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न्यायिक समीक्षा में टिक पाएगा सवर्ण आरक्षण देने का चुनावी फैसला?
सदन में सवर्ण आरक्षण पास हो चुका है। अब चौपाल से लेकर गली मुहल्लों और चौराहों पर चर्चा हो रही है कि आगे क्या होगा क्योंकि संविधान में आरक्षण का पैमाना सामाजिक असमानता है। किसी की आय या संपत्ति के आधार पर आरक्षण देने का कोई प्रावधान नहीं है। आपको बता दें, संविधान का अनुच्छेद 16(4) कहता है कि आरक्षण किसी समूह को दिया जाता है।
लखनऊ : सदन में सवर्ण आरक्षण पास हो चुका है। अब चौपाल से लेकर गली मुहल्लों और चौराहों पर चर्चा हो रही है कि आगे क्या होगा क्योंकि संविधान में आरक्षण का पैमाना सामाजिक असमानता है। किसी की आय या संपत्ति के आधार पर आरक्षण देने का कोई प्रावधान नहीं है। आपको बता दें, संविधान का अनुच्छेद 16(4) कहता है कि आरक्षण किसी समूह को दिया जाता है। किसी व्यक्ति विशेष को आरक्षण देने का संविधान में कोई नियम नहीं है। इसी आधार पर सुप्रीम कोर्ट कई बार आर्थिक आधार पर आरक्षण का फैसला रोक चुका है। ऐसे में सौ फीसदी तय है की ये मामला भी कोर्ट में जाएगा। वहां क्या निर्णय होगा ये तो समय बताएगा लेकिन बहुत कुछ ऐसा है जो हम बता सकते हैं
पहले जानिए क्या निकला था मंडल की झोली से..
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वर्ष 1979 में बने मंडल आयोग के अध्यक्ष बिहार के पूर्व सीएम बीपी मंडल थे। उनकी विस्तृत रिपोर्ट में सामने आया कि देश में हिंदुओं की पिछड़ी जाति और गैर हिंदू पिछड़ी जातियों की आबादी 52 फीसदी है। मंडल ने इनके लिए नौकरियों व शैक्षणिक सुविधाओं में 27 प्रतिशत आरक्षण की सिफारिश की।
सुप्रीम कोर्ट में टिकेगा ?
7 तारीख के बाद से आप को ये तो पता चल ही गया होगा कि आरक्षण की सीमा अधिकतम 50 प्रतिशत तक हो सकती है। वर्ष 1963 में सुप्रीम कोर्ट ने अपने आदेश में कहा, 50 प्रतिशत से ज्यादा आरक्षण किसी भी सूरत में नहीं दिया जा सकता है।
किसे कितना मिल रहा है आरक्षण
अनुसूचित जाति- 15
अनुसूचित जनजाति- 7।5
अन्य पिछड़ा वर्ग- 27
कुल आरक्षण- 49।5
जानकारों का मानना है कि इसके लिए सरकार को संविधान में बड़े पैमाने पर बदलाव करना होगा। अन्यथा सुप्रीम कोर्ट से ये आरक्षण फिर निरस्त हो जाएगा।
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इंदिरा बनेंगी सरकार की टेंशन
देश में जब भी आरक्षण का नाम लिया जाता है एक नाम जरुर सुनने को मिलता यह नाम है इंदिरा साहनी का। साल 1990, तारीख 13 अगस्त, इसी दिन कुख्यात मंडल कमीशन रिपोर्ट लागू हुई। इसके बाद तत्कालीन पीएम पीवी नरसिम्हा राव की कांग्रेस सरकार ने आर्थिक आधार पर 10% आरक्षण दिया। इसी निर्णय को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती देकर इंदिरा चर्चा में आई थीं। उनकी याचिका पर सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने जातिगत आधार पर दिए जाने वाले आरक्षण की सीमा 50 प्रतिशत तय की थी।
