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Adani Group: सवाल केवल अडानी का नहीं, सेबी और नियामक संस्थाओं का भी है
Adani Group Row: सेबी की रिपोर्ट बताती है कि भारत में स्टॉक फ्यूचर्स एंड ऑप्पांस में पैसा लगाने वाले 10 में से नौ लोग घाटे में रहते हैं।
Adani Group Row: एक कहावत है कि जुए में हर कोई हारता है। कोई नहीं जीतता है। यदि महाभारत क़ालीन जुए के इतिहास को ही लें। तो पहले धर्मराज युधिष्ठिर हारें। बाद में केवल दुर्योधन ही नहीं समूचा कौरव पक्ष हारा। फिर भी जुआ हमारे समाज के हर आदमी की ज़िंदगी का अभिन्न हिस्सा है। भले ही वह भिन्न भिन्न रूपों में हो। रूपों के निरंतर बदलाव ने इन दिनों उसके स्वरूप को विद्रूप कर दिया है। कोई इथिकल प्रैक्टिस नहीं रह गयी है।इस बाज़ार को केवल माँग और आपूर्ति के सिद्धांत ही नहीं संचालित करते है।
तभी तो एक छोटे अमेरिकी शॉर्ट सेलर ने अडानी ग्रुप के बारे में ऐसे आरोप लगा दिए कि भारतीय स्टॉक मार्केट में भूचाल आ गया।भारत में कॉरपोरेट गवर्नेंस के बारे संदेह उठ खड़े हुए हैं। ये तो तय है कि अडानी के शेयरों में बिकवाली आज नहीं तो कल ख़त्म हो ही जायेगी। बाजार स्टेबल हो जाएगा, इसमें कोई दो राय भी नहीं होनी चाहिए। लेकिन एक आशंका है कॉर्पोरेट गवर्नेंस यानी कंपनियों के कामकाज या प्रबंधन में शुचिता और निगरानी तंत्र की मजबूती और असरदारिता को लेकर। ये दोनों ही चीजें हमेशा से संदेह के घेरे में रही हैं। एक बार इन पर बड़ी चोट हो गयी तो मुश्किल हो जायेगी । क्योंकि भरोसा बनने में बहुत समय लगता है । लेकिन टूटने में वक्त नहीं लगता। भरोसा डिगने पर निवेशक हाथ खींचने लगते हैं । क्योंकि उनको अपने पैसे डूबने, घाटा होने या कम मुनाफ़ा होने का खतरा दिखने लगता है। यही वजह है कि बहुत से देशों में निवेशक ढूँढने पर नहीं मिलते।
सेबी की रिपोर्ट बताती है कि भारत में स्टॉक फ्यूचर्स एंड ऑप्पांस में पैसा लगाने वाले 10 में से नौ लोग घाटे में रहते हैं। वित्तीय वर्ष 2022 के दौरान औसतन लगभग 11 लाख रुपये का नुकसान हुआ। जबकि विकली डेरिवेटिव प्रोडक्ट्स रिपोर्ट बताती है कि 11 फीसदी लोगों ने ही इस दौरान मुनाफा कमाया। इन लोगों के प्रॉफिट का औसत डेढ़ लाख रुपये रहा। महिला निवेशकों को होने वाला औसत नुकसान और औसत लाभ, पुरुषों की तुलना में अधिक था। घाटे बावजूद वित्त वर्ष 2019 से 2022 के बीच में ट्रेडर्स की संख्या भारत में साढ़े 6 गुना बढ़ी। वित्तीय वर्ष 2019 में इंडिविजुअल ट्रेडर्स केवल 7.1 लाख थे। वहीं, इस फाइनेंशल ईयर में टॉप 10 ब्रोकर्स के क्लाइंट्स की संख्या कोरोना महामारी के कालखंड के बाद 45 लाख को पार कर गई। वित्तीय वर्ष 2022 के दौरान स्टॉक फ्यूचर्स एंड ऑप्शंस सिग्मेंट में निवेश करने वाले युवाओं की संख्या 30 प्रतिशत हो गई। दो साल पहले यह केवल 11 प्रतिशत थी। युवा निवेशक मतलब 20 से 30 साल के लोग।
यही है कि भारत में कॉर्पोरेट प्रशासन को अक्सर भ्रष्ट और अनैतिक प्रथाओं को रोकने में दंतविहीन कहा जाता है। डीएचएफएल, सत्यम आदि का भट्ठा बैठ गया, किंगफिशर दिवालिया हो गयी, हर्षद मेहता ने शेयर बाजार की हवा निकाल दी थी, कई कोआपरेटिव बैंक बंद हो चुके हैं। कई स्टार्ट अप में बंदी, छंटनी और कर्ज से जुटाई गयी पूँजी की बर्बादी - ये सब कॉर्पोरेट गवर्नेंस की कमियों के उदहारण हैं। ललित मोदी, विजय माल्या जैसे लोग चूना लगा कर निकल गए। सवाल ऐसे में ये उठता रहा है कि किसी कंपनी की गड़बड़ी आखिर समय रहते पकड़ी क्यों नहीं जाती? किसी अखबार की रिपोर्ट या रिसर्च फर्म की रिपोर्ट से ही मामला क्यों खुलता है? जब सेबी और रिज़र्व बैंक बैठे हुए हैं तो उनकी ऑंखें क्यों नहीं खुली रहती हैं?
