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उस दौर की कहानी जब मुंबई में शिवसैनिक होने का मतलब बाप होना होता था

शिवसेना और बीजेपी के रिश्ते काफी खट्टे मीठे रहे हैं। आए दिन शिवसेना सुप्रीमो उद्धव ठाकरे बीजेपी को टेंशन देते रहते हैं। लेकिन बीजेपी नेतृत्व पलटवार नहीं करता। हममें से बहुतों को लगता होगा कि आखिर ऐसा क्यों होता है। इसीलिए हम आपके बताएंगे कि शिवसेना कब जन्मी और उसने क्या-क्या किया।

Rishi
Published on: 14 Jan 2019 9:00 AM IST
उस दौर की कहानी जब मुंबई में शिवसैनिक होने का मतलब बाप होना होता था
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आशीष शर्मा 'ऋषि' आशीष शर्मा 'ऋषि'

मुंबई : शिवसेना और बीजेपी के रिश्ते काफी खट्टे मीठे रहे हैं। आए दिन शिवसेना सुप्रीमो उद्धव ठाकरे बीजेपी को टेंशन देते रहते हैं। लेकिन बीजेपी नेतृत्व पलटवार नहीं करता। हममें से बहुतों को लगता होगा कि आखिर ऐसा क्यों होता है। इसीलिए हम आपके बताएंगे कि शिवसेना कब जन्मी और उसने क्या-क्या किया।

बात शुरू होती है 19 जून साल 1966 से बाल ठाकरे ने शिवाजी पार्क में एक नारियल की बलि दे ‘शिवसेना’ का औपचारिक गठन कर लिया। ठाकरे को लगता था कि मराठी जोश को जगाने के लिए शिवाजी जैसा रूप अपना कर मद्रासी गुजराती और यूपी बिहार वालों से निपटा जा सकता।

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इसके बाद ठाकरे ने अपने करीबियों के साथ बैठक कर मुंबई में ताकत का अहसास कराने का प्लान बनाया। 50,000 लोगों के बैठने का इंतजाम किया गया। लेकिन इस मीटिंग में 2 लाख लोग पहुंचे। ये कैसे हुआ इसका सीधा सा जवाब ये है कि बाल ठाकरे ने भले ही राजनैतिक दल अब बनाया था। लेकिन उनका भौकाल पहले से ही मुंबई में जम चुका था, मसीहा टाइप। इस मीटिंग में ठाकरे ने जो भाषण दिया। वो ऐसा था कि हम यहां लिख भी नहीं सकते। आप इतना ही समझ लें कि उनके मुताबिक अब मुंबई में लोकतंत्र नहीं ठाकरे तंत्र चलेगा।

बम्बई (मुंबई तब बम्बई ही थी) को संभालने शिवसेना जन्म ले चुकी थी और सेना को संभालने के लिए बाला साहेब ठाकरे।

बाल ठाकरे अपने आरंभिक जीवन में आरएसएस की शाखा में जाया करते थे। तो उन्होंने अपनी सेना को आम आदमी के बीच पकड़ बनाने के लिए मोहल्ले-मोहल्ले में शाखाएं खोल दीं। इसके बाद शुरू हुई फ़िल्मी कहानी। शिवसैनिकों को उनके इलाके बांट दिए गए। जो वहां लोकल मसीहा बन बैठा। उसके दरबार में सास बहु के पंगे से लेकर जमीन के मामले निपटाए जाने लगे। आलम ये था कि कोई पुलिस के पास नहीं जाता। शिव सैनिक के पास जाता तो उसका मामला भी निपट जाता और पैसा भी खर्च नहीं होता था। मोहल्लों में जमकर गणेश पूजा का दौर आरंभ हो गया। कैंप लगा शिवसेना इलाकाई दबंगों बाहुबलियों और पैसे वालों को पार्टी का सदस्य बनाने लगी।

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ठाकरे की सेना तैयार थी जिससे न सरकार और न ही पुलिस उलझने को तैयार थी। रिपोर्ट्स के मुताबिक ये वो लोग थे जो ठाकरे के एक इशारे पर किसी को भी कहीं भी भेज देते थे।

उस समय बम्बई का आलम ये था कि शिव सैनिक होने का मतलब इंस्पेक्टर से भी बड़ी पोस्ट बन गया। ठाकरे धीरे-धीरे सीएम से भी अधिक ताकतवर। ठाकरे स्वयं कहते थे कि शिव सैनिक मारपीट नहीं करते ये तो नेचुरल जस्टिस है।

ठाकरे ने कभी भी कोई लिखा भाषण नहीं दिया। जो मन में आया बोल दिया। फिर चाहे वो सही हो गलत हो। भाषण में लोकल टच होता। फिल्मों के डायलॉग होते। बात कहीं से कहीं ले जाना। सबको एक सुर से हौंक देना ठाकरे का ही स्टाइल था।