अब एक बार फिर इंदिरा मोदी सरकार के सवर्णों को 10 प्रतिशत आरक्षण देने के फैसले को कोर्ट में चुनौती देने पर विचार कर रही हैं।
साहनी ने कहा, इस फैसले से सामान्य श्रेणी के योग्य उम्मीदवारों को नुकसान होगा। उन्होंने कहा, 'इस बिल को कोर्ट में चुनौती दी जाएगी। मैं अभी विचार करूंगी कि क्या मुझे इस बिल के खिलाफ याचिका डालनी चाहिए। इस बिल से आरक्षण की सीमा 60 प्रतिशत तक पहुंच जाएगी और सामान्य वर्ग के योग्य उम्मीदवार पीछे छूट जाएंगे।
साहनी ने बताया, सुनवाई दो जजों की बैंच के साथ शुरू हुई थी और नौ जजों की बैंच ने इसपर फैसला सुनाया।
उन्होंने कहा, गरीब सवर्णों को आरक्षण देने का फैसला सही नहीं है। इससे जो उम्मीदवार मेरिट के आधार पर क्वालिफाई कर सकते हैं उनके पास केवल 40 प्रतिशत सीटें ही बचेंगी।
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संविधान की बुनियादी संरचना से छेड़छाड़ नहीं हो सकती
संविधान के अनुच्छेद-16 में समानता और सबको बराबर मौका देने की बात है। यदि आरक्षण 50 प्रतिशत को पार करता है और इसके लिए संविधान में संशोधन होता है, या मामले को 9वीं अनुसूची में रखा जाता है ताकि न्यायिक समीक्षा के दायरे से बाहर रख दिया जाए, तो भी मामला न्यायिक समीक्षा के दायरे में होगा। आपको बता दें, 9वीं अनुसूची में रखकर ऐसा कोई कानूनी या कानूनी संशोधन नहीं किया जा सकता जो संविधान की बुनियादी संरचना से छेड़छाड़ करता हो।
पहले भी हुई कोशिश
बिहार के पूर्व सीएम कर्पूरी ठाकुर ने सबसे पहले सवर्णों को आरक्षण का लालीपॉप दिया था। साल था 1978।। जब राज्य के सीएम ने पिछड़ों को 27 प्रतिशत आरक्षण मिलने के बाद सवर्णों को भी 3 प्रतिशत आरक्षण दे दिया। मामला कोर्ट के सामने आया तो सवर्णों का आरक्षण समाप्त हो गया।
साल 1990, तारीख 13 अगस्त, इसी दिन कुख्यात मंडल कमीशन रिपोर्ट लागू हुई। इसके बाद तत्कालीन पीएम पीवी नरसिम्हा राव की कांग्रेस सरकार (यहां ये जान लेना आवश्यक है कि कांग्रेस बहुत पहले सवर्णों के लिए ये स्कीम लाने की तैयारी में थी) ने आर्थिक आधार पर 10% आरक्षण दिया। लेकिन साल 1992 में सुप्रीम कोर्ट ने सरकार के इस फैसले को खारिज कर दिया।
गुजरात की पूर्व सीएम आनंदी बेन पटेल ने अप्रैल 2016 में आर्थिक रूप से पिछड़े सवर्णों को आरक्षण में 10 फीसदी कोटा दिया। इसके बाद अगस्त 2016 में गुजरात हाईकोर्ट ने इसे गैरकानूनी और असंवैधानिक बताकर समाप्त कर दिया। इसके बाद एक बार फिर 1 मई, 2016 को गुजरात स्थापना दिवस पर सवर्णों को आरक्षण देने का निर्णय लिया था। अब ये बिल सुप्रीम कोर्ट की संवैधानिक बैंच में विचाराधीन है।
