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2018 के चुनाव : भाजपा और कांग्रेस की सरकारों की अदला-बदली

raghvendra
Published on: 22 Dec 2017 5:52 PM IST
2018 के चुनाव :  भाजपा और कांग्रेस की सरकारों की अदला-बदली
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कपिल भट्ट/रामकृष्ण वाजपेयी

राजस्थान विधानसभा के चुनाव में अभी एक साल का वक्त बाकी है, लेकिन चुनावी सरगर्मियां शुरू हो गयी हैं। अगले महीने राजस्थान में दो लोकसभा और एक विधानसभा की सीटों के लिए होने वाले चुनावों के साथ ही इसमें और तेजी आने की उम्मीद है। पिछले चार दशकों के राजस्थान के राजनीतिक परिदृश्य को देखें तो यह दो दलों कांग्रेस और भाजपा पर ही केंद्रित नजर आता है।

लगभग हर चुनाव में भाजपा और कांग्रेस की सरकारों की अदला-बदली होती रही है। पिछले तीन विधानसभा के चुनावों दो बार भाजपा और एक बार कांग्रेस की सरकार बनी है। 2003 और 2013 में वसुंधरा राजे के नेतृत्व में भाजपा ने सरकार बनाई तो 2008 के चुनावों में अशोक गहलोत की अगुवाई में कांग्रेस की सरकार बनी।

भाजपा ने दोनों ही चुनावों में भारी बहुमत के साथ सरकार बनाई थी। 2003 के चुनावों में भाजपा को 200 में से 120 सीटें मिलीं तो 2013 के चुनावों में उसे 163 सीटों का बंपर बहुमत मिला, जबकि कांग्रेस 2009 में बहुमत से दूर रहकर निर्दलीय और अन्य छोटे दलों की मदद से सत्ता पर काबिज हो सकी थी।

सोशल इंजीनियरिंग से भाजपा को फायदा

2003 के चुनावों में वसुंधरा राजे की अगुवाई में भाजपा को पहली बार विधानसभा में पूर्ण बहुमत मिला था, जिसकी सीधी वजह थी वसुंधरा की सोशल इंजीनियरिंग। वसुंधरा ने इन चुनावों में भाजपा की परंपरागत लाइन को तोड़ते हुए नए सिरे से राजस्थान के जातीय समीकरणों को साधा।

राजे ने कांग्रेस के परंपरागत वोट बैंक में ऐसी सेंधमारी की कि वह चुनावों में चारों खाने चित हो गई। राजस्थान में जाट, आदिवासी और दलित कांग्रेस के परंपरागत तौर पर वोट बैंक माने जाते रहे थे। वसुंधरा ने सबसे पहले इन्ही वोटों पर ध्यान देते हुए इन्हें कांग्रेस से तोडक़र भाजपा के साथ लाने में कामयाबी हासिल की।

नतीजतन कांग्रेस न केवल सत्ता से बाहर हो गई बल्कि यह वोट बैंक अभी तक कांग्रेस के पाले में नहीं लौट पाया है। यह तीन जातियां राजस्थान के जातिगत ताने-बाने में अपना प्रभुत्व रखती हैं। इनके अलावा ब्राह्मण, मुसलमान, बनिया व ओबीसी राजस्थान का प्रमुख वोट बैंक माने जाते हैं।

नेताओं के ताकत की होगी परीक्षा

राजस्थान में होने वाले चुनाव में जातिगत समीकरणों की बड़ी भूमिका होगी। साथ ही यह चुनाव दोनों दलों के नेताओं का टेस्ट भी होगा। जहां तक भाजपा का सवाल है वह अभी तक पूरी तरह मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे पर ही निर्भर नजर आ रही है। अगर कोई बहुत बड़ा बदलाव नहीं हुआ तो भाजपा अगला चुनाव वसुंधरा राजे के नेतृत्व में ही लड़ेगी। हालांकि केंद्र सरकार में भाजपा के राजस्थान से कई मंत्री जरूर हैं, लेकिन इनमें कोई भी प्रदेश में वसुंधरा राजे को चुनौती देने की स्थिति में नहीं है। वहीं कांग्रेस में करीब आधा दर्जन नेता प्रदेश में प्रभावी हैं।

