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'संघ के आंगन' से प्रणब दा ने विरोध करने वालों को आईना दिखा दिया है
नागपुर : पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने कांग्रेस नेताओं की तमाम अपीलों को दरकिनार करते हुए गुरुवार को आरएसएस के दीक्षांत समारोह में हिस्सा लिया। इस मौके पर उन्होंने कहा कि मैं यहां राष्ट्र, राष्ट्रवाद व राष्ट्रीयता की बात करने आया हूं क्योंकि तीनों को अलग-अलग रूपों में देखना मुश्किल है।
उन्होंने कहा कि देश के प्रति निष्ठा ही देशभक्ति है। भारत के दरवाजे सभी के लिए खुले हुए हैं और विविधता ही भारत की ताकत है। असहिष्णुता से हमारी राष्ट्रीय पहचान धूमिल होती है। पूर्व राष्ट्रपति ने कहा कि अगर हम भेदभाव और नफरत करेंगे तो यह हमारी पहचान के लिए खतरा बन जाएगा। उन्होंने कहा कि धर्म कभी भारत की पहचान नहीं हो सकता। संविधान में आस्था ही असली राष्ट्रवाद है।
मुखर्जी ने कहा कि मैं पचास साल के अपने सार्वजनिक जीवन के कुछ सार आपके साथ साझा करना चाहता हूं। देश के मूल विचार में बहुसंख्यकवाद और सहिष्णुता है। ये हमारी समग्र संस्कृति है जो कहती है कि एक भाषा, एक संस्कृति नहीं बल्कि विविधता ही भारत की ताकत है। देश के 1.3 अरब लोग 122 भाषाएं और 1600 बोलियां बोलते हैं। यहां मुख्य रूप से सात धर्मों के लोग हैं मगर तथ्य, संविधान और पहचान एक ही है और वह है भारतीय।
देश के प्रति समर्पण ही राष्ट्रीयता
मुखर्जी ने कहा कि देश का मतलब एक बड़ा समूह है जो एक क्षेत्र में समान भाषाओं और संस्कृति को साझा करता है। देश के प्रति समर्पण और आदर का नाम ही राष्ट्रीयता है। देश के इतिहास की चर्चा करते हुए उन्होंने कहा कि भारत खुला समाज है। भारत सिल्क रूट से जुड़ा हुआ था। हमने संस्कृति, आस्था, आविष्कारों और महान व्यक्तियों की विचारधारा को साझा किया है। बौद्ध धर्म के प्रभाव की याद दिलाते हुए उन्होंने कहा कि यह भारत, मध्य एशिया, चीन तक फैला। इस पर हिंदुओं का प्रभाव रहा है। मेगस्थनीज व ह्वेनसांग जैसे यात्री भारत आए और उन्होंने भारत को प्रभावी प्रशासनिक व्यवस्था, सुनियोजित बुनियादी ढांचे और व्यवस्थित शहरों वाला देश बताया।
कोई नहीं खत्म कर पाया हमारी सभ्यता
दादा ने कहा कि 5000 साल पुरानी हमारी सभ्यता को कोई भी विदेशी आक्रमणकारी और शासक कभी खत्म नहीं कर पाया। कई लोगों ने सैकड़ों सालों तक भारत पर शासन किया और फिर भारत पर मुस्लिम आक्रमणकारियों का आधिपत्य स्थापित हो गया। 12वीं सदी के बाद भारत में 600 साल मुस्लिम शासकों का राज रहा। बाद में व्यापार के बहाने ईस्ट इंडिया कंपनी भारत में आई और उसके बाद देश में ब्रिटिश राज स्थापित हो गया, लेकिन हमारी संस्कृति कायम रही। ईस्ट इंडिया कंपनी ने प्रशासन का संघीय ढांचा बनाया। 1774 में गवर्नर जनरल का शासन आया। 2500 साल तक बदलती रही राजनीतिक स्थितियों के बाद भी मूल भाव बरकरार रखा। हर योद्धा ने यहां की एकता को अपनाया। गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगोर ने कहा था कि कोई नहीं जानता कि दुनियाभर से भारत में कहां-कहां से लोग आए और यहां आकर भारत नाम की व्यक्तिगत आत्मा में तब्दील हो गए।
बहुलवाद में बसती है भारत की आत्मा
उन्होंने कहा कि राष्ट्रवाद किसी भाषा, रंग, धर्म, जाति आदि से प्रभावित नहीं होता। भारत की आत्मा बहुलवाद में बसती है। देश में इतनी भाषाएं व बोलियां बोली जाती हैं मगर हमारी एकता कभी नहीं टूटी। इसका कारण यह है कि इतनी विविधता के बावजूद भारतीयता ही हमारी पहचान है। आपसी समन्वय पर जोर देते हुए मुखर्जी ने कहा कि बातचीत से ही विभिन्न विचाराधारा के लोगों की समस्याओं का समाधान संभव है। इसलिए हमें बातचीत का रास्ता कभी नहीं बंद करना चाहिए। हमें लोकतंत्र गिफ्ट के रूप में नहीं मिला। उन्होंने लोगों को बाल गंगाधर तिलक की याद दिलाते हुए कहा कि तिलक ने हमें यह नारा दिया था कि स्वराज हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है। जवाहर लाल नेहरू की चर्चित किताब डिस्कवरी ऑफ इंडिया की याद दिलाई। मुखर्जी ने कहा कि उन्होंने लिखा है कि मुझे विश्वास है कि राष्ट्रवाद केवल हिन्दुओं, मुस्लिमों, सिखों और भारत के अन्य समूहों के विचारधारात्मक एकता से बाहर आ सकती है।
