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लोकसभा चुनाव के पहले ही कांग्रेस के बड़े-बड़े दिग्गज हुए ढेर
शिशिर कुमार सिन्हा
पटना। लोकसभा चुनाव में कौन-सा गठबंधन बिहार की 40 सीटों पर आगे रहेगा, यह बताना बड़े-बड़े दिग्गजों के लिए मुश्किल है। सीट बंटवारे के पहले राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन के बहुत ज्यादा मजबूत होने की बात कही जा रही थी लेकिन नामों की घोषणा के साथ राजग कमजोर होता दिखा। वैसे, महागठबंधन भी इसमें पीछे नहीं रहा। सीट बंटवारे में उलटफेर ने उसके भी समीकरण बिगाड़े हैं। यानी, गणित दोनों तरफ बिगड़ा है और परिणाम की कल्पना अब मुश्किल लग रही है। पहले चरण का मतदान हो चुका है। छह चरण बाकी हैं लेकिन पूरे चुनावी चक्र में पहले ही ढेर नजर आ रही है देश की सबसे पुरानी पार्टी कांग्रेस। लालू प्रसाद का राष्ट्रीय जनता दल (राजद) तो फिर भी बड़ा है, कल खड़ी होने वाली विकासशील इंसान पार्टी (वीआईपी) ने भी महागठबंधन के अंदर कांग्रेस को कहीं का नहीं छोड़ा। टिकट की चाह रखने वाले सामान्य प्रत्याशियों की कौन कहे, बिहार में कांग्रेस के दिग्गज महागठबंधन के अंदर पहले ही ढेर हो गए।
दलों के हिसाब से देखें तो राजग में भाजपा और महागठबंधन में कांग्रेस को इस लोकसभा चुनाव ने परिणाम से पहले ही काफी दुर्दिन दिखाए हैं। सीट बंटवारे में उलटफेर के लिए भाजपा में सुशील कुमार मोदी, नित्यानंद राय और भूपेंद्र यादव पर कई तरह के आरोप लगे लेकिन पार्टी ने फिर भी स्थितियां काफी हद तक काबू में कर ली हैं। बेगूसराय में गिरिराज और पटना साहिब में रविशंकर प्रसाद एक तरह से जबरदस्ती लाए जाने के बावजूद अब संभले नजर आ रहे हैं। बांका में भाजपा की बागी पुतुल कुमारी मजबूत स्थिति के कारण राजग प्रत्याशी के लिए मुसीबत बनी हुई हैं। इतना कुछ होने के बावजूद चर्चा में कांग्रेस है। प्रदेश कांग्रेस के चार दिग्गज नेताओं के साथ हुई 'नाइंसाफी' से पार्टी के कार्यकर्ताओं की नाराजगी चुनाव परिणाम को प्रभावित करेगी, इससे इनकार नहीं किया जा सकता।
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'हम' ने कटाया पारंपरिक सीट से निखिल का टिकट
औरंगाबाद सीट से कांग्रेस की चर्चा शुरू हुई, क्योंकि यहां से कांग्रेसी दिग्गज निखिल कुमार का टिकट जीतन राम मांझी की हम (से) ने कटवा दिया। भारतीय पुलिस सेवा से रिटायरमेंट के बाद परिवार की राजनीतिक विरासत संभालने वाले निखिल कुमार कांग्रेस सरकार में नगालैंड, केरल जैसे राज्यों के राज्यपाल रह चुके हैं। पिछले दो लोकसभा चुनावों में हारने के बावजूद इस बार औरंगाबाद से उनकी दावेदारी मजबूत थी। निखिल बिहार के पहले उप मुख्यमंत्री स्व. डॉ. अनुग्रह नारायण सिंह के पोते और दिवंगत मुख्यमंत्री सत्येंद्र नारायण सिन्हा के बेटे हैं। औरंगाबाद सीट पर उनके पिता लगातार जीतते थे, फिर मां और पत्नी भी यहां से सांसद रही हैं। वह खुद भी रहे हैं। इसलिए, इस सीट पर कांग्रेस के अंदर कोई विवाद नहीं था लेकिन महागठबंधन में मांझी ने यह सीट कांग्रेस से छीन ली। काफी विरोध हुआ। अब भी हो रहा, लेकिन निखिल बेटिकट होकर अंतत: शांत हो गए।