राजस्थान कांग्रेस के अध्यक्ष सचिन पायलट जहां कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी की कोर टीम के सदस्य हैं तो गुजरात चुनावों के बाद अशोक गहलोत कांग्रेस की राष्ट्रीय राजनीति में ताकतवर होकर उभरे हैं। जहां तक सीएम के चेहरे का सवाल है तो भाजपा में वसुंधरा राजे निर्विवाद रूप से एकमात्र चेहरा मानी जा सकती हैं। वसुंधरा का मुख्यमंत्री के रूप में यह दूसरा कार्यकाल है।

वसुंधरा के पिछले कार्यकाल से तुलना करने वाले इस बार के उनके कार्यकाल को उतना बेहतर नहीं मान रहे हैं। हालांकि वसुंधरा जनता के बीच धुआंधार दौरों से अपनी लोकप्रिय छवि बनाए रखने का भरसक प्रयास कर रही हैं। भाजपा के पक्ष में गुजरात और हिमाचल विधानसभा के नतीजे भी हैं जहां पार्टी भगवा परचम फहरा चुकी है।

वहीं दूसरी ओर कांग्रेस के लिए उसके नेताओं की आंतरिक गुटबाजी सबसे बड़ी समस्या है। राजस्थान कांग्रेस इन नेताओं के अलग-अलग गुटों में बंटी हुई है। अब देखना है कि पार्टी आलाकमान इन गुटों को कैसे साध पाता है। राजस्थान के विधानसभा चुनाव अगले साल नवंबर में होने है, लेकिन चुनावी सरगर्मियां जोर पकडऩे लगी हैं।

जातीय समीकरण का असर

पिछले दिनों कुछ ओपिनियन पोल आए थे। उनमें 2018 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस की वापसी की बात कही गई थी, लेकिन मोदी का करिश्मा जिस तरह से दिखाई दे रहा है उससे स्पष्ट है कि यहां भी मोदी फैक्टर असर जरूर दिखाएगा। राजस्थान में चार करोड़ 26 लाख मतदाता हैं।

जातीय आधार पर उच्च जातियां 26 प्रतिशत, अन्य पिछड़ा वर्ग 39 प्रतिशत, अनुसूचित जाति 17 प्रतिशत व अनुसूचित जनजाति 13 प्रतिशत है। उच्च जाति में ब्राह्मण और राजपूत, अन्य पिछड़ा वर्ग में जाट, माली, गूजर, अनुसूचित जाति में बलाई व रैगर तथा अनुसूचित जनजाति में मीणा और भील प्रभावशाली जातियां हैं। ये सभी जातियां चुनाव को प्रभावित करती हैं।

पिछले चुनाव का गणित

2013 के विधानसभा चुनाव में भाजपा को 45.5 प्रतिशत मतों के साथ 163 सीटें मिली थीं। कांग्रेस को 33.3 फीसद मतों के साथ मात्र 21 सीटों पर संतोष करना पड़ा था। बहुजन समाज पार्टी को मात्र 3.5 प्रतिशत मतों के साथ तीन सीटें मिली थीं जबकि अन्य को नौ सीटें मिली थीं।

2018 के चुनाव के लिए कांग्रेस जहां सचिन पायलट व अशोक गहलोत को आगे करके समर में उतरने की तैयारी कर रही है वहीं भाजपा की ओर से अभी तक वसुंधरा राजे पर भरोसा न करने के कोई आसार नहीं दिख रहे हैं। चुनाव में आरक्षण व किसानों का मुद्दा उभरने की संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता।

