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Sonia Gandhi B'Day: 76 बरस की हुईं सोनिया गांधी, मौका मिलने के बावजूद ठुकरा दिया था प्रधानमंत्री का पद
Sonia Gandhi 76th Birthday: सोनिया गांधी अपना 76वां जन्मदिन राजस्थान के रणथंभौर में बेटे राहुल और बेटी प्रियंका के साथ मना रही हैं। प्रधानमंत्री और केंद्रीय मंत्री गडकरी समेत अन्य वरीय नेताओं ने उन्हें शुभकामनाएं दी है।
Sonia Gandhi Birthday: कांग्रेस की पूर्व अध्यक्ष और संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (यूपीए) की मुखिया सोनिया गांधी ने आज यानी 9 दिसंबर को अपने जीवन के 76 बसंत पूरे कर लिये। सोनिया गांधी अपना 76वां जन्मदिन राजस्थान के रणथंभौर में बेटे राहुल और बेटी प्रियंका के साथ मना रही हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और केंद्रीय मंत्री नितिन गडकरी समेत अन्य वरीय नेताओं ने उन्हें जन्मदिन की शुभकामनाएं दी है। पीएम मोदी ने ट्वीट कर उनके लंबे जीवन और अच्छे स्वास्थ्य की कामना की है।
विदेशी बहू बन गई इंदिरा की चहेती
सोनिया गांधी का हिंदुस्तान से कोई नाता नहीं था। इटली में एक ईसाई परिवार में जन्मी एंटोनिया एडविजे अल्बिना मेनो के जीवन में जब राजीव गांधी की एंट्री हुई तो एक झटके में उनकी पूरी पहचान बदल गई। जिसमें नाम, धर्म, संस्कृति और देश तक शामिल है। राजीव गांधी से विवाह के बाद वह सोनिया गांधी बन गईं। उन्हें शायद इस बात का अंदाजा भी नहीं होगा कि उनके इस फैसले ने उन्हें भारत के सबसे बड़े और ताकतवर राजनीतिक परिवार का सदस्य बना दिया।
सोनिया जब भारत आईं तो उस समय इंदिरा गांधी जीवित थीं और भारतीय राजनीति में उनकी तूती बोलती थी। विदेशी बहू ने जल्द इंदिरा को रिझा लिया और उनकी प्रिय बन गईं। पेशे से पायलट पति राजीव गांधी के साथ वह विदेश में बसने का सोच ही रही थीं कि तभी उनके देवर संजय गांधी की मौत हो गई। सोनिया के ना चाहने के बावजूद राजीव गांधी को सक्रिय राजनीति में उतरना पड़ा। कुछ समय बाद सास इंदिरा गांधी की भी हत्या हो गई। अब राजीव गांधी के पास सरकार और पार्टी की बागडोर संभालने के अलावा कोई विकल्प नहीं था।
राजीव गांधी की मौत ने राजनीति से कर दिया था दूर
राजनीति में उतरने के हमेशा खिलाफ रहीं सोनिया गांधी को साल 1991 में तब बड़ा झटका लगा, जब उनके पति राजीव गांधी तमिलनाडु में एक चुनाव प्रचार के दौरान आत्मघाती बम धमाके में मारे गए। इस घटना ने उनके दिल में राजनीति के लिए नफरत पैदा कर दी। उस दौरान उन्होंने परिवार के साथ राजनीति से दूर रहने का फैसला लिया। 1991 के आम चुनाव में कांग्रेस के सत्ता में आने के बावजूद उन्होंने सक्रिय राजनीति में दिलचस्पी लेने से इनकार कर दिया और प्रधानमंत्री की कुर्सी रिटायरमेंट मोड पर जा चुके पीवी नरसिंहराव को मिली। इस बीच कांग्रेसियों ने सोनिया गांधी से एक्टिव राजनीति में आने के लिए खूब मनुहार किया। कांग्रेस नेताओं ने अमेठी से श्रीपेरंबदूर तक की पदयात्रा कर डाली, फिर भी सोनिया अपने फैसले से नहीं डिगीं।
सक्रिय राजनीति में रखा कदम
