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विशेष : 69 साल का गणतंत्र - कहीं तरक्की तो कहीं संघर्ष की दास्तान

raghvendra
Published on: 27 Jan 2018 11:52 AM GMT
विशेष : 69 साल का गणतंत्र - कहीं तरक्की तो कहीं संघर्ष की दास्तान
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जिला मुख्यालय पहुंचने के लिये जाना पड़ता है वाया बिहार

पूर्णिमा श्रीवास्तव

गणतंत्र दिवस पर जहां प्रगति और विकास का गुणगान होता है वहीं 14 हजार की आबादी वाला महराजगंज का सोहगीबरवा गांव विकास की मूलभूत शर्तों को भी पूरा करता नहीं दिख रहा है। महराजगंज मुख्यालय तक पहुंचने के लिए इस गांव के बाशिंदों को पहले नेपाल या बिहार जाना होता है। इसके बाद वह कुशीनगर होते हुए मुख्यालय तक पहुंचते हैं। गांव में सडक़ और पानी की व्यवस्था नहीं है।

कहने को गांव में छह माह पहले कुशीनगर जिले के अफसरों की पहल पर बिजली के पोल लग गए हैं लेकिन कनेक्शन इक्का दुक्का घरों तक ही पहुंचा है। कनेक्शन देने के नाम पर कुशीनगर के अफसर कहते हैं कि यह महराजगंज के बिजली अफसरों का काम है।

सोहगीबरवा निवासी अभिषेक, विकास और अम्बिका प्रसाद का कहना है कि गांव में कोई प्रगति नहीं हुई है। गांव के अमितेश का कहना है कि रोहुआ नाले पर पुल न बनने से अभी भी बरसात में लोग नाव के जरिये ही गांव में आते-जाते हैं। जिला, तहसील एवं ब्लाक मुख्यालय से गांव को जोडऩे के लिए प्रस्तावित सडक़ की फाइल धूल फांक रही है। बाढ़ के दिनों में गांव का संपर्क देश-दुनिया से कट जाता है।

ग्रामीणों ने कहा कि सन 1950 में बना आयुर्वेदिक अस्पताल वर्षों से डाक्टर व फार्मासिस्ट विहीन पड़ा है। राजकीय पशु चिकित्सालय पर भी ताला लटका हुआ है। पिछले विधानसभा चुनाव से पहले गांव के लोगों ने बुनियादी समस्याओं को लेकर मतदान के बहिष्कार का एलान किया था। जिसके बाद तत्कालीन डीएम ने गांव पहुंचकर विकास योजनाओं को लागू करने का वादा किया था। गांव की विमलावती का कहना है कि शादी को 40 वर्ष हो गए। गांव में कुछ बदलाव नहीं दिखता। गांव में बिजली के खंभे लगे तो उम्मीद बंधी, लेकिन कुछ ही घरों तक बल्ब जल सका।

70 वर्षीय गनेशी लाल का कहना है कि गांव में प्राथमिक स्कूल तो हैं लेकिन कोई शिक्षक यहां आना नहीं चाहता। शिक्षा मित्रों और अनुदेशकों के भरोसे कक्षा आठ तक की पढ़ाई हो पाती है। वर्ष 2014-15 में गांव का चयन लोहिया गांव में हुआ था। तब जूनियर हाईस्कूल के एक एक कमरा बन गया लेकिन उसमें कुर्सी, मेज नहीं आ सका। स्कूल के नाम पर शिक्षक भी हैं, छात्र भी लेकिन पढ़ाई नहीं होती है। जंगलों से घिरा यह क्षेत्र यातायात एवं संपर्क मार्ग से वंचित है।

निचलौल तहसील मुख्यालय से सोहगीबरवा सीधे पहुंचना काफी मुश्किल है। सीधे पहुंचने के लिए नारायणी नदी को नाव से पार करना पड़ता है। बरसात के दिनों में पानी बढ़ जाने से यह मार्ग भी बंद हो जाता है। यहां पहुंचने के लिए पहले कुशीनगर जनपद फिर बिहार प्रान्त के सडक़ मार्ग होते जाने की मजबूरी है।

ग्राम प्रधान रंभा देवी के पति विनय सिंह का कहना है कि ग्रामीणों द्वारा नारायणी नदी के गहनू घाट से सोहगीबरवा तक पीपे का पुल बनाने की मांग भी उठती रही है, लेकिन इस पर न तो जन प्रतिनिधि ध्यान देते हैं और न ही प्रशासन। प्रशासन ने गांव में प्रकाश व्यवस्था को सुदृढ़ करने के लिए नेडा की ओर से सोलर लाइटें लगवाई है। मगर वह भी बैट्री बदलने की खर्चीली प्रक्रिया व रखरखाव के अभाव में बेकार साबित हो गई।

