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One Nation One Election: बहुत हो चुका चुनावी शगल, अब चर्चा में बस ‘एक राष्ट्र-एक चुनाव’

One Nation One Election: साल भर देश में कहीं न कहीं चुनाव होते ही रहते हैं। ऐसे में अब देश में ‘एक राष्ट्र-एक चुनाव’ का मसला जोरों से चर्चा में है।

Yogesh Mishra
Published on: 6 Sep 2023 7:14 AM GMT
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One Nation One Election: लोकतंत्र की दृश्यता हमारे देश में चुनावों से है। मोहल्ले के पार्षद से लेकर राष्ट्रपति तक सभी जगह चुनाव ही चुनाव हैं। पार्षद, महापौर, नगर निकाय, ग्राम प्रधान, बीडीसी, जिला पंचायत, एमएलए, एमपी इत्यादि। लेकिन ये सभी चुनाव एक साथ नहीं होते। सब अलग अलग होते हैं सो साल भर देश में कहीं न कहीं चुनाव होते ही रहते हैं। ऐसे में अब देश में ‘एक राष्ट्र-एक चुनाव’ का मसला जोरों से चर्चा में है। सरकार की मंशा भी यही है कि सभी तरह के चुनाव एक साथ होने चाहिए। ये कोई बहुत यूनीक आईडिया नहीं है ये भी जान लीजिये। किसी ज़माने में ऐसा ही होता था।लेकिन जब सरकार गिराने, पाला बदलने की आदत जोर पकड़ती गयी तो वह सिस्टम बैठ गया और ‘हर मौसम चुनावी मौसम’ का दौर चल निकला, जो आज भी जारी है। तरह तरह के चुनाव का मतलब है तरह तरह की वोटर लिस्ट। गाँव से लेकर महानगरों तक प्रधानी के चुनाव की अलग लिस्ट, नगर निकायों की अलग लिस्ट, विधायकी और सांसदी के चुनावों की अलग अलग लिस्ट। लिस्टों की ही भरमार है जो साल भर बनती रहती है, अपडेट होती है । मगर फिर भी आज तक सौ फीसदी सही नहीं बन पाई¸खैर ये अलग मसला है।

लिस्टीकरण से लेकर मतदान तक स्कूली टीचरों, सरकारी कर्मचारियों की फ़ौज अपना मूल काम छोड़ कर चुनावी काम में लगी रहती है। ये लोग इधर बिजी रहते हैं तो पुलिस, अर्धसैन्य बल, आदि देश भर में घूम घूम कर चुनाव ही कराते रहते हैं। इन कामों से फुर्सत मिले तब कानून-व्यवस्था देखी जाती है। इन घनचक्करों के बीच एक बड़ा चक्र घूमता है आचार संहिता का। जब भी कोई चुनाव आता है तो संहिता लागू हो जाती है जिसका मतलब है महीनों तक सब फैसले ठप्प। सरकारी मशीनरी फैसले लेने में वैसे ही माशाअल्ला है । अचार संहिता आ जाये तो फिर कहना ही क्या।

बहरहाल, इस चुनावी कैलेंडर ने लोकतंत्र को मजबूत करने में कितना योगदान किया है। यह तो शोध का विषय है । इस पर अनेक पीएचडी की जा सकती हैं । लेकिन इतना तो मोटे तौर पर कहा ही जा सकता है कि इस सतत चुनावी कवायद में बेशुमार पैसा, समय और ऊर्जा ज़ाया होती है। ज़ाया इसलिए कहा क्योंकि चुनाव के नाम से आम लोग रोमांचित होने की बजाये मन ही मन कोसने जरूर लगते हैं। हाँ, नेता और राजनीतिक दल अपवाद हैं । क्योंकि उनका तो यही व्यवसाय है। यही सहालग है। इसी से समझ लीजिये कि दुनिया भर में सबसे महंगे चुनाव भारत में ही होते हैं। कोई देश इतना पैसा सिर्फ चुनाव पर नहीं खर्च करता।

