दिया। यहां भी बीजेपी के आगे होने की उम्मीद तो जताई जा रही थी, लेकिन इतना किसी को पता नहीं था। कई बार तो ऐसा लगता था कि पिछली बार की तरह दोनों पार्टियां 30-32 तक न अटक जाएं।
राजेश डोबरियाल
देहरादून : उत्तराखंड की पहचान उत्तर प्रदेश (यूपी) में रहते हुए भी अलग थी। लेकिन मतदाताओं का मिजाज यूपी से बहुत अलग नहीं रहा। 2002 में पहले चुनाव के बाद से कभी भी सत्तारूढ़ दल ने वापसी नहीं की।
इस बार भी उत्तराखंड ने भी यूपी की तरह ही वोटिंग की। मोदी के नाम पर बीजेपी को प्रचंड बहुमत दे दिया। यहां भी बीजेपी के आगे होने की उम्मीद तो जताई जा रही थी, लेकिन इतना किसी को पता नहीं था। कई बार तो ऐसा लगता था कि पिछली बार की तरह दोनों पार्टियां 30-32 तक न अटक जाएं।
बहरहाल....शायद ये पहली बार हुआ है कि कोई मुख्यमंत्री दो सीटों से चुनाव लड़े और दोनों से हार जाए। हालांकि ये कहना जल्दबाजी होगी कि हरीश रावत का करियर खत्म हो गया है। 69 साल के रावत भारतीय राजनीति के हिसाब से रिटायरमेंट की उम्र तक अभी नहीं पहुंचे हैं और न ही वह बीजेपी में हैं कि उन्हें जबरन रिटायर कर दिया जाए। वैसे हरीश रावत ठीक वैसे ही चल रहे थे जैसे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी। मुख्यमंत्री बनने के बाद धीरे-धीरे उन्होंने पार्टी के दिग्गजों को ठिकाने लगा दिया।
पिछले साल मार्च में पार्टी में विद्रोह और टूट इसी का नतीजा थी। उससे सफलतापूर्वक निपटने के बाद रावत ने खुलकर खेलना शुरू किया। उन्होंने प्रदेश में पार्टी संगठन को ही किनारे कर दिया था। संगठन के साथ खींचतान चुनाव के ऐन पहले तक चलती रही। पार्टी पर पूरी पकड़ बना चुके रावत ने पीसीसी अध्यक्ष किशोर रावत को उनकी विधानसभा सीट टिहरी से बेदखल करवा दिया ताकि वहां से सरकार में सहयोगी रही पीडीएफ के दिनेश धनै को निर्दलीय चुनाव लड़वाया जा सके। ये अलग बात है कि मोदी की आंधी में धनै टिहरी से और किशोर उपाध्याय देहरादून के सहसपुर से चुनाव हार गए।
खुद को समझते रहे बाहुबली
कांग्रेस और हरीश रावत की शर्मनाक हार की वजह हरीश रावत का खुद को बाहुबली समझना भी रहा (चुनाव प्रचार के दौरान हरीश रावत को बाहुबली, खली, राउडी रावत दिखाते हुए वीडियो सोशल मीडिया पर बहुत घूमा था)। राज्य के इतिहास में पहली बार उन्होंने अपना अलग घोषणापत्र तक जारी कर दिया।
रावत के संकल्प नाम के एक घोषणापत्र के बाद कांग्रेस का घोषणापत्र आया था जो उन्हीं संकल्पों का विस्तार भर था। बहरहाल रावत खुद ही नहीं हारे उनकी कैबिनेट भी लगभग साफ हो गई। राज्य के मंत्रियों में से सिर्फ इंदिरा हृदयेश और प्रीतम सिंह ही जीत हासिल कर पाए। जबकि बगावत कर बीजेपी में जाने वाले पूर्व मंत्री हरक सिंह रावत और यशपाल आर्य दोनों चुनाव जीत गए हैं। हरक सिंह रावत ने तो कोटद्वार में राज्य के कृषि मंत्री सुरेंद्र सिंह नेगी को पटखनी दी।
बीजेपी के मुख्यमंत्री पद के बड़े दावेदार भी हारे