खेती में रमा इंजीनियर का मन

लखनऊ। खेती में अगर इंजीनियरिंग का समावेश हो जाए तो बेहतर परिणाम सामने आ सकते हैं। यह कथन सफल किसानों में शुमार संजय उपाध्याय पर सटीक बैठता है। उन्होंने माता-पिता की इच्छा के अनुरूप इंजीनियरिंग की पढ़ाई करके एक अच्छी नौकरी तो हासिल कर ली,लेकिन कुछ बेहतर करने की इच्छा उन्हें खेतों की ओर ले आई और यहीं से उनकी जिंदगी पलट गई। आज स्थिति यह है कि आसपास के काफी किसाना उनसे सलाह-मशविरा करने के लिए आते हैं।

  • पढ़ाई और पैशन बिल्कुल अलग : संजय के मुताबिक सबके माता-पिता की तरह उनके पैरेंटस की इच्छा भी उन्हें इंजीनियर बनाने की थी। मैकेनिकल इंजीनियरिंग की पढ़ाई के बाद वे आज कृभको में तैनात हैं। संजय का कहना है कि मशीनों के बीच मेरा जीवन रम चुका था, लेकिन जब बात पैशन की आती है तो मेरी प्राथमिकता में पर्यावरण और इंसानी सेवा का जूनून ही रहता है। यही कारण है कि जॉब के साथ ही लोगों को जहर मुक्त खाद्यान्न देने का काम वर्षों से कर रहा हूं।

  • आठ घंटे की ड्यूटी के बाद करते हैं खेती : संजय वर्तमान में शाहजहांपुर के कृभको फर्टिलाइजर्स में तैनात हैं। ऐसे में खेती के पैशन को जीने के लिए अपने कार्यक्षेत्र के पास ही वर्ष 2013 में एक हेक्टेयर खेत खरीदा और इसके बाद उस जमीन पर खेती शुरू की। इसके लिए 8 घंटे की सख्त डयूटी के बाद के घंटे खेती को दिए। कुछ ही समय में इसके सफल परिणाम आना शुरू हो गए। संजय के मुताबिक इंजीनियर तार्किक सिद्धांत पर काम करता है। यह दिमाग जब खेती में लगा तो सकारात्मक परिणाम आने लगे। इसी एक हेक्टेयर से साढ़े तीन लाख से 6 लाख सालाना का टर्नओवर प्राप्त होने लगा। इसके बाद तो आसपास के किसान अपनी समस्याएं लेकर मार्गदर्शन के लिए आने लगे और धीरे-धीरे दायरा बढ़ता गया।

  • 2008 में शुरू किया गौपालन : संजय उपाध्याय का कहना है कि वर्ष 2008 में उनकी आध्यात्म की तरफ रुचि हुई। अपने तैनाती स्थल के आसपास कई गायों को भूखे-प्यास से तड़पते देखा तो गौपालन शुरू किया। इसके बाद वर्ष 2011 में मथुरा में प्राकृतिक तरीकों से खेती करने के शिविर में जाकर खेती के नए गुण और तरीके सीखे। जब वहां से लौटे तो अपने गृह जनपद बरेली की फरीदपुर तहसील मे बटाई पर खेती शुरू की। इसके सार्थक परिणाम मिले तो अपने प्रयासों को आगे बढ़ाया। आज उनके पास आसपास के कई किसान सलाह मशविरा के लिए आते हैं।
  • औषधियां उगाने पर कर रहे काम : संजय उपाध्याय खेती के बाद अपने कारवां को आगे बढ़ाते हुए सुगंधित औषधियों को उगाने की ओर बढ़ रहे हैं। इसके लिए बाकायदा छुट्टी लेकर कई शिविरों में शिरकत कर चुके हैं। वे अभी इस दिशा में अध्?ययन कर रहे हैं। उनका लक्ष्य है कि धीरे-धीरे बड़े पैमाने पर सुगंधित औषधियों की खेती करके किसानों को उनकी आय दोगुना करने की दिशा में प्रेरित करना। उनका कहना है कि वे पर्यावरण को सुरक्षित रखने और इंसानों को अच्छी सेहत प्रदान करने की दिशा में भी प्रयास करते रहेंगे।

कलम छोड़ उठाया हल, अब कमा रहीं लाखों

लखनऊ। जिस उम्र में लड़किया घर की चहारदीवारी के खेलती-कूदती हैं, उस उम्र में पिता के साथ खेत में हल संभालना मामूली काम नहीं मगर मंजू पाठक ने यह काम बखूबी किया। मंजू पिछले 16 सालों से खेती के काम में जुटी हुई हैं। मंजू ने बचपन में अपने इलाके की गरीबी को देखा और अपने घर को संभालने के लिए पिता के साथ कंधे से कंधा मिलाकर पुश्तैनी खेती को संभाल लिया। इतना ही नहीं उन्होंने पारंपरिक खेती के तरीकों को त्यागकर नए तरीके अपनाए और अब लाखों की कमाई कर रही हैं।