साल 1951 से ही तमिलनाडु में 41 प्रतिशत आरक्षण है। इसके बाद ये वोटों की चाहत में 69 फीसदी कब पहुंच गया पता ही नहीं चला। मामला अभी भी सुप्रीम कोर्ट में है। राज्य की पूर्व सीएम जयललिता ने अपने फैसले को संविधान की नौवीं अनुसूची में डलवा दिया था। ताकि इसकी न्यायिक समीक्षा न हो सके। लेकिन इसके बाद भी अभी अंतिम निर्णय नहीं हुआ है।
साल 2014 में बॉम्बे हाईकोर्ट ने महाराष्ट्र की बीजेपी सरकार का मराठों को 16 प्रतिशत आरक्षण देने का फैसला पलट दिया। मराठों के प्रदर्शन के बाद देवेंद्र फणनवीस सरकार ने विधानसभा में एक बार फिर प्रस्ताव पास करके मराठों को 16 प्रतिशत आरक्षण देने का ऐलान किया है। महाराष्ट्र में 52 प्रतिशत आरक्षण पहले से ही है।
राजस्थान में सवर्णों को 14 प्रतिशत आरक्षण की मांग वर्षों से उठती रही है। विधानसभा में इस संबंध में विधेयक पारित हो चुका है। सरकार इस कानून को संविधान की 9वीं अनुसूची में डलवाने के प्रयास भी करती रही है।
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मोदी सरकार के बिल में सवर्ण नाम कहीं नहीं
केंद्र सरकार ने सवर्णों को आरक्षण देने की बात नहीं की है। आमतौर पर सवर्ण शब्द हिंदु उच्च जातियों के लिए प्रयोग किया जाता है। जबकि केंद्र के पेश किए बिल में कहीं सवर्ण शब्द का उल्लेख नहीं है। सदन में पेश 124वां संशोधन विधेयक में समाज के उन वर्गों को आरक्षण देने की बात की गई है, जिनका ज़िक्र संविधान के अनुच्छेद 15 के क्लाज़ 4-5 और अनुच्छेद 16 के क्लॉज़ 4 में नहीं है। ये वर्ग हैं एससी, एसटी और ओबीसी। तो इन तीन वर्गों को छोड़कर जो भी वर्ग हैं, उन्हें आरक्षण देने की बात हुई है। इसका मतलब ये भी निकलता है कि इस आरक्षण का लाभ मुसलमानों को और इसाइयों को भी मिलेगा।
सवर्ण कहते किसे हैं
भारतीय शासन व्यवस्था के अनुसार वह व्यक्ति जो सामाजिक और सांस्कृतिक रूप से पिछड़ा न हो वो सवर्ण है।
सवर्णों को आरक्षण चुनावी पैतरा
कोर्ट ने व्यवस्था दी है कि 9वीं अनुसूची का सहारा लेकर अवैध कानून का बचाव नहीं किया जा सकता। कानून यदि संवैधानिक दायरे से बाहर होगा तो उसे 9वीं अनुसूची में डालकर नहीं बचाया जा सकता।
आरक्षण बिल भले ही संसद में पारित हो गया हो लेकिन इसे सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी जा सकती है और यदि मामला कोर्ट गया तो उसका टिक पाना बहुत मुश्किल है।
सबसे पहले कहां लागू हुआ था आरक्षण
वर्ष 1902 में कोल्हापुर के महाराजा छत्रपति साहूजी महाराज ने पिछड़े वर्ग से गरीबी दूर करने के लिए और प्रशासन में उन्हें हिस्सा देने के लिए आरक्षण का आरंभ किया । कोल्हापुर में पिछड़े वर्गों/समुदायों को नौकरियों में आरक्षण देने के लिए 1902 में अधिसूचना जारी हुई । दलित वर्गों को सबल बनाने के लिए ये पहला सरकारी आदेश है।
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इससे पहले भी बहुत कुछ हुआ है