वैसे राज्य के मतदाताओं के मिजाज को समझने में गलती सिर्फ हरीश रावत से नहीं हुई बल्कि बीजेपी के मुख्यमंत्री पद के एक बड़े दावेदार भी चुनाव हार गए। पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष और नेता प्रतिपक्ष दोनों पदों पर काबिज अजय भट्ट रानीखेत से कांग्रेस के करन महारा से करीब पांच हजार वोटों से हारे। भट्ट केंद्रीय नेतृत्व के चहेते रहे हैं और पूर्व मुख्यमंत्री बीसी खंडूड़ी के विरोध के बावजूद बीजेपी के केंद्रीय नेतृत्व ने भट्ट को दोनों महत्वपूर्ण पदों पर बनाए रखा था। मोदी लहर में भी भट्ट के चुनाव हारने के बाद पार्टी में उनकी स्थिति क्या होगी इसका अंदाजा लगाया जा सकता है।
प्रधानमंत्री पद के तीन मुख्य दावेदार
भट्ट के मैदान से हटने के बाद राजनीतिक विश्लेषक और पार्टी के अंदरूनी सूत्रों के अनुसार प्रधानमंत्री पद के तीन मुख्य दावेदार हैं। पहले नंबर पर हैं चौबट्टाखाल से चुनाव जीते सतपाल महाराज। पौड़ी से सांसद और केंद्र में राज्यमंत्री रहे सतपाल महाराज के पास पैसे की कोई कमी नहीं और उनकी छवि भी साफ है। अगर जोड़-तोड़ से सरकार बनाने की नौबत आती तो बीजेपी के पास महाराज से अच्छा कोई विकल्प नहीं था। सतपाल महाराज तीन साल पहले ही कांग्रेस छोडक़र बीजेपी में शामिल हो गए थे। अब पार्टी के कहने पर उन्होंने विधानसभा चुनाव लड़ा है तो यूं ही नहीं।
दूसरे स्थान पर हैं त्रिवेंद्र सिंह रावत। त्रिवेंद्र सिंह संघ के चहेते नेता हैं और पूर्व मुख्यमंत्री भगत सिंह कोश्यारी का समर्थन भी उन्हें हासिल है। रावत की संगठन पर अच्छी पकड़ है और वह पार्टी के राज्य अध्यक्ष भी रह चुके हैं। रावत बीजेपी के झारखंड प्रभारी भी हैं। कोश्यारी और संघ की चली तो रावत मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठ सकते हैं।
तीसरा नाम राज्य के पूर्व मंत्री और पहले विधानभा अध्यक्ष रहे प्रकाश पंत भी साफ छवि वाले नेता हैं। अगर कुमाऊं और ब्राह्मण कार्ड चला तो पंत राज्य की बागडोर संभाल सकते हैं।
उधर पूर्व मुख्यमंत्री और सांसद रमेश पोखरियाल निशंक ने भी दावेदार ठोक दी है। उनका कहना है कि अगर पार्टी उन्हें कोई मौका देती है तो वह पीछे नही हटेंगे। माना जा रहा है कि विजय बहुगुणा और हरक सिंह रावत भी चुप नहीं बैठेंगे लेकिन यूपी-उत्तराखंड में जीत के साथ मोदी जितने ताकतवर हो गए हैं उसके बाद जिद करने की स्थिति किसी की नहीं है।
बहनजी की विदाई
यूपी में बुरी तरह पिटी बहुजन समाज पार्टी (बसपा) का सूपड़ा उत्तराखंड में साफ ही हो गया है। 2002 में राज्य के पहले चुनाव में बीएसपी 7 सीटें जीती थी। वह राज्य की तीसरी सबसे बड़ी पार्टी बन गई थी। साल 2007 में हुए चुनाव में पार्टी की ताकत ज्यादा बढ़ी और उसने 8 सीटों पर जीत हासिल की। लेकिन 2012 में वह सिर्फ 3 सीटों पर सिमट कर रह गई। इस बार ऐतिहासिक परिणाम वाले चुनाव में पार्टी को एक भी सीट हासिल नहीं हुई है। वैसे यूपी से सदमे से उबरें तो बहनजी को उत्तराखंड का ख्याल आए।
उत्तराखंड मौजुदा विधानसभा में पार्टियों की स्थिति : कुल सीट- 70, भाजपा- 57, कांग्रेस - 11, निर्दल - 2