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Narco Vs Polygraph Test: बहुत फर्क है नार्को और पॉलीग्राफ टेस्ट में, एक मस्तिष्क पढ़ता है, दूसरा झूठ

Narco Vs Polygraph Test: नार्को टेस्ट एक केमिकल आधारित टेस्ट है जबकि पॉलीग्राफ में कोई केमिकल नहीं दिया जाता है। दोनों टेस्ट से जांच एजेंसियों को अलग अलग जानकारी मिलने की उम्मीद होती है।

Neel Mani Lal
Published on: 25 Nov 2022 6:49 PM IST (Updated on: 25 Nov 2022 7:01 PM IST)
Narco Vs Polygraph Test
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Narco Test Vs Polygraph Test  (Image: Social Media)

Narco Vs Polygraph Test: श्रद्धा मर्डर केस में पुलिस आफताब पूनावाला का पॉलीग्राफ टेस्ट और नार्को टेस्ट, दोनों करके सच्चाई की तह में पहुंचने की कोशिश में है। ये सवाल भी उठता है कि नार्को टेस्ट और पॉलीग्राफ टेस्ट दोनों कराने की क्या जरूरत है? तो आपको बता दें कि ये दोनों टेस्ट अलग अलग हैं। पॉलीग्राफ टेस्ट जहां झूठ पकड़ता है वहीं नार्को टेस्ट मस्तिष्क में छिपे राज को सामने लाता है। नार्को टेस्ट एक केमिकल आधारित टेस्ट है जबकि पॉलीग्राफ में कोई केमिकल नहीं दिया जाता है। दोनों टेस्ट से जांच एजेंसियों को अलग अलग जानकारी मिलने की उम्मीद होती है।

नार्को टेस्ट

जिस व्यक्ति का 'नार्को' या 'नार्कोएनालिसिस टेस्ट' किया जाना होता है उसके शरीर में सोडियम पेंटोथल नामक दवा का इंजेक्शन लगाया जाता है। इस दवा के असर से व्यक्ति एक कृत्रिम निद्रावस्था या अर्ध बेहोशी की अवस्था में पहुँच जाता है जिसमें उसकी कल्पना शक्ति बेअसर हो जाती है। इस कृत्रिम निद्रावस्था में व्यक्ति को झूठ बोलने में असमर्थ समझा जाता है, और उम्मीद की जाती है कि उससे जो पूछा जाएगा उसका वह सही जवाब देगा और कोई मैनीपुलेशन नहीं कर पायेगा।

सोडियम पेंटोथल या सोडियम थायोपेंटल एक तेजी से काम करने वाला कम अवधि का एनेस्थेटिक है, जिसका उपयोग आमतौर पर सर्जरी के दौरान रोगियों को बेहोश करने के लिए बड़ी मात्रा में किया जाता है। यह सेन्ट्रल नर्वस सिस्टम पर डिप्रेसेंट के रूप में कार्य करता है। माना जाता है कि ये दवा झूठ बोलने के संकल्प को कमजोर करती है इसलिए इसे कभी-कभी "ट्रुथ सीरम" भी कहा जाता है। कहा जाता है कि द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान खुफिया एजेंटों द्वारा इसका इस्तेमाल किया गया था।

इस दवा के आलोचक इसे मानवधिकारों का उल्लंघन या यातना का एक रूप मानते हैं। बहरहाल, "ट्रुथ सीरम" को सबसे पहले अमेरिकी न्यूरोलॉजिस्ट, मनोचिकित्सक और सैन्य चिकित्सक विलियम जेफरसन द्वारा इस्तेमाल किया गया था।

पॉलीग्राफ टेस्ट

पॉलीग्राफ टेस्ट इस कांसेप्ट पर आधारित होता है कि किसी व्यक्ति के झूठ बोलने पर उसके शरीर की प्रतिक्रियाएं सामान्य अवस्था से भिन्न होती हैं। पॉलीग्राफ टेस्ट में शरीर में दवाओं का इंजेक्शन लगाना शामिल नहीं होता है; बल्कि कार्डियो-कफ या संवेदनशील इलेक्ट्रोड जैसे उपकरण शरीर से जोड़े जाते हैं। जब टेस्ट के अधीन व्यक्ति से सवाल जवाब होते हैं तो उस दौरान इन उपकरणों से उस व्यक्ति के ब्लडप्रेशर, नाड़ी की दर, सांस लेने की दर, पसीने की ग्रंथि गतिविधि में बदलाव, ब्लड फ्लो आदि को मापा जाता है। इस टेस्ट का मूल आधार ये है कि झूठ बोलने पर व्यक्ति की हार्ट रेट, बीपी, ब्लड फ्लो दर आदि तेज हो जाते हैं। वहीं सच बोलने पर शारीरिक प्रतिक्रिया नार्मल रहती है।

इस तरह के एक परीक्षण के बारे में कहा जाता है कि यह पहली बार 19वीं शताब्दी में इतालवी अपराध विज्ञानी सेसारे लोम्ब्रोसो द्वारा किया गया था, जिन्होंने पूछताछ के दौरान आपराधिक संदिग्धों के ब्लड प्रेशर में बदलाव को मापने के लिए एक मशीन का इस्तेमाल किया था। हालांकि, पॉलीग्राफ टेस्ट हो या नार्को टेस्ट, कोई भी विधि वैज्ञानिक रूप से 100 फीसदी सफल सिद्ध नहीं हुई है, और चिकित्सा क्षेत्र में भी ये विवादास्पद बनी हुई है।

टेस्ट के परिणाम

नार्को टेस्ट के परिणामों को कबूलनामा नहीं माना जाता है क्योंकि नशीली दवाओं से प्रेरित स्थिति में व्यक्ति के पास उन सवालों के जवाब देने में कोई विकल्प नहीं होता है जो उनके सामने रखे गए हैं। हालांकि, सर्वोच्च न्यायालय की रूलिंग है कि इस तरह के स्वेच्छा से लिए गए टेस्ट की मदद से बाद में खोजी गई किसी भी जानकारी या सामग्री को साक्ष्य के रूप में स्वीकार किया जा सकता है।



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Rakesh Mishra

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