नरसिंह राव सरकार के दौरान ही गांधी परिवार की कम होती सियासी हैसियत से सोनिया गांधी थोड़ी परेशान रहने लगी। इसमें उनके दरबारियों का भी अहम योगदान रहा। सोनिया जब एक विदेशी बहू बनकर भारत आई थीं, तब कांग्रेस पार्टी का अलग ही जलवा हुआ करता था। जो 1990 के दशक में समाप्त होने लगा था। भारतीय राजनीति में पार्टी और परिवार की साख बचाए रखने के लिए सोनिया ने अपना मन बदला और सक्रिय राजनीति में उतरने का निर्णय लिया। हालांकि, इसका विरोध भी हुआ था। शरद पवार समेत कुछ अन्य कद्दावर कांग्रेस नेताओं ने विदेशी मूल का मुद्दा उठाकर पार्टी छोड़ दी थी।
सीताराम केसरी को हटाकर कांग्रेस अध्यक्ष बनी सोनिया गांधी ने 22 सालों तक इस पद पर रहकर इतिहास रच दिया। उनकी अगुवाई में पार्टी ने शुरूआत में दो लोकसभा चुनाव 1998 औऱ 1999 गंवाए। हालाकि, 1998 में अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार 1 वोट से गिर जाने के बाद उन्होंने राष्ट्रपति के समक्ष सरकार बनाने का दावा ठोंका था लेकिन ऐन वक्त पर मुलायम सिंह यादव के कन्नी काट लेने से ये कोशिश परवान नहीं चढ़ सकी।
अटल-आडवानी की लोकप्रिय जोड़ी को दी शिकस्त
साल 1999 में केंद्र में अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में एनडीए सरकार थी। ये आजाद भारत के इतिहास में पहली ऐसी गैर – कांग्रेसी सरकार रही, जिसने अपना कार्यकाल पूरा किया। इस दौरान प्रधानमंत्री वाजपेयी और डिप्टी पीएम सह गृह मंत्री लालकृष्ण आडवाणी की जोड़ी भारतीय राजनीति में काफी लोकप्रिय थी। साल 2004 के लोकसभा चुनाव में सोनिया गांधी की अगुवाई वाली कांग्रेस की कमजोर लीडरशिप के सामने बीजेपी की अगुवाई वाली एनडीए की जीत निश्चित लग रही थी। तमाम प्री-पोल सर्वे भी इसी ओर इशारा कर रहे थे। लेकिन जब नतीजे आए तो सब चौंक कर रह गए।
लोकसभा चुनाव में खंडित जनादेश आने के बावजूद बीजेपी कांग्रेस से पीछे रह गई थी और नतीजतन केंद्र की सत्ता में कांग्रेस के आने का मार्ग प्रशस्त हो गया था। तब सोनिया गांधी ने एनडीए की तर्ज पर विभिन्न दलों के साथ मिलकर यूपीए गठबंधन बनाया और बहुमत के जादुई आंकड़े को हासिल किया।
प्रधानमंत्री का पद लेने से किया इनकार
साल 2004 में जब यह तय हो गया था कि केंद्र में अब कांग्रेस की अगुवाई में संयुक्त प्रगतीशील गठबंधन की सरकार बनेगी, तब स्वाभाविक तौर पर सोनिया गांधी को देश के भावी प्रधानमंत्री के रूप में देखा जाने लगा था। लेकिन सोनिया गांधी ने अर्थशास्त्री और पूर्व वित्त मंत्री मनमोहन सिंह का नाम आगे रखकर सबको हैरान कर दिया। बताया जाता है कि कांग्रेस और सहगोगी दलों के नेता इसके लिए तैयार नहीं थे। लेकिन अंततः सभी को सोनिया की जिद के सामने झुकना पड़ा। साल 2009 के लोकसभा चुनाव में जब कांग्रेस ने पिछली बार से भी ज्यादा सीटें हासिल कीं, तब भी उनके पीएम बनने की अटकलें थीं। लेकिन उन्होंने इसबार भी यह पद लेने से इनकार कर दिया।
ऐसे समय में जब देश के लगभग नेता बहुमत न होने के बावजूद प्रधानमंत्री की कुर्सी तक पहुंचने के लिए लालायित रहते हैं तब सोनिया गांधी ने समर्थन होने के बावजूद देश की सबसे महत्वपूर्ण कुर्सी का त्याग क्यों किया ? इस सवाल का जवाब कांग्रेस पार्टी के समर्थक और विरोधी अपने – अपने हिसाब से देते हैं। उनके समर्थक या विरोधी जो भी कहें, लेकिन एक अनजान देश में सत्ता के शिखर पर पहुंचने के बावजूद उसके सर्वोच्च पद से खुद को दूर रखकर सोनिया गांधी ने एक त्याग तो जरूर किया है। निश्चित तौर पर ऐसा करते हुए उनके जेहन में साल 1984 और 1991 जरूर रहा होगा।