पहले होते थे एक साथ चुनाव

भारत में एक साथ मतदान का इतिहास 1951-52 में हुए पहले आम चुनावों से मिलता है। उस समय, लोकसभा और सभी राज्य विधानसभाओं के लिए एक साथ चुनाव हुए थे। यह प्रथा 1957, 1962 और 1967 में हुए तीन आम चुनावों में जारी रही। हालाँकि, एक साथ चुनावों का चक्र 1968 और 1969 में बाधित हो गया, जब कुछ राज्य विधानसभाएँ समय से पहले भंग कर दी गईं थीं। 1970 में लोकसभा को भी समय से पहले ही भंग कर दिया गया था और 1971 में नए चुनाव हुए थे। तब से एक साथ चुनावों की प्रथा को पुनर्जीवित नहीं किया गया है। एक साथ चुनाव कराने की सिर्फ प्रथा ही थी। इसका कोई कानूनी प्रावधान नहीं था । न इस प्रथा को तोड़ने के लिए कोई कानून बना।

1983 में आया था प्रस्ताव

1983 में चुनाव आयोग ने एक साथ चुनाव कराने का प्रस्ताव रखा। हालाँकि, आयोग ने अपनी वार्षिक रिपोर्ट में बताया था कि तत्कालीन सरकार ने एक साथ चुनाव के प्रस्ताव के खिलाफ फैसला किया। 1999 की विधि आयोग की रिपोर्ट में भी एक साथ चुनाव कराने पर जोर दिया गया। हालिया दबाव भारतीय जनता पार्टी की ओर से आया है, जिसने 2014 के लोकसभा चुनाव के लिए अपने चुनाव घोषणापत्र में कहा था कि वह राज्य सरकारों के लिए स्थिरता सुनिश्चित करने के लिए एक साथ चुनाव कराने का एक सिस्टम डेवलप करने की कोशिश करेगी। 2016 में प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा एक बार फिर यह विचार सामने आया। 2017 नीति आयोग ने एक साथ चुनाव के प्रस्ताव पर एक वर्किंग पेपर तैयार किया। 2018 में विधि आयोग ने कहा भी था कि एक साथ चुनाव कराने के लिए कम से कम ‘पांच संवैधानिक सिफारिशों’ की आवश्यकता होगी। हालाँकि आज़ादी के बाद से सन 67 तक बिना किसी संवैधानिक व्यवस्था के एक साथ चुनाव होते रहे और जब अलग अलग चुनाव होना शुरू हुए तो भी कोई संवैधानिक बदलाव नहीं किया गया था।

2019 में दूसरी बार सत्ता संभालने के महज एक महीने बाद, पीएम मोदी ने एक साथ चुनाव कराने पर चर्चा करने के लिए विभिन्न राजनीतिक दलों के प्रमुखों से मुलाकात की थी । लेकिन कोई बात नहीं बनी। तत्कालीन मुख्य चुनाव आयुक्त सुशील चंद्रा ने कहा था कि 2022 में एक साथ चुनाव कराने के लिए चुनाव आयोग पूरी तरह तैयार और सक्षम है। बाद में 2022 में, विधि आयोग ने देश में एक साथ चुनाव कराने के प्रस्ताव पर राष्ट्रीय राजनीतिक दलों, भारत के चुनाव आयोग, नौकरशाहों, शिक्षाविदों और विशेषज्ञों सहित हितधारकों की राय मांगी थी। उस राय में क्या आया और उसका क्या हुआ ये पता लगना अभी बाकी है।