  • 2001 में शुरू की पिता की मदद : मंजू पाठक ने बताया कि वर्ष 2001 में उन्होंने जब अपने पिता चंद्रभान से खुद खेती करने की बात कही तो उन्हें विश्वास नहीं हुआ। उन्हें लगा कि मैं अभी जोश में बोल रही हूं, लेकिन शायद आगे खेती न करूं। लेकिन जब 2001 में पिता के कंधे से हल लेकर अपने कंधे पर रखा तो उसके बाद से यह सिलसिला आज तक जारी है। मैं महोबा में ही अपने पुश्तैनी खेती करती हूं। ज्यादातर सब्जी ही उगाते हैं। करीब 25 बीघे की खेती में 10 लाख तक की सालाना आय हो जाती है।

  • पति ने किया सपोर्ट : मंजू का कहना है कि उनके पति संतोष पाठक भी खेती करते हैं। उन्होंने मुझे खेती को बेहतर तरीके से करने के लिए प्रेरित किया। हम दोनों मिलकर किसानों को अच्छे ढंग से खेती करने के लिए मार्गदर्शन और जरूरी चीजें भी मुहैया कराते हैं। दोनों मिलकर गरीब किसानों की काउंसिलिंग करते हैं, उनकी उपज को बढ़ाने के तरीके बताते हैं और उनकी उपज को बेहतर जगह बेचने में मदद भी करते हैं।

  • छोटी उम्र से ही परिवार की मदद : मंजू ने बताया कि उन्होंने 2006 में बीए किया। उन्होंने खेती के साथ पढ़ाई भी जारी रखते हुए बीए किया। उनकी हमेशा से खेती में रुचि रही। बीए तो बस परिवार वालों के कहने पर कर लिया। वे खेती को ही प्राथमिक कार्य के रूप में करती हैं। इसके अलावा महिलाओं के सशक्तिकरण के कई कार्यक्रमों का संचालन करती रहती हैं। मंजू के मुताबिक उन्होंने बहुत छोटी उम्र से ही अपने परिवार को सपोर्ट किया। महिलाएं हर क्षेत्र में अच्छा काम कर सकती हैं। कुछ महिलाएं यह फैसला खुद लेती हैं और कुछ को प्रेरित करना पड़ता है। मंजू महिलाओं को खेती के जरिए अपनी किस्मत संवारने के गुण भी सिखाती हैं।

कुशीनगर जिले का ऐसा गांव जहां आज भी है अंधेरा

कुशीनगर जिले के दुदही विकासखण्ड के ग्राम पंचायत चौबेया पटखौली के लोग आज तक बिजली के उजाले को नही देख सके हैं। यह गांव तहसील तमकुहीराज के अंतर्गत आता है। गाँव के लोग वर्षों से बिजली के लिए संघर्ष कर रहे हैं। गाँव के युवा अरविंद सागर की अगुआई में ग्रामीणों ने कई बार नेताओं - अधिकारियों के चक्कर लगाये परन्तु आश्वासन के सिवा कुछ हाथ नहीं लगा।

बीते गत 10 जुलाई को अरविंद कुमार सागर की अगुवाई में ग्रामीणों ने भूख हङ़ताल भी की थी। कांग्रेस विधायक अजय कुमार लल्लू ने दो महीने के अंदर बिजली लगवाने की आश्वासन देकर भूख हङ़ताल समाप्त करवाई थी पर सात महीने हो गए बिजली नहीं आयी तो नहीं आयी। अरविंद सागर ने बताया कि बिजली की मांग को लेकर डीएम, विधायक, सांसद, बिजली मंत्री, मुख्यमंत्री, प्रधानमंत्री तक पत्र लिख चुके हैं लेकिन कार्रवाई सिफर है।

40 साल से गांव का नक्शा खोज रहे ग्रामीण

तेज प्रताप सिंह

गोंडा। जिले की तहसीलों का हाल-बेहाल है और सूबे में सरकारें भले बदलती हों, लेकिन व्यवस्था नहीं बदलती। जिले की तरबगंज तहसील के उमरीबेगमगंज गांव का बंदोबस्ती नक्शा 40 साल से गायब है। ग्रामीण तहसील के चक्कर काटते परेशान हैं लेकिन कोई फर्क नहीं पड़ रहा।

