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कोरोना वायरस: इम्यूनिटी का सहारा, फिलहाल कोई योजना नहीं है

कोरोना वायरस से निपटने के लिए लॉकडाउन कोई स्थाई समाधान नहीं है। ऐसे में जिस रणनीति को यूनाइटेड किंगडम ने त्याग दिया था अब उसे भारत जैसे युवा देशों के लिए एक समाधान के रूप में देखा जा रहा है। ये रणनीति है - झुंड प्रतिरक्षा यानी हर्ड इम्यूनिटी की।

suman
Published on: 24 April 2020 9:44 PM IST
कोरोना वायरस: इम्यूनिटी का सहारा, फिलहाल कोई योजना नहीं है
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लखनऊ: कोरोना वायरस से निपटने के लिए लॉकडाउन कोई स्थाई समाधान नहीं है। ऐसे में जिस रणनीति को यूनाइटेड किंगडम ने त्याग दिया था अब उसे भारत जैसे युवा देशों के लिए एक समाधान के रूप में देखा जा रहा है। ये रणनीति है - झुंड प्रतिरक्षा यानी हर्ड इम्यूनिटी की। इस रणनीति में अधिसंख्य आबादी को वायरस से संक्रमित होने दिया जाता है ताकि जब लोग रिकवर हों तो उनमें इम्यूनिटी डेवलप हो जाये। इससे लॉकडाउन, आर्थिक तबाही और लोगों की परेशानी काफी कम की जा सकती है।

विशेषज्ञों की राय

प्रमुख महामारी विशेषज्ञ, जयप्रकाश मुलियाल का कहना है कोई भी देश लंबे समय तक लॉकडाउन में नहीं रह सकता है। खासकर भारत जैसे देशों में ये मुमकिन नहीं है।" "हर्ड इम्यूनिटी में ऐसे बिंदु तक पहुंचने में सक्षम हो सकते हैं कि बुजुर्ग नागरिक महफूज रह जाएँ।“ और जब झुंड प्रतिरक्षा पर्याप्त संख्या में पहुंचती है तो प्रकोप बंद हो जाएगा और बुजुर्ग भी सुरक्षित रह जाएंगे।

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सात महीने का समय

प्रिंसटन विश्वविद्यालय और नई दिल्ली व वाशिंगटन स्थित सेंटर फॉर डिसीज़ डायनेमिक्स, इकोनॉमिक्स एंड पॉलिसी (सीडीडीईपी) के शोधकर्ताओं की एक टीम का कहना है कि भारत ऐसी जगह है, जहाँ यह रणनीति सफल हो सकती है क्योंकि यहाँ युवा आबादी ज्यादा है और उनको अस्पताल में भर्ती होने और मौत का खतरा बहुत कम होगा। शोधकर्ताओं का कहना है कि अगले सात महीनों तक नियंत्रित तरीके से वायरस को फैलने दिया जा सकता है, जिससे नवंबर तक देश के 60 फीसदी लोगों में इम्यूनिटी बन जाएगी और इस तरह बीमारी पर रोक लग जाएगी। भारत में इटली जैसे यूरोपीय देशों की तुलना में मृत्यु दर सीमित हो सकती है क्योंकि 93.5 प्रतिशत भारतीय आबादी 65 वर्ष के कम उम्र की है। और चारा भी क्या ये प्रस्ताव बेहद आक्रामक कहा जा सकता है। लेकिन इसमें विकासशील देशों के सामने लॉकडाउन जैसी चुनौतियों का ख्याला रखा गया है। भारत के कई शहरों और गांवों में लोग बेहद भीड़भाड़ वाले हालातों में रहते हैं। यहाँ सोशल डिस्टेन्सिंग लगभग संभव है। संक्रमण का पता लगाने के लिए परीक्षण किटों की कमी है। और लॉकडाउन में लोगों की जबर्दस्त परेशानियाँ हैं। ऐसे में एक अलग रास्ता अख़्तियार करने की आवश्यकता हो सकती है।

हटा दें लॉकडाउन

प्रिंसटन और सीडीडीईपी टीम ने भारत के सख्त लॉकडाउन को उठाने और 60 से कम उम्र की अधिकांश आबादी को सामान्य जीवन में लौटने की अनुमति देने की सिफ़ारिश की है। सुझाव है कि सोशल डिस्टेन्सिंग को प्रोत्साहित किया जाता रहे। लोग मास्क लगाएँ और ज्यादा लोगों के इकट्ठा होने पर प्रतिबंध लगाया जाएगा। लॉकडाउन खोलने के साथ साथ यथासंभव व्यापक परीक्षण करने और पॉज़िटिव व संदिग्ध मामलों को आइसोलेट करने का काम जारी रखा जाये।

