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बीजेपी 2009 में हारी नहीं होती तो, आप गुजरात तक सीमित रहते
नई दिल्ली : देश के पीएम लोकसभा में खड़े होकर अगर-मगर, किंतु-परंतु और खास तौर पर ‘तो’ व काश जैसे शब्दों का प्रयोग करें। तो समझ लेना चाहिए कि उनके पास कहने को कुछ भी नहीं बचा। वो सिर्फ देश को गुमराह कर खुद अपनी पीठ ठोक रहे हैं। ऐसा होता तो वैसा होता ये सब बचकानी बातें हैं। लोकसभा को सार्थक चर्चा के लिए ही रहने देना चाहिए। सवाल के जवाब में कुतर्कों को लाना ये साबित करता है कि जनता के साथ ही आप सदन को भी सिर्फ गुमराह कर रहे हैं। जो उसके खून पसीने की कमाई से चलती है।
जब सवाल दिल्ली से जुड़ा हो तो दौलताबाद की बात नहीं होनी चाहिए। किसी विरोधी पार्टी के गलत कामों को उजागर करना चाहिए न की अगर-मगर के सहारे कुतर्क रखने चाहिए। जो हुआ नहीं वो अब हो नहीं सकता। जो है उसे बदलने का प्रयास करना चाहिए।
सरदार पटेल देश के प्रधानमंत्री नहीं थे। यही सच है, उन्होंने नेहरू के साथ काफी समय तक काम किया। गृहमंत्री थे। उनका कद कहीं से भी नेहरू से कम नहीं था। किसी भी बड़े निर्णय में दोनों की सहमति होती थी। हैदराबाद और अन्य रियासतों के विलय पर दोनों ने योजना बनाई। कश्मीर क्यों आज मुसीबत बना बैठा है। इसके लिए तो टाइम ट्रेवल कर उस समय में जाना होगा। तब ही पता चल सकेगा, जो मुमकिन नहीं है। ऐसे में 'तो' शब्द का इस्तेमाल न ही करें तो अच्छा होगा।
आम आदमी वैसे ही दाल रोटी के जुगाड़ में परेशान है। उसे जुमलों के जाल में मत फासिए। नीरो मत बनिए, नौकरी की बात हो तो उसकी ही बात करिए। पकौड़ों की नहीं।
कांग्रेस की तरफ से आपके अगर मगर का जवाब आया है फिलहाल इसे देखिए
इन 'तो' का आपके हिसाब से क्या जवाब होना चाहिए
अगर सीजर मारा नहीं गया होता तो क्या होता
अंग्रेज देश को आजाद नहीं करते तो क्या होता
महात्मा गांधी दक्षिण अफ्रीका से वापस नहीं आए होते तो
राम ने रावण को मारा नहीं होता तो
आरएसएस से प्रतिबन्ध नहीं हटा होता तो
मोदी चाय वाले नहीं होते तो कैसे पीएम होते
जिस स्टेशन पर चाय बेची वही नहीं होता तो
बीजेपी 2009 में हारी नहीं होती तो
ऐसे और भी 'तो' हैं जो 'तो' नहीं होते तो हम ये लिख नहीं रहे होते।