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इसके बाद सबसे ज्यादा चर्चा पूर्व क्रिकेटर कीर्ति झा आजाद की रही। कीर्ति भाजपा सांसद थे लेकिन पार्टी पर हमलावर रुख के कारण उनकी विदाई हो गई थी। कीर्ति अपने पिता भागवत झा आजाद की पार्टी कांग्रेस में आए तो दरभंगा सीट पर अपनी दावेदारी कायम रखने के लिए, लेकिन बिहार से ही बेदखल हो गए। दरभंगा सीट महागठबंधन में पहले वीआईपी ले रही थी। 'सन ऑफ मल्लाह' मुकेश साहनी मैथिल ब्राह्मण कीर्ति झा आजाद पर भारी पड़ रहे थे। साहनी ने कीर्ति को मैदान से लगभग हटा दिया, तब राजद ने अचानक यह सीट अपने पुराने भरोसेमंद अब्दुल बारी सिद्दीकी के नाम कर दी। कीर्ति इसके बाद बिहार में जिन-जिन सीटों पर मजबूरी के साथ तैयार होते दिखे, कहीं वीआईपी तो कहीं राजद ने उन्हें नीचा दिखाया। आखिरकार पार्टी के शीर्ष नेतृत्व ने उन्हें संतुष्ट करने के लिए झारखंड के धनबाद सीट पर भेज दिया। धनबाद में कीर्ति की पताका लहराने की संभावना पहले ही मुश्किल नजर आ रही है। तीन बार पार्षद, तीन बार विधायक के बाद तीसरी बार सांसद बनने की तैयारी में जुटे भाजपाई शुपति नाथ सिंह के सामने कीर्ति को इसलिए भी मुश्किल होगी, क्योंकि धनबाद में उनपर 'बाहरी' का टैग भी लगा हुआ है। पशुपति रिकॉर्ड वोट से जीत दर्ज करते रहे हैं, इसलिए इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता है कि कीर्ति मजबूरी में ही उनके सामने उतरे हैं।
डॉ. शकील के कॅरियर में भी ठुंकी अंतिम कील
प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष, लालू प्रसाद की बिहार सरकार में चिकित्सा शिक्षा मंत्री और फिर डॉ. मनमोहन सिंह की केंद्र सरकार में कैबिनेट मंत्री रहे डॉ. शकील अहमद का कॅरियर भी इस बार के टिकट बंटवारे में ढलान में आ गया। वह मधुबनी से टिकट चाह रहे थे लेकिन महागठबंधन में यह सीट वीआईपी को दे दी गई। दशकों के कांग्रेस के वफादार सिपाही रहे डॉ. शकील अहमद अब निर्दलीय लडऩे की तैयारी में हैं। महागठबंधन का प्रत्याशी नहीं हिल रहा है और डॉ. शकील ने मधुबनी के निर्वाचन कार्यालय में चुनाव लडऩे के लिए निर्धारित शुल्क जमा करा दिया है। यह जानकारी सार्वजनिक हो चुकी है, हालांकि नामांकन 16 अप्रैल को किए जाने की बात सामने आ रही है। यह सब महागठबंधन और कांग्रेस के शीर्ष नेतृत्व पर दबाव बनाने के लिए है, लेकिन माना जा रहा है कि अब कुछ होने की उम्मीद नहीं है। अगर वह निर्दलीय उतरते हैं तो महागठबंधन को परेशान करेंगे, साथ ही कांग्रेस में अपनी हालत भी सार्वजनिक कर देंगे।
कांग्रेस में नहीं चली तो रालोसपा से दिलाया टिकट
राजद से कांग्रेस में आने के बाद पार्टी के अंदर सबसे प्रभावशाली नजर आने वाले राज्यसभा सांसद अखिलेश सिंह भी महागठबंधन में राजद के गणित से परेशान हो गए। इस बार वह अपने बेटे को लोकसभा चुनाव में लांच करना चाह रहे थे। सारी ताकत झोंक दी लेकिन बात नहीं बनी। आखिर महागठबंधन में शामिल उपेंद्र कुशवाहा की राष्ट्रीय लोक समता पार्टी (रालोसपा) से मोतिहारी (पूर्वी चंपारण) का टिकट दिलवाया। रालोसपा पर आरोप भी लग रहा है कि उसने इस चुनाव में तीन बार मोतिहारी सीट का सौदा किया और ज्यादा बोली लगाने के कारण अखिलेश सिंह के बेटे आकाश को टिकट दिया। 27 साल के आकाश लंदन में पढ़ाई कर सीधे लौटे और लोकसभा चुनाव में टिकट हासिल कर लिया। केंद्रीय कृषि मंत्री राधा मोहन सिंह के सामने युवा आकाश की जगह रालोसपा में कई मजबूत उम्मीदवार थे, लेकिन कांग्रेस में नहीं चल पाने के कारण इसे प्रतिष्ठा का सवाल बनाने वाले अखिलेश ने अपने बेटे को रालोसपा का टिकट दिलवाया है।