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हर राजनैतिक दल को पाठ पढ़ाते इस बार के गुजराती नतीजे
योगेश मिश्र
किसी भी विधानसभा चुनाव के नतीजे लोकसभा चुनाव की पटकथा लिखें ऐसा नहीं होता है पर गुजरात के चुनाव में कुछ ऐसा ही था इसीलिए यह चुनाव नरेंद्र मोदी बनाम राहुल गांधी हो गया। सरकार भले भाजपा के मुख्यमंत्री विजय रुपाणी की थी पर मोदी के नाम और मोदी के काम के भरोसे ही किसी तरह भाजपा की मझधार में डूबती उतराती नैय्या पार लग पाई। भाजपा के लिए गुजरात जीतने के आधार बहुत थे। नरेंद्र मोदी सांसद उत्तर प्रदेश से बन गए हों पर उनकी आंख-कान गुजरात ही है। चुनावी राजनीति के इन दिनों के बड़े रणनीतिकार भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह गुजरात से हैं। 22 साल से गुजरात में भारतीय जनता पार्टी की सरकार है।
राजनीति के एक सिद्धांत के मुताबिक जब भी किसी राजनैतिक दल की लंबे समय तक सरकार होती है तब उसके वोट प्रतिशत में इजाफा होता है। पश्चिम बंगाल में मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी ने 34 साल तक शासन किया। 2006 उसका अंतिम चुनाव था जिसमें माकपा को 50.8 फीसदी वोट मिले थे। 2011 में ममता ने सीपीएम से पश्चिम बंगाल छीन लिया। उड़ीसा बीजू जनता दल को 2014 में 43.4 फीसदी वोट मिले थे। वह 2000 में सत्ता में काबिज हुई थी और उसका वोट शेयर लगातार बढा था। परंतु गुजरात में भाजपा के वोटों में 2012 की तुलना में उल्लेखनीय बढोत्तरी नहीं दिख रही है। सीटें भी घटकर 99 के फेर में फंस गयीं। यही नहीं, तकरीबन साढे पांच लाख लोगों ने नोटा का बटन दबाया। यह पहला अवसर था जब राहुल गांधी ने मोदी के मैदान पर आमने सामने की ताल ठोंकी थी। वह भी तब जब राहुल के राष्ट्रीय अध्यक्ष का कालखंड इसी चुनाव के बीच में था। सिर मुंडाते ही ओले पड़ने की कहावत सटीक हो सकती थी।
राहुल ने मोदी के मुद्दे और मोदी के मैदान पर भले ही जीत न हासिल की हो पर भाजपा को एक ऐसी चुनौती दी है जिसमें उसके लिए कई संदेश छिपे हुए हैं। भाजपा के लिए संदेश यह है कि उसे रीति और नीति बदलनी चाहिए। जीएसटी और नोटबंदी भले ही प्रभावी न रहे हों पर अर्थनीति के सवाल पर भाजपा लोगों से नाराजगी मोल ले रही है। मोदी के अलावा उनके सभी सिपहसालार उनकी साख के बिना किसी राज्य में नैय्या पार लगा पाएंगे यह लाख टके का सवाल हो रहा है। किसी भी नेता के लिए यह जरुरी होता है कि उसके पास ‘लाइबिलिटी’ कम और ‘एसेट’ ज्यादा हों। मोदी ठीक उल्ट ज्यादा ‘लाइबिलिटी’ लेकर चलने वाले नेता हैं।
1995,1998,2007 और 2012 तक के चुनाव में भाजपा क्रमशः 121,117,127,117,115 सीटें जीतने में कामयाब हुई है। लेकिन इस बार वह इन आंकड़ों से काफी दूर रही। भाजपा के चार मंत्री चुनाव हार गये। जिस सोमनाथ मंदिर में दर्शन को लेकर राहुल गांधी को धर्म पर घेरा गया था वह सोमनाथ सीट भाजपा के हाथ से खिसक गयी। शहरी सीट ही भाजपा के लिए उम्मीद की किरण बनी। आमतौर पर हर हमले के बाद मोदी मजबूत हुए हैं लेकिन इस बार ऐसा नहीं हो पाया। अगले लोकसभा चुनाव से पहले नरेंद्र मोदी और राहुल गांधी दोनों को अपनी छवि गढ़नी थी। राहुल इस यात्रा में मोदी से आगे निकल गये। पिछले लोकसभा चुनाव में मोदी के सामने मनमोहन सिंह सरकार थी। इस बार उनके खुद के किए वायदे होंगे। उन्हें हिंदुत्व का चोला पहनकर विकास का मंत्र फूंकते हुए संघ और अपने वोटबैंक की उम्मीद को बरकरार रखना होगा। उन्हें अगले लोकसभा चुनाव में खुद से टकराना होगा और उस कांग्रेस से भी जिसके मुक्त भारत की वो बात करते हैं। लेकिन अबकि उनके सामने ग्रहण से बाहर निकलती हुए कांग्रेस होगी।