वोट का रास्ता पेट से होकर

पुरानी कहावत है कि दिल का रास्ता पेट से होकर जाता है। शायद इसे देखते हुए ही राजस्थान सरकार गरीबों का दिल जीतने के लिए उनको सस्ते दामों पर कैलोरी से भरपूर गरमा गरम भोजन खिला रही है। जिस तरह की रुचि प्रदेश सरकार इस योजना को आगे बढ़ाने में दिखा रही है उससे लगता है कि अगले विधानसभा चुनावों में यह उसका प्रमुख चुनावी हथियार हो सकता है।

‘सबके लिए भोजन-सबके लिए सम्मान’ के ध्येय वाक्य के साथ 31 अक्टूबर, 2015 को मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे ने अन्नपूर्णा रसोई योजना की शुरुआत की थी। यह भोजन स्मार्ट रसोई वैनों द्वारा वितरित किया जा रहा है। सरकार का इस योजना के माध्यम से राज्य के सभी 191 नगर निकायों में लगभग 500 स्मार्ट रसोई वैनों से रोजाना 4 लाख, 50 हजार जरूरतमंद लोगों को रियायती दर पर पौष्टिक भोजन उपलब्ध करवाने का लक्ष्य है। योजना के प्रथम चरण में 12 शहरों में 80 रसोई वैनों का संचालन किया जा रहा है जिनके माध्यम से लगभग 21000 व्यक्ति प्रतिदिन नाश्ता व भोजन कर रहे हैं।

तमिलनाडु में जयललिता की अम्मा कैंटीन की सफलता के बाद मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे को लगता है कि उनकी अन्नपूर्णा रसोई भी राजनीतिक रूप से फायदेमंद रहेगी। शायद इसीलिए उनका अन्नपूर्णा रसोई का जोर है। इसमें राजस्थानी व्यंजन पर दाल बाटी, बाजरे की रोटी और मक्के की खिचड़ी जैसे आइटमों पर जोर दिया गया है।

यह भोजन गरीबों के लिए रियायती दरों पर उपलब्ध करवाया जा रहा है। भोजन का ज्यादातर खर्च सरकार उठा रही है। योजना में 5 रुपये में नाश्ता, 8 रुपये में दोपहर एवं रात्रि का भोजन दिया जा रहा है जबकि लंच की असल कीमत 23.70 रुपए और नाश्ते की 21.70 रुपए है।

राजस्थान के अलावा कर्नाटक, मध्य प्रदेश, दिल्ली, आंध्र प्रदेश जैसे राज्य भी अपने यहां ऐसी ही योजनाएं शुरू कर चुके हैं। लेकिन राजनीतिक माइलेज लेने पर नजर सब राज्यों की है, जो उनके इस योजना के नामकरण से स्पष्ट हो जाता है। कर्नाटक में जहां इस योजना का नाम इंदिरा कैंटीन है तो मध्य प्रदेश में इसका नाम दीनदयाल रसोई है। राजस्थान के साथ मध्य प्रदेश और कर्नाटक में आने वाले एक साल में चुनाव होंगे, अब यह देखना दिलचस्प होगा कि यहां की सरकारें पेट के रास्ते गरीब के दिल तक पहुंचने में कितनी कामयाब होंगी।

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राघवेंद्र प्रसाद मिश्र जो पत्रकारिता में डिप्लोमा करने के बाद एक छोटे से संस्थान से अपने कॅरियर की शुरुआत की और बाद में रायपुर से प्रकाशित दैनिक हरिभूमि व भाष्कर जैसे अखबारों में काम करने का मौका मिला। राघवेंद्र को रिपोर्टिंग व एडिटिंग का 10 साल का अनुभव है। इस दौरान इनकी कई स्टोरी व लेख छोटे बड़े अखबार व पोर्टलों में छपी, जिसकी काफी चर्चा भी हुई।

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