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नाम दे दिया 'हिजड़ा', मजाक सब करते हैं, लेकिन अधिकारों के लिए आवाज बुलंद कोई नहीं करता
नई दिल्ली : उनकी पहचान सिर्फ 'हिजड़ा' शब्द से है, उन्हें भद्दे मजाक का सामना करना पड़ता है, पेशे के नाम पर उनके पास भीख मांगने के अलावा कोई चारा नहीं है और उनके अधिकारों का हमेशा दमन किया जाता है। लेकिन, देश में प्रथम ट्रांसजेंडर प्रधानाचार्या मनोबी बंदोपाध्याय का मानना है कि समाज में उन्हें सम्मानित दर्जा तभी मिल सकता है, जब तृतीय लिंग कहलाने वाला उनका समुदाय खुद अपनी आवाज उठाए और अपने अधिकारों की मांग करे।
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मनोबी ने कहा, अधिकांश मामलों में शिक्षा की कमी के कारण वे अपने अधिकारों के बारे में जानते तक नहीं हैं। एक ट्रांसजेंडर को केवल तभी पहचान मिल सकती है, जब वह अपनी आवाज उठाए और सामने आए। सर्वोच्च न्यायालय ने भले ही 2014 में ट्रांसजेंडरों को तीसरे लिंग का दर्जा दे दिया है, लेकिन बंदोपाध्याय को अपने समुदाय के उत्थान की उम्मीदें कम ही नजर आती हैं।
बंदोपाध्याय ने कहा, जब सरकार महिलाओं को सुरक्षा प्रदान नहीं कर सकती, तो हम अपने बेहतर भविष्य के लिए क्या उम्मीद कर सकते हैं? हम सरकार से हमारे मामले में पहल करने और हमारे समुदायों को अधिकार देने की उम्मीद नहीं कर सकते। हमें समाज में तभी सम्मानजनक दर्जा मिलेगा, जब हम अपनी आवाज बुलंद करेंगे।
बंदोपाध्याय फिलहाल राज्य सरकार के अधीन आने वाले पश्चिम बंगाल ट्रांसजेंडर विकास बोर्ड में उपाध्यक्ष और कल्याणी विश्वविद्यालय की कार्यकारिणी में सदस्य हैं।
उन्होंने हाल ही में अपनी जीवनी 'अ गिफ्ट ऑफ गॉडेस लक्ष्मी' (पेंगुइन) का विमोचन किया था, जिसे झिमली मुखर्जी पांडे ने लिखा है। उनकी इस जीवनी में सोमनाथ से मनोबी बनने की उनकी यात्रा, परिवार और समाज में अपनी पहचान हासिल करने से लेकर भारत में प्रथम ट्रांसजेंडर प्रधानाचार्य बनने के उनके संघर्ष की कहानी है।
किताब में बाल यौन अपराध के मुद्दे को भी उठाया गया है, मानोबी भी जिसका शिकार हुई थीं। बंदोपाध्याय ने कहा, मेरे निजी जीवन को साझा करने से कई अन्य लोगों की जिंदगियां बच सकती हैं। भारत में काफी बच्चों को यौन शोषण का शिकार होना पड़ता है, लेकिन लोग इसका खुलासा नहीं करते और अपनी आवाज नहीं उठाते, वे ऐसी घटनाओं को उजागर नहीं करते। सच्चाई को सामने लाना जरूरी है।"
उन्होंने कहा, मैंने इससे बाहर निकलने का साहस किया और समाज के साथ अपनी कहानी साझा की। मेरा मकसद समाज की ऐसी बुराइयों को दूर करना है और यह किताब इसी दिशा में मेरा एक प्रयास है।
बंदोपाध्याय ने कहा कि उन्हें अपनी जीवनी को लेकर या इस पर लोगों की कैसी प्रतिक्रिया होगी, इसे लेकर कोई हिचकिचाहट महसूस नहीं हुई। उन्होंने कहा, जब मुझे यौन उत्पीड़न का सामना करना पड़ा, तो मुझे इसके बारे में लिखने को लेकर हिचकिचाहट क्यों होनी चाहिए? मैंने जो लिखा, वह कई अन्य लोगों के साथ हुआ होगा। मैं चाहती हूं कि लोग यौन उत्पीड़न को लेकर अधिक सतर्क और जागरूक हों।
उन्होंने कहा, लोग दूसरों के विवादास्पद जीवन के बारे में पढ़ना पसंद करते हैं और मेरी किताब में सब कुछ है, मेरे बचपन के दिनों से लेकर कॉलेज में प्रधानाचार्य बनने तक। और अगर लोग मेरे 'विवादास्पद' जीवन के बारे में पढ़ना चाहते हैं, तो मुझे इसमें कोई आपत्ति नहीं है।
हालांकि, उनके जीवन पर आधारित यह किताब एक जीवनी है, लेकिन वह अपने शब्दों में अपनी आत्मकथा भी लिखना चाहती हैं। लेकिन बंदोपाध्याय का कहना है कि उनकी आत्मकथा सिलसिलेवार नहीं होगी, बल्कि बिना किसी क्रम में बंधे उनकी यादों का संकलन होगा।
उन्होंने कहा, अपनी भावनाओं को मैं ही बेहतर ढंग से बयां कर सकती हूं और इसे कोई और नहीं लिख सकता। मेरी विचारधारा को किसी अन्य के शब्दों में बयां नहीं किया जा सकता। इस किताब से बढ़कर भी मेरे जीवन में काफी कुछ है, जिसे किसी किताब में समेटा नहीं जा सकता।