फिलहाल कोई योजना नहीं है

फ़िलहाल इन सिफ़ारिशों के बारे में सरकार ने कुछ नहीं कहा है। अभी तो ऐसे मानदंड हैं जिसमें बहुत बीमार या जोखिम वाले लोगों की ही टेस्टिंग हो रही है। आलोचकों का कहना है कि लिमिटेड टेस्टिंग से बीमारी को फैलने देने की ही नीति दिखाई पड़ रही है। सरकार अपने परीक्षण मानदंडों के आधार पर ही कोरोना के मामलों की संख्या बताती है। सरकार का कहना कि यह बीमारी समुदाय में नहीं फैल रही है। फिर भी, 21 अप्रैल तक 645 मौतों के साथ राष्ट्रव्यापी आंकड़ा 20,080 तक पहुँच चुका है। टेस्टिंग की संख्या बढ्ने से हर दिन अधिक मामलों का भी पता लगा रहा है। सीडीडीईपी के निदेशक और प्रिंसटन शोधकर्ता, रामनयन लक्ष्मीनारायण ने कहा है कि हम कई फ्रंट से निपट रहे हैं। कोरोना वायरस को नियंत्रित तरीके से फैलने की अनुमति देने से,निस्संदेह मौतें होंगी, लेकिन यह काफी सीमित होगा और हम नवंबर तक सामान्य बिजनेस में लौट आएंगे। मुझे लगता है कि आखिरकार सभी देश इस भारतीय मॉडल का पालन करेंगे, अन्यथा हम अगले साल के जून तक सभी तरह से बंद होने जा रहे हैं।

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विवादित रणनीति

लेकिन ये रणनीति अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पहले ही विवादास्पद साबित हुई है। यूके ने शुरू में इसे अपनाया और लेकिन महामारी का प्रकोप बढ्ने से जल्दी इसे त्याग दिया। वायरस के परीक्षण में ब्रिटिश सरकार की धीमी रफ्तार को अभी तक कोसा जा रहा है। एक युवा आबादी वाले भारत जैसे देश में भी अंतर्निहित जोखिम हैं। लोगों को संक्रमित होने देने से अंततः अस्पतालों में भीड़ बढ़ेगी और हेल्थ सिस्टम छिन्न भिन्न हो सकता है। इस जोखिम के बारे में शोधकर्ताओं का कहना है कि भारत को क्रिटिकल केयर और आइसोलेशन वार्डों की क्षमता का तत्काल विस्तार करना होगा ताकि रोगियों की बढ़ती संख्या में मौतों को न्यूनतम रखा जा सके। एक और जोखिम है भारत का गंभीर वायु प्रदूषण और उच्च रक्तचाप और मधुमेह की उच्च दर। इन कारणों से युवाओं का स्वास्थ्य भी उत्तम नहीं है। इसका अर्थ है कि वायरस से मृत्यु दर आशंका से अधिक हो सकती है। लोग सुरक्षा में लापरवाही कर सकते हैं और सामाजिक दिशा-निर्देशों के पालन में विफल हो सकते हैं।

स्टैनफोर्ड यूनिवर्सिटी के मेडिसिन के सहायक प्रोफेसर जेसन एंड्रयूज ने कहा है कि चिंता इस बात की है कि युवा व्यक्ति खुद काफी जोखिम में हैं। लॉकडाउन खोलने और युवाओं को छूट देने से उनमें ये संदेश जाएगा कि वे खुद को कम जोखिम वाला मानने लगेंगे। वे कोरोना के ट्रांसमिशन में अपनी संभावित भूमिका को समझने में विफल हो सकते हैं। फिर यह भी सवाल है कि क्या घनी आबादी वाले भारत में उच्च-जोखिम वाले हिस्से को बंद करना संभव है, जहां कई पीढ़ियां आमतौर पर एक ही छत के नीचे रहती हैं। अंततः, रणनीति की पैरवी करने वाले शोधकर्ताओं का तर्क है कि झुंड प्रतिरक्षा की रणनीति विभिन्न बुरे विकल्पों में से सबसे अच्छी हो सकती है।



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