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बाल ठाकरे ने अपना सबसे पहला निशाना बनाया ‘मद्रासी’ मानस को। ठाकरे उनको ‘युंडू-गुंडू’ कहते थे। शिवसेना का पत्र ‘मार्मिक’ उनसे जुडी अफवाहों को पहले फैलता। उसके बाद उनको हवा देता। इसके बाद उनके निशाने पर आये गुजराती और मांगा गया आरक्षण। शिवसेना की मांग थी कि सरकारी नौकरी में मराठी लोगों को 80% आरक्षण मिले। हाउसिंग बोर्ड घरों में 80% आरक्षण दे। कोई भी बड़ा सरकारी विभाग नहीं बचा जिसे ठाकरे ने धमकाया न हो। किसी ने उनको इंकार भी नहीं किया।

1969 में ठाकरे ने महाराष्ट्र-कर्नाटक सीमा विवाद को बड़ा मुद्दा बनाया। इसके बाद महाराष्ट्र सरकार ने उनकी पहली और आखिरी गिरफ्तारी की। कहा ये भी जाता है कि तत्कालीन सीएम के साथ उनकी सैटिंग थी। गिरफ़्तारी के बाद दंगों का प्लान था। ठाकरे गिरफ्तार होते हैं और राज्य में दंगे फ़ैल गए। दंगों में 69 मरे 250 घायल हुए और 151 पुलिस वाले मारे गए। सरकार ने जेल में बंद ठाकरे के पैर पकड लिए। दंगे बंद हो गए।

1966 आते आते शिवसेना का वो भौकाल बना चुका था कि लार्सेन एंड टुब्रो, पार्ले सहित टाटा, अंबानी जैसे शिवसेना की शरण में थे। अपनी फैक्ट्री चलवाने के लिए, बदले में मुहंमागी कीमत तैयार।

1967 में जो हुआ उसने हिन्दुस्तान के बच्चे बच्चे को बता दिया कि मुंबई में सबका बाप बाला साहेब ही हैं। दरअसल परेल की दलवी बिल्डिंग में कम्युनिस्ट पार्टी का हेडक्वार्टर हुआ करता था। दिसंबर में ठाकरे के सैनिकों ने वहां हमला बोल दिया। जबरदस्त तरीके से मारपीट हुई। ठाकरे तो बिल्डिंग को जलाने का मन बना चुके थे। लेकिन वहां उनके कुछ करीबी दोस्तों के ऑफिस थे। इसलिए वहां सिर्फ मारपीट कर मामला सुलटा लिया गया। लेकिन कम्युनिस्ट पार्टी विधायक कृष्णा देसाई को उसकी सजा मिली, बड़ी सजा। (ऐसा लोग कहते हैं हम नहीं कह रहे आजाद भारत के मुंबई में ये पहली राजनीतिक हत्या थी।) लेकिन तत्कालीन सीएम के मुहं से एक शब्द तक नहीं निकला।

इसके बाद ठाकरे ने हिंदू-मुस्लिम मुद्दों में हाथ डालना शुरू किया। दंगे हुए लोग मरे। लेकिन ठाकरे मजबूत और मजबूत होते चले गए। ये दौर था 1970 और उसके बाद का। 1972 में दलित नेता भगवत जाधव की हत्या हुई और आरोप तो लगने थे लगे। लेकिन हुआ कुछ नहीं। ठाकरे के डॉन दाऊद इब्राहिम के साथ संबंध होने के आरोप लगे। लेकिन यहाँ भी कुछ नहीं हुआ।

इसके साथ राजनीति भी चल ही रही थी

1967 में ठाणे म्युनिसिपल चुनाव में शिवसेना ने 40 में से 17 सीटें जीतीं। 1968 में बॉम्बे म्युनिसिपल कॉरपोरशन के चुनाव में शिवसेना को 140 में से 42 सीटें मिलीं।

1970 में कृष्णा देसाई की हत्या के बाद चुनाव हुए। शिवसेना ने उनकी पत्नी को हरा विधानसभा में इंट्री की।

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बाला साहेब और कांग्रेस से गलबहियां

अब सुनिए वो कहानी जो ये साबित करेगी कि बाला साहेब सिर्फ अपना फायदा देखते थे। बाकी विचारधारा तो बदलने के लिए ही होती है। तो सुनिए 1975 में पीएम इंदिरा गांधी ने देश पर इमरजेंसी थोप दी। इससे पहले उन्होंने महाराष्ट्र में ठाकरे के मित्र सीएम वसंत राव नायक को हटा एस बी चव्हाण कुर्सी थमा दी।

सभी को लगा कि अब ठाकरे हल्ला बोलेंगे। लेकिन उन्होंने ऐसा कुछ नहीं किया। बदले में इंदिरा ने भी शिवसेना पर कोई बैन नहीं लगाया। ठाकरे इमरजेंसी इंदिरा और संजय गांधी की शान में कसीदे पढने लगे। इमरजेंसी के ढाई साल तक शिवसेना इंदिरा जी के चरण चापने में लगी रही। कहीं कोई हंगामा नहीं सिर्फ शांति।