अब न्यूयॉर्क की फर्म हिंडनबर्ग रिसर्च की लगभग 100 पन्नों की रिपोर्ट के नतीजों से भारत के प्रति तथा खासतौर पर देश के नियामक ढांचे में निवेशकों का विश्वास कम होने का खतरा है। कुछ जानकारों का कहना है कि अडानी का मामला ऐसे समय में आया है जब चीन फिर से खुल रहा है। विदेशी निवेशक स्पष्ट रूप से ये देख रहे हैं। एक्सपर्ट्स का कहना है कि - "अडानी की सुर्खियां नकारात्मक ध्यान आकर्षित कर रही हैं, जो भारतीय शेयरों के लिए निवेशकों की भूख को कम कर सकती हैं। ये सही है कि अडानी की वजह से पूरा भारतीय शेयर बाजार नीचे नहीं जाएगा । लेकिन इससे एक चोट अवश्य लग सकती है।
भरोसा दिलाना
चूँकि बाजार सहभागियों, विशेष रूप से विदेशी निवेशकों, ने भारत की कहानी के बारे में संदेह करना शुरू कर दिया है। एकाउंटिंग नीतियों और विभिन्न अन्य चीजों के बारे में अधिक प्रश्न पूछना शुरू कर दिया है। ऐसे में हमारे यहाँ बाजार नियामक सेबी की बहुत बड़ी जिम्मेदारी बनती है और वही निवेशकों को आश्वस्त कर सकता है। एक्सपर्ट्स का कहना सही है कि अगर बाजार नियामक और केंद्रीय बैंक उचित प्रतिक्रिया देते हैं तो निवेशकों की प्रतिक्रिया अडानी शेयरों तक सीमित हो सकती है। वैसे, निवेशकों को शांत करने की कोशिश करने के लिए सेबी और रिजर्व बैंक द्वारा प्रयास किए गए हैं। वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने भी बैंकिंग सेक्टर और बाज़ार की मजबूती की बात कही है।
बैंक सुरक्षित
ब्लूमबर्ग के साथ साझा किए गए गोल्डमैन सैक्स के आंकड़ों के अनुसार, मार्च 2022 तक अडानी समूह के लिए समग्र बैंकिंग प्रणाली का जोखिम घरेलू और अंतर्राष्ट्रीय $23 बिलियन से $24 बिलियन डालर तक था। भारतीय बैंकों के पास इसका लगभग एक-तिहाई हिस्सा है, जिसमें से अधिकांश सार्वजनिक क्षेत्र की बैंकिंग प्रणाली के अंतर्गत आता है। लेकिन अडानी संकट वर्तमान संदर्भ में बैंकिंग क्षेत्र के लिए एक जोखिम नहीं रखता है, क्योंकि अधिकांश घरेलू ऋण स्थिर नकदी प्रवाह के माध्यम से सुरक्षित हैं।
भारत में कॉर्पोरेट गवर्नेंस
उदारीकरण, वैश्वीकरण और निजीकरण के कारण भारतीय अर्थव्यवस्था 20वीं सदी के गौरव की गवाह बनी। पहली बार भारतीय अर्थव्यवस्था एक उत्पाद, पूंजी और श्रम बाजार के लिए विश्व अर्थव्यवस्था के साथ कदमताल में थी और जिसके परिणामस्वरूप देश में पूंजीकरण, कॉर्पोरेट संस्कृति, व्यावसायिक नैतिकता की दुनिया बनी। भारत में कॉर्पोरेट गवर्नेंस की पहल के लिए संगठनात्मक ढांचे में कॉर्पोरेट मामलों के मंत्रालय, भारतीय उद्योग परिसंघ और भारतीय प्रतिभूति और विनिमय बोर्ड (सेबी) शामिल हैं। 1998 में सीआईआई ने भारत के कॉर्पोरेट प्रशासन का पहला कोड पेश किया था। इसके अलावा, सेबी और कॉर्पोरेट मामलों के मंत्रालय ने भारत में कॉर्पोरेट प्रशासन की मौजूदा संरचना को संशोधित करने के लिए कई समितियों की नियुक्ति की है।
कॉर्पोरेट गवर्नेंस की विफलताओं के कारण
कॉर्पोरेट गवर्नेंस के फेलियर के कई कारण बताये जाते हैं। जैसे कि बोर्ड ऑफ़ डायरेक्टर के निर्णय में पारिवारिक हस्तक्षेप। अधिकार - कर्तव्य और ड्यूटी के बारे में जागरूकता का अभाव। पोलिटिकल प्रभाव। स्वतंत्र सत्यापन के बिना मैनेजमेंट और ऑडिटर्स की जानकारी पर निदेशकों का भरोसा। संबंधित पार्टी लेनदेन पर विस्तृत रिपोर्टिंग का अभाव। ख़राब एकाउंटिंग। फैसले देने में देरी और लम्बी लम्बी मुकदमेबाजी। इन सब वजहों को खत्म नहीं किया जा सका है जिसकी वजह से बाजार और निवेश पर कहीं न कहीं असर कुछ कुछ अंतराल पर दिखाई दे ही जाता है।
अब देखना है कि मौजूदा उथलपुथल के शांत होने के बाद कॉर्पोरेट गवर्नेंस में कुछ बदलाव आता है कि स्थितियां पूर्ववत चलती रहेंगी। अमृत काल में भारत को अपनी ग्लोबल साख पुख्ता करने और निवेशकों का भरोसा अडिग बनाने के लिए ये काम करना ही होगा ताकि कोई हिंडनबर्ग न सवाल खडा कर पाए और न उंगली उठा पाए। नहीं तो शेयर बाज़ार के दुनिया के जाने-माने निवेशक वॉरेन बफेट की यह बात सही साबित होने लगेगी जिसमें उनने इसे वेपन्स ऑफ वेल्थ डिस्ट्रक्शन यानी संपत्ति बर्बाद करने वाला हथियार बताया था। और सेबी सहित भारत की तमाम रेगुलेटिंग एजेंसियाँ इस कहावत को सही साबित करने में मदद करती नज़र आने लगेंगी।