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दलहन उत्पादन: अरहर की जंगली प्रजातियों से मिल सकती हैं बेहतर किस्में
उमाशंकर मिश्र
नई दिल्ली : भारतीय वैज्ञानिकों ने रोगों एवं कीटों के प्रति प्रतिरोधक क्षमता रखने वाली अरहर की कई जंगली प्रजातियों का पता लगाया है। इन प्रजातियों के अनुवांशिक गुणों का उपयोग कीट तथा रोगों से लड़ने में सक्षम और जलवायु परिवर्तन के अनुकूल अरहर की नयी प्रजातियां विकसित करने में किया जा सकता है। दलहन उत्पादन में बढ़ोत्तरी और पोषण सुरक्षा में सुधार के लिए ये प्रजातियां उपयोगी हो सकती हैं।
अरहर की इन प्रजातियों में दस संकरण योग्य प्रजातियों के अलावा कुछ ऐसी प्रजातियां भी शामिल हैं, जिनका संकरण नहीं किया जा सकता। हैदराबाद स्थित इंटरनेशनल क्रॉप्स रिसर्च इंस्टिट्यूट फॉर द सेमी एरिड ट्रॉपिक्स (इक्रीसैट) के वैज्ञानिक कैजनस वंश के पौधों के
गुणों का अनुवांशिक अध्ययन करने के बाद इस नतीजे पर पहुंचे हैं। पौधों का कैजनस वंश फैबेसीए पादप परिवार का सदस्य है। इसकी प्रजातियों में अरहर (कैजनस कैजन) भी शामिल है। कैजनस कैजन एकमात्र अरहर की प्रजाति है जिसकी खेती दुनिया भर में की
जाती है।
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इक्रीसेट की प्रमुख शोधकर्ता डॉ शिवाली शर्मा के अनुसार, “किसानों द्वारा आमतौर पर उगायी जाने वाली अरहर की किस्मों में बार-बार होने वाले रोगों, नयी बीमारियों तथा कीटों के लिए बहुत लचीलापन होता है। अरहर की जो जंगली प्रजातियां अब मिली हैं, वे विभिन्न बीमारियों और कीटों से लड़ने की क्षमता रखती हैं। इन प्रजातियों के गुणों का उपयोग करके नयी नस्लों का विकास किया जा सकता है। इस तरह किसानों के जीवन यापन में सुधार, पोषण सुरक्षा और उत्पादन में बढ़ोत्तरी की जा सकती है।”
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अरहर अनुसंधान से जुड़ी यह पहल भारत-म्यांमार अरहर कार्यक्रम का हिस्सा है। ग्लोबल क्रॉप डाइवर्सिटी ट्रस्ट (जीसीडीटी) के सहयोग से संचालित इस परियोजना के अंतर्गत भारत और म्यांमार के विभिन्न कृषि क्षेत्रों और सामाजिक-आर्थिक परिस्थितियों में पौधों की प्री-
ब्रीडिंग गतिविधियों का मूल्यांकन किया गया है। अगले दो वर्षों में भारत और म्यांमार के विभिन्न स्थानों पर इन प्रजातियों के अनुकूलन का परीक्षण किया जाएगा।
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किसी जंगली पौधे के गुणों और उसकी अनुवांशिक विशेषताओं की पहचान के लिए अपनायी जाने वाली गतिविधियों को प्री-ब्रीडिंग कहा जाता है। प्लांट ब्रीडर जंगली पौधों में मिले वांछित गुणों अथवा अनुवांशिक विशेषताओं को प्रचलित पौधों की प्रजातियों में
स्थानांतरित करके पौधों की नयी किस्मों का विकास करते हैं।
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डॉ शर्मा के मुताबिक, “वैज्ञानिक पौधों के विशिष्ट जर्म प्लाज्म के संग्रह का उपयोग पौधों की नयी नस्लों के विकास के लिए करते हैं। नयी नस्लों के विकास के लिए इनका उपयोग बार- बार होने से विकसित फसल की नस्लों का अनुवांशिक आधार सीमित हो जाता है। इस तरह फसलों के सीमित अनुवांशिक आधार के कारण वे आपदाओं के प्रति अधिक संवेदनशील होती हैं। अरहर के साथ भी इसी तरह की समस्या रही है। फसलों की अनुवांशिक विविधता और उसके आधार पर नयी किस्मों का विकास इस तरह की चुनौतियों से लड़ने में मददगार हो सकता है।”
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इस अध्ययन में इक्रीसैट के वैज्ञानिकों के अलावा तेलंगाना स्टेट यूनिवर्सिटी, आचार्य एनजी रंगा एग्रीकल्चरल यूनिवर्सिटी और म्यांमार के डिपार्टमेंट ऑफ एग्रीकल्चरल रिसर्च के शोधकर्ता शामिल हैं।
(इंडिया साइंस वायर)