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छोटे दल इधर के रहे न उधर के, महागठबंधन में नहीं मिल रहा छोटे दलों को कोई बड़ा मौका

raghvendra
Published on: 2 March 2019 7:39 AM GMT
छोटे दल इधर के रहे न उधर के, महागठबंधन में नहीं मिल रहा छोटे दलों को कोई बड़ा मौका
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भाजपा ने 'बड़े भाई' पर छोड़ा 'कुश' मैनेजमेंट

शिशिर कुमार सिन्हा

पटना: लोकसभा चुनाव के पहले बिहार में छोटे राजनीतिक दलों का छिटकना उनके लिए फायदेमंद होता नजर नहीं आ रहा है। बिहार की राजनीति में राष्ट्रीय लोक समता पार्टी, हिन्दुस्तानी आवामी मोर्चा सेक्यूलर (हम) और विकासशील इंसान पार्टी (वीआईपी) को कुछ महीने पहले तक लोकसभा चुनाव से बहुत उम्मीदें थीं लेकिन अब सभी धीरे-धीरे हिम्मत हारते नजर आ रहे हैं। तीनों ही छोटी पार्टियां महागठबंधन के पाले में हैं और इनकी सीटों का निर्धारण अब रांची में बैठे राष्ट्रीय जनता दल अध्यक्ष लालू प्रसाद खुद कर रहे हैं।

बिहार में लोक जनशक्ति पार्टी (लोजपा) को भी पहले छोटी पार्टी के रूप में देखा जाता था लेकिन राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन में रहते हुए इसका रूप, आकार और प्रभाव आम तौर पर बढ़ा ही है। पिछले लोकसभा चुनाव में राजग ने उसे सात सीटों पर लडऩे का मौका दिया, जिनमें से छह पर लोजपा ने जीत हासिल की थी। विधानसभा चुनाव में नीतीश कुमार और लालू प्रसाद की जोड़ी के आगे राजग ही नहीं ठहर सका था तो लोजपा का ग्राफ गिरना आश्चर्यजनक भी नहीं था। अब फिर नीतीश कुमार राजग में हैं और रामविलास पासवान की अध्यक्षता वाली लोजपा राजग के मजबूत दल के रूप में साथ है। छोटे दल के दायरे से निकलने के लिए उसने इस बार राजग के सीट शेयरिंग फॉर्मूले में भी अपना प्रभाव दिखाया। सीट शेयरिंग के दौरान ही राजग से राष्ट्रीय लोक समता पार्टी का भी दुराव हो गया। इससे पहले नीतीश के नाम पर हम (से) प्रमुख जीतन राम मांझी राजग में कसमसा रहे थे। मांझी ने समय रहते महागठबंधन का रास्ता चुन लिया, जबकि उपेंद्र कुशवाहा की रालोसपा बाद में महागठबंधन के दरवाजे पहुंची।

दूसरों की कहते थे, अपने लिए भी सीट नहीं जुटा पा रहे

कुशवाहा के आने पर मांझी ने कहा था कि वह थोड़ा लेट हो गए, समय पर आते तो और ज्यादा सम्मानजनक सीट पाते। अब मांझी खुद परेशान हैं। उन्होंने बिहार में महागठबंधन से 20 सीटों की मांग रख दी थी। मांझी ने बिहार में कांग्रेस से ज्यादा हम (से) का प्रभाव बताते हुए यह मांग रखी तो लालू प्रसाद ने उनसे इसका आधार और जीतने में सक्षम प्रत्याशियों के नाम मांग लिए। लालू का मानना है कि मगध क्षेत्र की दो सीटों पर मांझी का प्रभाव है, हालांकि मांझी लोकसभा उपचुनावों में राजद प्रत्याशियों की जीत में अपना योगदान कम मानने को तैयार नहीं हैं। यही कारण है कि लालू के इनकार के बाद मांझी फरवरी के अंतिम हफ्ते में उनसे मिलने रांची भी गए लेकिन मिलने के बाद की जानकारी मीडिया को नहीं दी।

मांझी की नाराजगी साफ जाहिर हो चुकी है, हालांकि वह महागठबंधन में जमे रहने की बात कहते भी नहीं थक रहे। इस बीच भाजपा ने मांझी के राजग में आने पर सीट शेयरिंग फॉर्मूले पर पुनर्विचार की बात कह हम (से) को प्रलोभन भी दिया है। काफी हद तक यही हाल उपेंद्र कुशवाहा का है या शायद इससे भी बुरा। कुशवाहा भले ही राजग छोड़ गए लेकिन संकल्प रैली में उन्हें छोड़ रालोसपा के कई अन्य नेता न केवल भागीदारी कर रहे बल्कि रालोसपा के नाम-झंडे का इस्तेमाल भी कर रहे। महागठबंधन में सीटों की भागीदारी को लेकर कुशवाहा भी परेशान हैं। कुशवाहा रिम्स में लालू से मुलाकात भी कर चुके हैं, लेकिन बताया जा रहा है कि उन्हें भी मांझी की तरह ही प्रत्याशियों की सूची देने के लिए कहा गया है।

बिहार में लोकसभा चुनाव को लेकर महागठबंधन एक-दो हफ्ते में सीटों का बंटवारा करेगा। कांग्रेस कितनी और किन सीटों पर लड़ेगी यह तय होते ही लालू प्रसाद सीटें तय कर देंगे। सीट बंटवारे में विकासशील इंसान पार्टी (वीआईपी) के साथ वीआईपी ट्रीटमेंट की उम्मीद है। वैसे तो कुशवाहा मतदाताओं को अपने साथ मिलाने के लिए उपेंद्र कुशवाहा और पासवान के दलित मतदाताओं को साथ लाने के लिए मांझी को भी महागठबंधन नाराज नहीं होने देगा। ऐसे में वीआईपी को वीआईपी ट्रीटमेंट मिलना भी नहीं चौंकाएगा। ‘सन ऑफ मल्लाह’ के नाम से चर्चित मुकेश साहनी की वीआईपी ने पिछले साल नीतीश के खिलाफ बड़ी रैली कर राजद, खासकर तेजस्वी यादव को खूब प्रभावित किया था।

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राघवेंद्र प्रसाद मिश्र जो पत्रकारिता में डिप्लोमा करने के बाद एक छोटे से संस्थान से अपने कॅरियर की शुरुआत की और बाद में रायपुर से प्रकाशित दैनिक हरिभूमि व भाष्कर जैसे अखबारों में काम करने का मौका मिला। राघवेंद्र को रिपोर्टिंग व एडिटिंग का 10 साल का अनुभव है। इस दौरान इनकी कई स्टोरी व लेख छोटे बड़े अखबार व पोर्टलों में छपी, जिसकी काफी चर्चा भी हुई।

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