पैसा ही बचेगा

भारत चुनाव कराने में दुनिया में टॉप पर है। चुनावों में हमसे ज्यादा पैसा अमेरिका जैसा अमीर मुल्क भी खर्च नहीं करता। चुनाव आयोग और सरकार जो खर्च करती है उससे अलग राजनीतिक दल और नेता भी बेहिसाब खर्च करते हैं। इस खर्च की भरपाई और कोई नहीं, हम और आप ही करते हैं, ये भी याद रखिये। एक साथ चुनाव कराने से और कुछ नहीं तो समय और पैसा खूब बचेगा। हर चुनाव में बड़े पैमाने पर पैसा खर्च किया जाता है। जान लीजिये कि 2019 के लोकसभा चुनाव में करीब 60,000 करोड़ रुपये खर्च हुए थे। ये कोई छोटी रकम नहीं है। नीति आयोग की रिपोर्ट के अनुसार, 2009 के लोकसभा चुनावों में सरकारी खजाने पर लगभग 1,115 करोड़ रुपये और 2014 के चुनावों में लगभग 3,870 करोड़ रुपये का खर्च आया था। हालाँकि, पार्टियों और उम्मीदवारों के खर्च सहित, चुनावों पर खर्च किया गया वास्तविक धन कई गुना अधिक था। समझा जाता है कि चुनाव आयोग ने लोकसभा और राज्य विधानसभाओं के एक साथ चुनाव कराने की लागत 4,500 करोड़ रुपये होने का अनुमान लगाया है।

भाषा वैविध्य

भाषा की ही बात करिए तो जितनी भाषायें हमारे यहाँ हैं, उतनी शायद कहीं नहीं होंगी। अमेरिका-इंग्लैंड में एक ही भाषा अंग्रेजी, जापान में जापानी, चीन में मंडारिन, अरब देशों में अरबी यानी एक ही भाषा सब जगह। हाँ नाइजीरिया, तंज़ानिया जैसे कुछ अफ्रीकी देशों में कबीलों की विविध भाषाओँ से होने वाली दिक्कत के चलते एक अलग भाषा ही ईजाद कर ली गयी, जिसमें सभी भाषाओँ का मिक्सचर था। आज भी यह मिक्सचर भाषा खूब फलफूल रही है। ऐसा कुछ हम भी कर सकते हैं। ऐसी भाषा जिसे हिन्दुस्तानी या भारतीय नाम दिया जाए जिसमें उत्तर-दक्षिण-पूरब-पश्चिम सभी जगह की भाषाओँ का घालमेल हो। कोई भी भाषा किसी पर थोपने का इल्जाम भी नहीं लगेगा। आईडिया बुरा नहीं है। आप ही कोशिश करके देखिये

एक देश एक चुनाव की बात चली है, तो यह भी चर्चा कर लेते हैं कि विविधता भारत की एक बहुत ख़ास खूबी है। तरह तरह के लोग, तरह तरह की भाषाएँ, धर्म, मान्यताएं, परम्पराएँ, मौसम इत्यादि। इन विविधताओं के साथ देश भर में तरह तरह की अन्य चीजें भी चलती आईं हैं। राशन कार्ड, एजुकेशन बोर्ड, धर्म आधारित नागरिक कानून, स्कूली यूनिफार्म, पुलिस यूनिफार्म वगैरह वगैरह सब अलग अलग। एक भारतीय अगर एक जगह से दूसरी जगह काम धंधे के लिए जाता रहे तो वह जितना भी कन्फ्यूज़ हो उतना कम है, विदेशी लोगों की तो बात छोड़ दीजिये। इससे मुक्ति का मार्ग खोलता है-‘वन नेशन, वन इलेक्शन।’ अनेकता में एकता को भले ही देश के नारे के रुप में सामने रखा जाता हो। पर राजनीतिक दल जिस तरह बाँटने के काम में जुटे नज़र आते हैं, उससे यह दावा खोखला लगता है। ऐसे में एक चुनाव ही एक ऐसी मंज़िल हो सकती है, जिसे पाने के बाद विभाजनकारी ताक़तों को हौसले पस्त हो सकते हैं।

( लेखक पत्रकार हैं। दैनिक पूर्वोदय से साभार ।)

Yogesh Mishra

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