वर्ष 1882 में हंटर आयोग की नियुक्ति हुई। महात्मा ज्योतिराव फुले ने नि:शुल्क और अनिवार्य शिक्षा के साथ नौकरियों में आनुपातिक आरक्षण या प्रतिनिधित्व की मांग की।
वर्ष 1891 में त्रावणकोर रियासत में सार्वजनिक सेवा में योग्य मूल निवासियों की अनदेखी और विदेशियों को भर्ती करने के विरुद्ध प्रदर्शन हुआ और नौकरियों में आरक्षण की मांग की गई।
वर्ष 1901 तक बड़ौदा और मैसूर की रियासतों में आरक्षण लागू हो चुका था।
वर्ष 1908 में अंग्रेजों द्वारा कई निम्न जातियों के साथ ही समुदायों के लिए आरक्षण आरंभ हुआ।
वर्ष 1909 में ब्रिटेन ने आरक्षण का प्रावधान किया।
वर्ष 1919 में मोंटेंग्यू-चेम्सफोर्ड सुधारों को आरंभ किया गया।
वर्ष 1919 में ही अधिनियम 1919 में आरक्षण का प्रावधान हुआ।
वर्ष 1921में मद्रास प्रेसीडेंसी ने जातिगत सरकारी आज्ञापत्र जारी किया, जिसमें गैर-ब्राह्मणों के लिए 44 फीसदी, ब्राह्मणों के लिए 16 फीसदी, मुसलमानों के लिए 16 फीसदी, भारतीय-एंग्लो/ईसाइयों के लिए 16 फीसदी और अनुसूचित जातियों के लिए 8 फीसदी आरक्षण दिया गया।
वर्ष 1935 में कांग्रेस ने पूना पैक्ट को अंजाम दिया, इसमें दलित वर्ग के लिए अलग निर्वाचन क्षेत्र आवंटित हुए।
वर्ष 1935 में अधिनियम 1935 में आरक्षण का प्रावधान किया गया।
वर्ष 1942 में दलित चिन्तक और समाजसेवी बीआर अम्बेडकर ने अनुसूचित जातियों की उन्नति के लिए अखिल भारतीय दलित वर्ग महासंघ की स्थापना कर सरकारी सेवाओं और शिक्षा के क्षेत्र में अनुसूचित जातियों के लिए आरक्षण की मांग की।
वर्ष 1946 में भारत में कैबिनेट मिशन ने अन्य कई सिफारिशों के साथ आनुपातिक प्रतिनिधित्व का प्रस्ताव दिया।
वर्ष 1947 में आजादी के बाद अम्बेडकर को संविधान मसौदा समिति का अध्यक्ष नियुक्त किया गया। भारतीय संविधान ने सिर्फ धर्म, नस्ल, जाति, लिंग और जन्मस्थान के आधार पर भेदभाव को निषेध कर दिया, इसके साथ ही सभी नागरिकों के लिए समान अवसर प्रदान करते हुए सामाजिक और शैक्षिक रूप से पिछले वर्गों या अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति की उन्नति के लिए संविधान में विशेष धाराएं रखी।
आगे जो लिखा गया है उसे ध्यान से पढ़िए ‘10 वर्षों के लिए उनके राजनीतिक प्रतिनिधित्व को सुनिश्चित करने के लिए अनुसूचित जातियों और जनजातियों के लिए अलग से निर्वाचन क्षेत्र आवंटित किए गए ( इसके बाद हर 10 वर्ष के बाद सांविधानिक संशोधन के जरिए इन्हें फिर बढ़ा दिया जाता है)।
26/01/1950- भारत का संविधान लागू हुआ।
वर्ष 1953 में सामाजिक और शैक्षिक रूप से पिछड़े वर्ग की स्थिति का मूल्यांकन करने के लिए कालेलकर आयोग का गठन हुआ । इसके बाद अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों से सम्बंधित रिपोर्ट को स्वीकार किया गया । वहीं अन्य पिछड़ी जाति के लिए की गई सिफारिशों को अस्वीकार कर दिया गया।
वर्ष 1956 में काका कालेलकर की रिपोर्ट के बाद अनुसूचियों में संशोधन हुआ।