इसके बाद 1977 के आम चुनाव में शिवसेना ने अपना कोई भी उम्मीदवार नहीं उतारा। बल्कि कांग्रेस के लिए घर-घर वोट मांगा। अगले साल 1978 में विधानसभा चुनाव हुए। शिवसेना कुछ सीटों पर लड़ी लेकिन कोई फायदा नहीं मिला। इसके बाद फिर 1980 में आम चुनाव हुए। शिवसेना ने चुनाव नहीं लड़ा। बल्कि कांग्रेस का प्रचार किया बदले में शिवसेना के तीन नेता एमएलसी बनाए गए।

कांग्रेस से तलाक

इसके बाद अक्टूबर 1982 की दशहरा रैली में ठाकरे ने ऐलान किया, आज से और अब से कांग्रेस के साथ हमारे सारे रिश्ते समाप्त हो गए।

1984 तक बाल ठाकरे को समझ आ चुका था कि शिवसेना सिर्फ दबंगई के बल पर सरकार में नहीं आ सकती। उसके लिए उसे ठोस मुद्दा चाहिए। इसके लिए उन्होंने चुना हिंदुत्व को। जिसपर वो पहले भी खेलते रहे थे। अप्रैल में ठाकरे ने अपने इस नए फार्मूले का सफल परिक्षण किया। भिवंडी में भीषण दंगे हुए। कई बेगुनाह मारे गए। इनमें पुलिसकर्मी भी शामिल थे। 100 बुरी तरह घायल हुए। आगजनी हुई। कर्फ्यू भी लग गया।

इसी बीच 31 अक्टूबर 1984 को पीएम इंदिरा गांधी की हत्या होती है। सिख विरोधी दंगे भड़क उठते हैं। लेकिन मुंबई में सिख समाज सुरक्षित रहता है। कारण थे ठाकरे। ठाकरे ने बाद में कहा, राष्ट्रपति ज्ञानी जैल सिंह जब बम्बई आए तो बोले कि आप चाहते तो क्या कुछ कर देते। पर आपने किया नहीं। यहां सिख आपके कारण सुरक्षित थे। लोगों का कहना है इसके लिए उन्होंने बड़ी कीमत वसूली थी।

ठाकरे की पारखी नजर, बीजेपी के गले में वरमाला

इसके बाद शिवसेना ने दूसरी शादी रचाई 1984 के लोकसभा चुनाव के दौरान। वरमाला दाल दी बीजेपी के गले में। शिवसेना ने बीजेपी का दामन थाम लिया। इस चुनाव में गठबंधन को बुरी हार मिली। लेकिन गठबंधन चलता रहा दोनों में वाद विवाद होता रहा लेकिन साथ बना रहा।

जब बीजेपी की बचाई लाज

बाबरी मस्जिद गिरी तो कोई भी बीजेपी नेता जिम्मेदारी लेने को तैयार नहीं था तब ठाकरे ने कहा- शिव सैनिकों ने किया है ये सब।

शिवसेना ने जो हासिल किया वो किसी और के बूते की बात नहीं

1991 वानखेड़े और 1999 में फिरोजशाह कोटला की पिच पर खुदाई बीसीसीआई ऑफिस में तोड़-फोड़।

1995 विधानसभा चुनाव में बीजेपी और शिवसेना ने 288 में से 138 सीटें हासिल की 7 सीटों का जुगाड़ कांग्रेस से किया। शिवसेना के मनोहर जोशी सीएम बीजेपी के गोपीनाथ मुंडे डिप्टी सीएम बन गए।

14 मार्च 1995 जोशी ने शिवाजी पार्क में शपथ ली। ये वही ऐतिहासिक पार्क था। जहां ठाकरे ने नारियल फोड़ पार्टी बनाई थी।

1996 के आम चुनाव में शिवसेना-बीजेपी महाराष्ट्र में 48 में से 33 लोकसभा सीटें।

1998 दीपा मेहता की ‘फायर’ के खिलाफ बमचक।

1998 लोकसभा चुनाव में 10 सीटें।

1997 ‘मी नाथूराम गोडसे बोलतोय’ नाटक का मंचन।

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आशीष शर्मा ऋषि वेब और न्यूज चैनल के मंझे हुए पत्रकार हैं। आशीष को 13 साल का अनुभव है। ऋषि ने टोटल टीवी से अपनी पत्रकारीय पारी की शुरुआत की। इसके बाद वे साधना टीवी, टीवी 100 जैसे टीवी संस्थानों में रहे। इसके बाद वे न्यूज़ पोर्टल पर्दाफाश, द न्यूज़ में स्टेट हेड के पद पर कार्यरत थे। निर्मल बाबा, राधे मां और गोपाल कांडा पर की गई इनकी स्टोरीज ने काफी चर्चा बटोरी। यूपी में बसपा सरकार के दौरान हुए पैकफेड, ओटी घोटाला को ब्रेक कर चुके हैं। अफ़्रीकी खूनी हीरों से जुडी बड़ी खबर भी आम आदमी के सामने लाए हैं। यूपी की जेलों में चलने वाले माफिया गिरोहों पर की गयी उनकी ख़बर को काफी सराहा गया। कापी एडिटिंग और रिपोर्टिंग में दक्ष ऋषि अपनी विशेष शैली के लिए जाने जाते हैं।

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