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हर दल के लिए ‘अबूझ’ बने राजनीतिक चाणक्य प्रशांत किशोर

raghvendra
Published on: 8 March 2019 8:10 AM GMT
हर दल के लिए ‘अबूझ’ बने राजनीतिक चाणक्य प्रशांत किशोर
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शिशिर कुमार सिन्हा

पटना: चाणक्य की धरती बिहार में अब तक कोई दूसरा चाणक्य नहीं पैदा नहीं हुआ लेकिन जदयू के अंदर इस भूमिका में दो-दो लोगों की उपस्थिति सभी राजनीतिक दलों के लिए अभी बड़ा सवाल है। यह सवाल अब तेजी से जदयू के अंदर ही हर किसी को विचलित कर रहा है, खासकर राज्य स्तर और पटना की राजनीति करने वाले तो बुरी तरह परेशान हैं। मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को लोग एक मयान में दो तलवार के एक्सपर्ट के रूप में भी बोलने लगे हैं। वजह हैं जदयू के पुराने रणनीतिकार आरसीपी सिंह और नए नीति-निर्धारक बने प्रशांत किशोर, यानी पीके। आरसीपी इतने समय से जदयू और नीतीश के साथ हैं कि उन्हें समझना बहुत मुश्किल नहीं है लेकिन पीके की चाल से अन्य राजनीतिक दल भी अनभिज्ञ हैं। इस कारण बिहार की राजनीति में प्रभावी सभी दलों के लिए पीके अबूझ पहेली बने हुए हैं।

कभी पूरी छूट, कभी अंकुश, कभी अविश्वास

पीके को लेकर असमंजस की स्थिति इसलिए है कि राष्ट्रीय अध्यक्ष और मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की मंशा या निर्देश के बगैर अमूमन जदयू में कुछ नहीं होता और देखने वाले लोग यह देख रहे हैं कि कभी पीके को हर बात की छूट मिली दिखती है तो कभी उनपर अचानक अंकुश लगता है। इतना ही नहीं, कई बार तो अविश्वास की स्थिति इतनी मजबूत हो जाती है कि पद-कद में इनसे छोटे नेता भी बहुत कुछ बोल जाते हैं। माना जाता है कि ऐसी बयानबाजी बिना राष्ट्रीय अध्यक्ष की शह के कोई नहीं कर सकता।

ताजा बवाल पीके को लेकर अविश्वास से ही जुड़ा है। एमएलसी नीरज कुमार तक उन्हें सीख दे रहे हैं कि सांसद-विधायक बनाने के मुगालते में पीके न रहें। इस बयान के बाद ‘अपना भारत’ ने जदयू के अंदरखाने चल रही गतिविधियों को समझने की कोशिश की तो सामने आया कि 3 मार्च को गांधी मैदान में राजग की हुई संकल्प रैली में पीके को अहम जिम्मेदारी नहीं दी गई थी या दूसरे शब्दों में सीधे यह भी कह सकते हैं कि रैली का पूरा जिम्मा जदयू के पुराने रणनीतिकार आरसीपी सिंह के पास था।

आरसीपी ने इस रैली में अपनी रणनीति को साबित भी किया। जदयू 20 फरवरी तक रैली को लेकर बहुत उत्साह नहीं दिखा रहा था। सार्वजनिक स्थलों पर भी प्रचार कम ही था। अचानक 10-12 दिनों की मेहनत के साथ जदयू ने रैली में एक तरह से एकाधिकार कर दिखा दिया। रैली में प्रधानमंत्री भी आए थे और भीड़ में भगवा रंग की टोपियों पर छपे कमल पर उनकी नजर कम पड़ी, हरे कैप पर छपे तीर पर ज्यादा रही। बताया जा रहा है कि भीड़ में जदयू समर्थकों की उपस्थिति को प्रधानमंत्री खुद आंक चुके थे। तभी बार-बार मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के पक्ष में ज्यादा बातें कर रहे थे।

प्रधानमंत्री अपनी रौ में नहीं बोलकर नीतीश के हिसाब से ही सब कुछ कह कर पटना के मंच से वापस लौट गए। जो बातें नीतीश बिल्कुल नहीं पसंद करते, वैसी बात प्रधानमंत्री ने एक भी नहीं की। रैली में जदयू की सफलता से पार्टी के अंदर आरसीपी का ग्राफ अचानक बढ़ा है। इसके अलावा आरसीपी सिंह की आईपीएस बेटी लिपि सिंह ने पिछले दिनों मोकामा शेल्टर होम से भागी लड़कियों को वापस पकड़ सरकार की छवि को खराब होते-होते बचा लिया। इससे भी आरसीपी का कद बढ़ा। आरसीपी का ग्राफ बढऩे से पीके का ग्राफ गिरना वैसे भी तय था।

संकल्प रैली से पीके के अलग थलग रहने की वजह उनके अलावा मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ही बता सकते हैं। इस बारे में सवाल करना भी जदयू के अंदर संभव नहीं है। इसके बावजूद यह चर्चा का विषय है क्योंकि पीके अभी संगठन में काफी तेजी से सक्रिय हैं। जिलों में भी जदयू के विस्तार पर ठीकठाक काम कर रहे हैं। पिछले साल पटना यूनिवर्सिटी के चुनाव में पहली बार जदयू को जीत का स्वाद चखाने में पीके की भूमिका अहम रही। इसके अलावा यह भी उनके लिए सुकून की बात थी कि नीतीश ने राष्ट्रीय स्तर पर उन्हें अपने बाद दूसरे नंबर का ओहदा दिया था। पार्टी में बड़ा ओहदा और सार्वजनिक मंचों पर नीतीश के साथ नजर आ रहे पीके को लेकर दूसरे दलों, खासकर कांग्रेस और राजद की चिंता भी वाजिब है। जदयू के अंदर लोग इसलिए परेशान हैं कि आरसीपी का दामन पकड़ें या पीके के साथ चलें। संगठन में नीचे तक कभी आरसीपी एक्टिव होकर निर्देश भेजने लगते हैं तो कभी पीके खुद संदेश पहुंचाने लग जाते हैं। किसकी सुनें और किसे साइड करें, यह सभी के अंदर सवाल है।

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राघवेंद्र प्रसाद मिश्र जो पत्रकारिता में डिप्लोमा करने के बाद एक छोटे से संस्थान से अपने कॅरियर की शुरुआत की और बाद में रायपुर से प्रकाशित दैनिक हरिभूमि व भाष्कर जैसे अखबारों में काम करने का मौका मिला। राघवेंद्र को रिपोर्टिंग व एडिटिंग का 10 साल का अनुभव है। इस दौरान इनकी कई स्टोरी व लेख छोटे बड़े अखबार व पोर्टलों में छपी, जिसकी काफी चर्चा भी हुई।

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