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दर्द बंटवारे का, ‘खुशखबरी’ रह गई केवल दस घरों में कैद.....

raghvendra
Published on: 29 Dec 2017 1:31 PM IST
दर्द बंटवारे का, ‘खुशखबरी’ रह गई केवल दस घरों में कैद.....
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आलोक अवस्थी

देहरादून: उत्तराखंड की त्रिवेंद्र सरकार को अस्तित्व में आए में नौ महीने हो चुके हैं। ‘खुशखबरी’ केवल दस घरों में कैद है। (एक मुख्यमंत्री और नौ मंत्री) पूरा संगठन सत्ता के बंटवारे को लेकर कसमसा रहा है। कोआपरेटिव और निकाय के चुनाव सर पर हैं। पार्टी संगठन भयभीत है कि उससे पहले यदि ‘दायित्व बांट दिये तो चुनाव से पहले ही विद्रोह का बिगुल न बज जाए।

अब तक प्रदेश की आर्थिक तंगी का बहाना था कि कांग्रेस खजाना लुटा के गई। बोझ कैसे डाल दें सरकार पर? कार्यकर्ताओं के गले ये बात नहीं उतरती कि खजाने भरने की जिम्मेदारी केवल बीजेपी ने ही क्यों उठा रखी है।

पार्टी के नाराज कार्यकर्ता अब नेतृत्व की नीयत पर ही उंगली उठाने लगे हैं। कहते हैं कि हमें दरअसल विपक्ष में रहने की आदत है। सत्ता मिलते ही सारी कटौती हमें घर में दिखने लगती है। ऊपर बैठे (सत्ता) लोगों को ये बर्दाश्त ही नहीं होता कि कार्यकर्ता भी सत्ता के सुख का भागीदार बन सके।

पार्टी संगठन की माने तो लगभग बत्तीस नामों की सूची केन्द्र को भेज चुकी है और वहां से हरी झण्डी की प्रतीक्षा है। कब होगा बंटवारा... पता नहीं! पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष अजय भट्ट भी क्या करें? सिवाय उम्मीद जताने के उनके पास कोई जवाब नहीं है।

‘प्रचंड बहुमत’ के रथ पर सवार भाजपा के रथ का पहिया अनिर्णय के गड्ढे में ध्ंसा हुआ है। ये हाल हर मार्चे पर है सरकार काम कर रही है या कदमताल ये पता करने की इच्छा भी अब कार्यकर्ताओं में नहीं शेष बची है। पहले भी समस्याओं के लिए धरना-प्रदर्शन करते रहे हैं और अब भी वही सूरतेहाल है। अभी हाल में ही विधायक प्रदीप बत्रा के खिलाफ हुआ प्रदर्शन इसका सबसे बड़ा प्रमाण है। हरिद्वार में भी इसी बीते सप्ताह पार्टी के कार्यकर्ताओं को धरना देना पड़ा। सरकारी महकमा आज भी ऐसे व्यवहार करता है जैसे सरकार भाजपा की न होकर कांग्रेस की हो...।

अटल जी के जन्मदिन से अब बीजेपी पार्टी की आर्थिक हालत सुधारने के लिए फंड इकट्ठा करने निकली है। हर विधायक नेता मंत्री को लक्ष्य दिया गया है, धन संजोने का? कांग्रेस के एक बड़े नेता ने व्यंग्य कसा कि अभी भी क्या बीजेपी स्वीकार नहीं कर पाई की वो सरकार में हैं? सरकार आपकी और पार्टी का पेट भरने के लिए चंदा? एक पूर्व संघ के प्रचारक की टिप्पणी सबसे रोचक रही उनके अनुसार हमें विपक्ष की इतनी आदत हो गई है कि हम सत्ता पचा ही नहीं पाते...। उसमें तुर्रा ये कि हमें मुख्यमंत्री का चयन करते समय ‘संघ डी.एन.ए.’ का वो ही प्रचारक नुमा कार्यकर्ता पसंद आता है तो जन्मजात कुंठित हो। जो न तो सत्ता को कार्यकर्ता तक पहुंचा सकता है और न ही उसका खुद भी उपयोग कर पाता है... उनके अनुसार संघ में तीन प्रकार के कार्यकर्ताओं का निर्माण हो रहा है एक सरल-सहज और मित्र दूसरे व्यवहारिक और तीसरे कुंठित। दुर्भाग्य से व्यवहारिक और सहज लोग फिलहाल रेस से बाहर हैं। लॉटरी ‘कुं ठितों’ की लगी हुई है जो न खाएंगे और न ही खाने देंगे।

सारी समस्या की जड़ यही हैं। जब तक पार्टी विपक्ष में रहती है सब ठीक ! और सत्ता पाते ही ‘सत्ता’ कुछ दरवाजों के अंदर कैद हो जाती है बाकी पार्टी संगठन... उसे तो विपक्ष की ही आदत है पूरा कार्यकाल संगठन की तथाकथित मर्यादाओं की रक्षा करते भारी मन से काट लेता है। फिर कहीं बिखराव भी हुआ तो ‘राष्ट्रवाद’ हिन्दुत्व, राम मंदिर आदि धागे हैं ना, फिर पिरो लिए जाएंगे। अनुशासित कार्यकर्ता हैं ना बेचारे कहां जाएंगे। जीना यहां, मरना यहां इसके सिवा जाना कहां? जोर से बोलो वंदे मारतम्। वंदे मातरम...



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राघवेंद्र प्रसाद मिश्र जो पत्रकारिता में डिप्लोमा करने के बाद एक छोटे से संस्थान से अपने कॅरियर की शुरुआत की और बाद में रायपुर से प्रकाशित दैनिक हरिभूमि व भाष्कर जैसे अखबारों में काम करने का मौका मिला। राघवेंद्र को रिपोर्टिंग व एडिटिंग का 10 साल का अनुभव है। इस दौरान इनकी कई स्टोरी व लेख छोटे बड़े अखबार व पोर्टलों में छपी, जिसकी काफी चर्चा भी हुई।

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