सरकारी व्यवस्था की सक्रियता जानने के लिए तरबगंज तहसील का एक गांव ही काफी है। उमरीबेगमगंज गांव का भू-राजस्व मानचित्र चार दशक पूर्व रहस्यमय परिस्थितियों में गुम हो गया था। पहले नक्शे की तलाश हुई, लेकिन जब पता नहीं चला तो नक्शा गायब होने का फायदा उठाकर सरकारी जमीनों पर कब्जे का खेल शुरू हो गया।

ग्रामीणों के अनुसार 40 साल से नक्शा के लिए अफसर लिखा-पढ़ी कर रहे हैं लेकिन आज तक नक्शा उपलब्ध नहीं हो सका है। इस कारण जमीनों की पैमाइश रुकी है, जबकि गांव में लोगों ने चक रोड और रास्ता काटकर खेतों में मिला लिया है। लेखपाल नक्शा न होने की बात बताकर पल्ला झाड़ लेता है। गांव के चारागाह, ग्राम समाज की जमीन और तालाबों पर भी कब्जा हो चुका है। उमरी गांव का नक्शा रेकार्ड रूम में भी नहीं है।

  • 84 मजरों में बसी 12 हजार आबादी : तरबगंज तहसील का उमरीबेगमगंज गांव कुल 84 मजरों में बसा है। इस गांव की आबादी 12 हजार से अधिक है। सबसे बड़े गांव उमरी समेत ग्राम सभा में उमरी बाजार, बेगमगंज बाजार, अट्ठैसा, सूर्य बख्श पुरवा, बाबा कुट्टी, मुरावन पुरवा, मंगलपुरवा, नाऊ पुरवा, भैरम पुरवा, विन्ध्या तिवारी पुरवा, तेली पुरवा, सुब्बापुरवा, बंधूपुरवा, करिया मिश्र पुरवा, लोनियन पुरवा, मिठवनिया, ठाकुर द्वारा, माली पुरवा, गोंडिय़न पुरवा, जेठासी, दूबे पुरवा, चोटाही, बड़हन पुरवा, नौसड़ा, चौहान पुरवा, पासी पुरवा, मिश्रन पुरवा, टेपरा, नााहरा, लोनियन पुरवा माझा, राम दत्त पुरवा, कोरी पुरवा, बाबागंज,बंधा चौराहा आदि को मिलाकर 84 मजरे हैं।
  • बैंक और थाना भी है गांव में : बड़ी ग्राम सभाओं में शुमार इस गांव में उमरी बाजार, बेगमगंज, अट्ठैसा बाजार के अलावा थाना, आर्युवेदिक अस्पताल और सर्व यूपी ग्रामीण बैंक, इलाहाबाद बैंक की शाखा भी है। लेकिन कोई पंचायत भवन नहीं है।

  • चार दशक से मानचित्र के लिए चल रही लड़ाई : नक्शे के लिए चल रही लड़ाई हाईकोर्ट तक पहुंच गई है। प्रधान प्रतिनिधि रामायण सिंह बताते हैं कि उच्च न्यायालय ने राजस्व परिषद को वर्ष 2013 में मैप तैयार कराने के फरमान जारी किए थे। 20 दिसंबर 2013 को नक्शे की पांच प्रतियां गांव के ही एक व्यक्ति को मिली थी, जिसे थानाध्यक्ष के माध्यम से तहसील प्रशासन को सौंप दिया गया। चार वर्ष बीत चुकेे हैं, मगर नक्शा तैयार नहीं करा सका है। किसान आनंद सिंह बबलू कहते हैं कि लेखपाल को पैमाइश करने से इंकार कर देते हैं।

किसान इंद्र बहादुर दूबे ने कहा कि नक्शा न होने के खेत की हदबरारी नहीं हो सकी है। सत्य प्रकाश सिंह ने बताया कि गांव के कमजोर लोगों की जमीन पर दबंग लोग कब्जा कर रहे हैं। नक्शा न होने के कारण जमीन की पैमाइा नहीं हो सकती है। तरबगंज के तहसीलदार श्याम कुमार ने बताया कि उमरीबेगमगंज गांव का नक्शा बनाने के लिए जिला एवं शासन को पत्र भेजा गया है। राजस्व विभाग की टीम लगाई गई है, काम चल रहा है। जल्द ही नक्शे को तैयार कराकर सत्यापन कराया जाएगा।

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राघवेंद्र प्रसाद मिश्र जो पत्रकारिता में डिप्लोमा करने के बाद एक छोटे से संस्थान से अपने कॅरियर की शुरुआत की और बाद में रायपुर से प्रकाशित दैनिक हरिभूमि व भाष्कर जैसे अखबारों में काम करने का मौका मिला। राघवेंद्र को रिपोर्टिंग व एडिटिंग का 10 साल का अनुभव है। इस दौरान इनकी कई स्टोरी व लेख छोटे बड़े अखबार व पोर्टलों में छपी, जिसकी काफी चर्चा भी हुई।

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