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आखिर क्यों! सामाजिक न्याय की लड़ाई में हाशिये पर असल मुद्दे

भारतीय राजस्व सेवा को छोड़ राजनीति में आये उदित राज का संसद में पहुंचने का ख्वाब मनुस्मृति सरीखे भारतीय ग्रंथों को मानने तथा भारतीय संस्कृति की पृष्ठभूमि पर राजनीति करने वाली भाजपा ने ही पूरा करवाया। बावजूद इसके

Anoop Ojha
Published on: 8 Jan 2018 3:07 PM IST
आखिर क्यों! सामाजिक न्याय की लड़ाई में हाशिये पर असल मुद्दे
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आखिर क्यों! सामाजिक न्याय की लड़ाई में हाशिये पर असल मुद्दे

योगेश मिश्र योगेश मिश्र

भारतीय राजस्व सेवा को छोड़ राजनीति में आये उदित राज का संसद में पहुंचने का ख्वाब मनुस्मृति सरीखे भारतीय ग्रंथों को मानने तथा भारतीय संस्कृति की पृष्ठभूमि पर राजनीति करने वाली भाजपा ने ही पूरा करवाया। बावजूद इसके उनकी नाराजगी मनुस्मृति से खत्म नहीं हुई। सिक्के का दूसरा पहलू यह है कि उदित राज भाजपा में रहने के बावजूद समानांतर अपनी जगह बनाये रखना चाहते हैं, इसलिए मनुस्मृति पर उनका गुस्सा बना है यह बताना उनके लिए जरूरी हो गया है।

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कुछ इसी तरह की सियासत महाराष्ट्र के भीमकोरे गांव में दो सौ साल पहले हुए संघर्ष पर छिड़ जाती है। मामला पेशवा बनाम महार में तब्दील हो जाता है। कुछ बुद्धिजीवियों को इसी समय ज्योतिबा फुले याद हो उठते हैं। इतिहास से झाड़ पोछकर 1857 के विद्रोह के विफल हो जाने के बाद ज्योतिबा फुले द्वारा वायसराय को लिखा पत्र निकाला जाता है। पेशवा पर ईस्ट इंडिया कंपनी की विजय को महार जातियों के साथ बरती गई अस्पृश्यता और ज्यादतियों से जोड़कर पेश किया जाने लगता है। यह कहने वाले यह भूल गये कि जलियावाला बाग में तोपों ने बहादुर सिखों को भी नहीं टिकने दिया था। कोई भी विजय केवल वीरता की नहीं कही जाती है।

असलहों का भी वीरता में बड़ा योगदान होता है। ब्रिटिश सेना की ओर से लड़ रहे महार सैनिकों के पास ब्रिटेन के आधुनिक स्वचालित हथियार थे। पेशवा और महार के बीच बहादुरी का एक किस्सा अगर भीमाकोरे गांव में दर्ज है, तो अनंत कथाएं पेशवा के विजय की इतिहास में हैं। भीमाकोरे गांव दलित विमर्श का केंद्र नहीं है। हालांकि इसकी साजिश चल रही है।

जातियां हथियार होती हैं, यह धारणा पहले सिर्फ राजनीति तक थी। अब बुद्धिजीवी इसका इस्तेमाल करने लगे हैं। उन्हें इस बात का कोई फर्क नहीं पड़ता कि बहराइच जिले के बहाऊपुरवा गांव के दो सौ बच्चों ने स्कूल नहीं देखा है। तमाम लोगों ने रेलगाड़ी नहीं देखी है। बिजली तो जैसे सिर्फ सपना है। विदिशा के एक स्कूल में मिड डे मील खाने वाले बच्चे नाली का पानी पीने को आज भी अभिशप्त हैं।

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एक आदमी को औसतन 49.31 लीटर ही पानी मिलता है, जो खपत के लिहाज से 90 लीटर कम है। 15 करोड़ से अधिक लोग स्वच्छ पेयजल से वंचित हैं। देश में करीब 9.3 करोड़ लोग झुग्गी-झोपड़ियों में रहते हैं। हर साल इनकी संख्या 2 फीसदी की दर से बढ़ रही है। 5 करोड़ 70 लाख से अधिक बच्चे कुपोषित है। ‘वी चिल्ड्रन’ की रिपोर्ट में संग्रहीत सूचकांकों के अनुसार 25 प्रतिशत बच्चों का वजन 2.5 किलोग्राम से कम है। 15 फीसदी बच्चे कभी स्कूल नहीं जा पाते, जो जाते भी हैं उनमें से 52 प्रतिशत प्राइमरी में ही रह जाते हैं, सिर्फ 8.9 फीसदी उच्च और उच्चतर डिग्रियां हासिल करते हैं।