राष्ट्रवाद का आधार वसुधैव कुटुंबकम
प्रणब ने कहा कि यूरोप के मुकाबले भारत में राष्ट्रवाद का फलसफा वसुधैव कुटुंबकम से आया। हम सभी को परिवार के रूप में देखते हैं। हमारी राष्ट्रीयता पहचान जुड़ाव से उपजी है। हमारी राष्ट्रीयता को रुढि़वादिता, धर्म, क्षेत्र, घृणा और असहिष्णुता के तौर पर परिभाषित करने का कोई भी प्रयास हमारी पहचान को धुंधला कर देगा। हम सहनशीलता, सम्मान और अनेकता से अपनी शक्ति प्राप्त करते हैं और अपनी विविधता का उत्सव मनाते हैं। हमारे लिए लोकतंत्र उपहार नहीं बल्कि एक पवित्र काम है। उन्होंने कहा कि हमारा राष्ट्रवाद किसी धर्म व जाति से नहीं बंधा। मेरा मानना है कि लोकतंत्र में देश के सभी मुद्दों पर सार्वजनिक संवाद होना चाहिए। विभाजनकारी विचारों की हमें पहचान करनी होगी। हम सहमत हो सकते हैं और नहीं भी हो सकते। लेकिन इसके साथ यह भी सच्चाई है कि हम विचारों की विविधता और बहुलता को नहीं नकार सकते।
हेडगेवार को भारत का महान सपूत बताया
दादा संघ के मुख्यालय में अपना बहुप्रतीक्षित भाषण देने से पहले संघ के संस्थापक सरसंघचालक केशव बलिराम हेडगेवार की जन्मस्थली पर गए। संघ के सरसंघचालक मोहन भागवत ने वहां पर मुखर्जी का स्वागत किया। सूत्रों के अनुसार हेडगेवार को श्रद्धांजलि देने से जुड़ी मुखर्जी की यह यात्रा उनके निर्धारित कार्यक्रम का हिस्सा नहीं थी और पूर्व राष्ट्रपति ने अचानक ऐसा करने का निर्णय लिया। मुखर्जी ने हेडगेवार की जन्मस्थली पर रखी विजिटर बुक में लिखा कि आज मैं यहां भारत के महान सपूत डॉ.हेडगेवार को श्रद्धांजलि देने आया हूं।
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जानिए पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने अपने आखिरी भाषण में क्या कहा था..
राष्ट्रपति के तौर पर 2017 में दिया गया उनका अंतिम भाषण उनके पांच दशकों के राजनीतिक कार्यकाल के दौरान के उनके विचारों और चिंताओं को दर्शाता है। प्रणव ने अपने 2017 के इस संबोधन में कहा था, "मैं आपके साथ कुछ सच्चाई साझा करना चाहता हूं जिसका मैंने इस दौरान अनुभव किया है। भारत की आत्मा बहुलवाद और सहिष्णुता में बसती है। भारत केवल एक भौगोलिक जगह नहीं है। यह अपने में इतिहास के विचार, दर्शनशास्त्र, बुद्धि, औद्योगिक बुद्धिमत्ता, शिल्प, नवाचार और अनुभवों को समेटे हुए है। हमारे समाज की बहुलता दशकों से विचारों का आकलन करने के बाद उत्पन्न हुई है।"
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उन्होंने अपने करियर के इस अंतिम भाषण में कहा था, "संस्कृति, विश्वास और भाषा की विभिन्नता भारत को विशेष बनाती है। हमें सहिष्णुता से मजबूती मिलती है। यह सदियों से हमारी सामूहिक चेतना का हिस्सा रहा है। सार्वजनिक जीवन में कई विचार होते हैं। हम उनसे सहमत हो सकते हैं, नहीं भी हो सकते हैं। लेकिन हम विविध विचारों के होने से इनकार नहीं कर सकते। अगर हम ऐसा करेंगे तो अपनी विचार प्रक्रिया के एक मूल तत्व को हम गंवा देंगे।"
राष्ट्रपति बनने से पहले जिंदगी भर कांग्रेस के साथ रहे मुखर्जी गुरुवार को नागपुर में आरएसएस के कार्यकर्ताओं को संबोधित करने वाले है। आरएसएस के मंच पर यह उनका पहला भाषण होगा जिसकी वह अतीत में एक से अधिक बार आलोचना कर चुके हैं।
शायद इसीलिए, उनके द्वारा आरएसएस का निमंत्रण स्वीकार करने के बाद विवाद पैदा हो गया।
हालांकि, वह नागपुर में क्या बोलने वाले हैं, इसका सिर्फ अंदाजा ही लगाया जा सकता है। उन्होंने कहा है कि वह जो भी कहेंगे, उसके बारे में पता उनके संबोधन के बाद ही चल पाएगा।