गुजरात में भाजपा से नाराजगी पर मोदी से मोहब्बत भारी पड़ी। भारतीय जनता पार्टी को अब अगले चुनावों के लिए गुजरात के नतीजे से निकले जनादेश के संदर्भ में ही सोचना होगा क्योंकि गुजरात मोदी लैंड है। राहुल ने गुजरात यानी मोदी के मुद्दे-साफ्ट हिंदुत्व बनाम हार्ड हिंदुत्व, विकास बनाम पिछड़ापन पर ही चुनाव लड़ा था। जिस तरह मोदी हर छोटे बड़े चुनाव में अपनी साख फंसाते हैं, राहुल ने भी गुजरात में ऐसा ही किया। उन्होंने 57 रैलियां की और 27 मंदिरों में दर्शन किया जबकि मोदी ने 36 रैलियां की और 5 मंदिरों में दर्शन किया। आबादी के लिहाज 7.78 फीसदी हिस्से पर ही कांग्रेस का राज रह गया है। जबकि भाजपा 69 फीसदी आबादी पर राज करने वाली पार्टी बन गयी है।
भाजपा ने 53 पाटीदार, 47 ओबीसी और 13 दलित प्रत्याशी उतारे थे जबकि कांग्रेस ने इन जातियों के क्रमशः 47,60 और 20 उम्मीदवार उतारे। गुजरात के बाहर कांग्रेस के इस प्रदर्शन के बाद राहुल की नई छवि से मोदी को भिड़ना होगा। जबकि गुजरात में भारतीय जनता पार्टी को सदन के अंदर बढ़ी ताकत और मनोबल वाली कांग्रेस के अलावा जिग्नेश मेवानी और अल्पेश ठाकोर से भिड़ना होगा वहीं सदन के बाहर उसका सामना हार्दिक पटेल की ताकत से होगा।
भाषा के मामले मे इस चुनाव में भारतीय लोकतंत्र ने ऐतिहासिक अनुभव किया। नतीजतन राहुल को अय्यर सरीखे नेताओँ से बचना होगा। क्योंकि नरेंद्र मोदी किसी भी आरोप को भुनाने की कला के माहिर खिलाड़ी हैं। गुजरात अस्मिता के पर्याय पुरुष हैं। हिंदुत्व के प्रतीक पुरुष तभी तो मौत के सौदागर, चायवाला, और नीच शब्द के प्रयोग को लेकर वह करतब दिखा चुके हैं। इस बार भाजपा से बराबरी के स्तर पर लड़ने वाली कांग्रेस ऐसे ही बड़बोले नेताओं के चलते दूसरे चरण में पीछे छूट गयी। गुजरात माडल का मिथ बहस का सबब बना। कन्नड अदाकारा दिव्या अस्पंदना को सोशल मीडिया का काम देकर कांग्रेस ने आभासी दुनिया की लड़ाई में पहले ही भाजपा को पीछे छोड़ दिया था। हालांकि कांग्रेस की दिक्कत उसकी संगठन शून्यता थी। बावजूद इसके उसने अपनी नीतियों और चुनाव प्रचार में पैराडाइम शिफ्ट (प्रतिमानात्मक बदलाव) किया। गुजराती अस्मिता और गौरव के सवाल काग्रेस की पराजय के सबब बने। पर गुजरात के बाहर कांग्रेस को इससे नहीं लड़ना होगा। शंकर सिंह वाघेला और आनंदी बेन पटेल का यह चुनाव सियासी मर्सिया पढ़ गया। टोटकों के लिहाज से कहें तो राष्ट्रीय अध्यक्ष का पद राहुल के लिए शुभ हुआ। भाजपा के जीडीपी के आंकडे और कांग्रेस की खुशी इंडेक्स के बीच आंकड़े पराजित हुए।
हिमाचल के चुनाव ने अपने बारी-बारी भाजपा और कांग्रेस का सियासी ट्रेंड जारी रखा इसलिए उसके नतीजों से बहुत ज्यादा सियासी संदेश नहीं निकाले जा सकते हैं। बहरहाल राहुल के लिए भी यह संदेश है कि जो उन्होंने अपनी पार्टी का प्रतिमानात्मक बदलाव किया है उसे वह कैसे बरकरार रखते हैं जबकि भाजपा के लिए यह संदेश है कि मोदी के क्षत्रप मोदी के रीति नीति पर नहीं चल रहे हैं। इन क्षत्रपों के बूते अगले लोकसभा की इबारत वह लिख पाएँगे थोड़ा मुश्किल है। इसलिए उन्हें मुद्दों की ओवरहालिंग करते हुए देश के नए मिजाज को समझना होगा।
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