वर्ष 1976 में भी अनुसूचियों में संशोधन हुआ। वर्ष 1979 में सामाजिक और शैक्षिक रूप से पिछड़े की स्थिति का मूल्यांकन करने के लिए मंडल आयोग को स्थापित किया गया। आयोग के पास उपजाति, जो अन्य पिछड़े वर्ग कहलाती है, का कोई सटीक आंकड़ा था और ओबीसी की 52 फीसदी आबादी का मूल्यांकन करने के लिए वर्ष 1930 की जनगणना के आंकड़े का प्रयोग करते हुए । पिछड़े वर्ग के रूप में 1,257 समुदायों का वर्गीकरण किया गया।
वर्ष 1980 में आयोग ने रिपोर्ट पेश की और मौजूदा कोटा में बदलाव करते हुए 22फीसदी से 49।5फीसदी बढ़ोतरी करने की सिफारिश की।
वर्ष 1990 में मंडल आयोग की सिफारिशें तात्कालिक पीएम विश्वनाथ प्रताप सिंह द्वारा सरकारी नौकरियों में लागू की गई।
वर्ष 1991 में तात्कालिक पीएम नरसिम्हा राव ने सवर्णों में गरीबों के लिए 10 फीसदी आरक्षण आरंभ किया।
वर्ष 1995 में संसद ने 77वें सांविधानिक संशोधन द्वारा अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति की उन्नति के लिए आरक्षण का समर्थन करते हुए अनुच्छेद 16(4)(ए) बनाया गया । इसके बाद 85वें संशोधन में अनुवर्ती वरिष्ठता को शामिल किया गया।
वर्ष 1998 में केंद्र सरकार ने विभिन्न सामाजिक समुदायों की आर्थिक और शैक्षिक स्थिति का मूल्यांकन करने के लिए पहली बार राष्ट्रव्यापी सर्वेक्षण किया। राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण का आंकड़ा 32 फीसदी है।
12 अगस्त 2005 को सुप्रीम कोर्ट ने पीए इनामदार और अन्य बनाम महाराष्ट्र राज्य और अन्य के मामले में 12 अगस्त 2005 को 7 जजों द्वारा सर्वसम्मति से निर्णय सुनाते हुए घोषित किया कि राज्य पेशेवर कॉलेजों सहित सहायता प्राप्त कॉलेजों में अपनी आरक्षण नीति को अल्पसंख्यक और गैर-अल्पसंख्यक पर नहीं लाद सकता।
वर्ष 2005 में निजी शिक्षण संस्थानों में पिछड़े वर्गों और अनुसूचित जाति तथा जनजाति के लिए आरक्षण को सुनिश्चित करने के लिए 93वां सांविधानिक संशोधन हुआ। इसने अगस्त 2005 में हुए सुप्रीम कोर्ट के निर्णय पलट दिया।
वर्ष 2006 में सुप्रीम कोर्ट की सांविधानिक बेंच में एम। नागराज और अन्य बनाम यूनियन बैंक और अन्य के मामले में सांविधानिक वैधता की धारा 16(4) (ए), 16(4) (बी) और धारा 335 के प्रावधान को सही ठहराया।
वर्ष 2006 से केंद्र सरकार के शैक्षिक संस्थानों में अन्य पिछड़े वर्गों के लिए आरक्षण आरंभ हुआ। इसके बाद कुल आरक्षण 49।5 फीसदी पहुंच गया ।
वर्ष 2007 में केंद्रीय सरकार के शैक्षिक संस्थानों में ओबीसी आरक्षण पर सुप्रीम कोर्ट ने स्थगन दिया ।
वर्ष 2008 में सुप्रीम कोर्ट ने 10 अप्रैल 2008 को सरकार पोषित संस्थानों में 27 फीसदी ओबीसी कोटा आरंभ करने के सरकारी फैसले का समर्थन किया । कोर्ट ने कहा मलाईदार परत को आरक्षण नीति के दायरे से बाहर रखा जाना चाहिए । क्या आरक्षण के निजी संस्थानों आरक्षण की गुंजाइश बनायी जा सकती है।