प्रतिव्यक्ति आय के मामले में भारत का दुनिया के मामले में 161वां स्थान है। संयुक्त राष्ट्र संघ की मानव विकास रिपोर्ट में भारत 169 देशों की सूची में 119वें स्थान पर है। शिक्षा के क्षेत्र में 116 देशों से पीछे होना दुखद है। इंस्टीट्यूट फॉर इकोनॉमिक्स एंड पीस द्वारा जारी चौथे वार्षिक वैश्विक शांति सूचकांक में भारत से 127 देश आगे हैं। भारत इराक के बाद दूसरा सबसे अधिक आतंक प्रभावित देश है। लीसेस्टर विश्वविद्यालय की शोध- रिपोर्ट के अनुसार खुशहाली के परिप्रेक्ष्य में हमारे देश का 125वां स्थान है। थिंक टैंक हेरिटेज फाउण्डेशन की शोध रिपोर्ट बताती है कि 123 देशों में आर्थिक आजादी हमसे अधिक है।

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एक अनुमान के अनुसार सन् 2020 तक देश की आबादी 130 करोड़ के करीब होगी, इस आबादी का पेट भरने के लिए जरूरी अन्न उपजाना एक चुनौती है। देश में आधे से अधिक लगभग 51 फीसदी किसान कर्ज में डूबे हुए है। नेशनल क्राइम ब्यूरो रिकार्ड के अनुसार 1997 से अब तक दो लाख 16 हजार 5 सौ किसान आत्महत्या कर चुके हैं। शायद ही कोई गांव हो जहां की शत-प्रतिशत स्त्रियां साक्षर व स्वावलम्बी हों। लिंगभेद असमानता सूचकांक में भारत 122वें स्थान पर है। अमेरिका, जापान, ब्राजील, इंडोनेशिया में लिंगानुपात स्त्रियों के पक्ष में है। भारत में ठीक उलटा। भारत में एक आदमी को 37.7 किलोवाट बिजली मिलती है। जबकि जापान और अमेरिका में यह आंकड़ा 3466 और 1998 है।

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एच.एफ. लिंडाल और नेशनल काउन्सिल फॉर एप्लायड इकोनोमिक रिसर्च के अनुसार सर्वाधिक विपन्न 80 फीसदी परिवारों के पास सकल घरेलू आय का 8 से 9 प्रतिशत आता है, शेष भाग पर सर्वाधिक सम्पन्न 20 प्रतिशत परिवारों का कब्जा है। एक लाख लोगों पर 94 पुलिसकर्मी हैं। जो न्यूनतम से 106 कम है। 1700 लोगों पर मात्र एक चिकित्सक उपलब्ध है। एनसीईयूएस की रिपोर्ट भी बताती है कि 77 फीसदी लोग महज 20 रुपये प्रतिदिन में गुजर-बसर करते हैं।

यह सवाल न तो सामाजिक न्याय की लड़ाई लड़ने वाले लालू यादव के एजेंड में है और न उदित राज, न मायावती, न अखिलेश यादव न ही कांग्रेस और न ही भाजपा। इनकी कोशिश इन दिक्कतों को वोटबैंक में तब्दील कर सिर्फ लाभ उठाने की है। यही वजह है कि जब-जब नेता और उनकी पार्टी संकट में होती है, तब-तब उन्हें गरीब, किसान, मजदूर, जाति, धर्म की याद आती है। क्योंकि इनकी बैसाखियों पर सवार होकर वे और उनके परिजन सदन की दहलीज में घुसने में कई बार कामयाब हो गये है। लेकिन अब वक्त बदला है।

( लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)



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Anoop Ojha

Anoop Ojha

Excellent communication and writing skills on various topics. Presently working as Sub-editor at newstrack.com. Ability to work in team and as well as individual.

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