Supreme Court on President: राष्ट्रपति के अधिकार पर टिप्पणी, न्यायिक सक्रियता या संवैधानिक संकट की आशंका?

Supreme Court on President: राष्ट्रपति को किसी विधेयक पर निर्णय लेने के लिए तीन महीने की समयसीमा निर्धारित करने की कथित टिप्पणी ने देश में एक नई बहस छेड़ दी है।

Ramkrishna Vajpei
Published on: 14 April 2025 2:37 PM IST
Supreme Court President News
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Supreme Court President News (Image From Social Media)

Supreme Court on President: सुप्रीम कोर्ट की ओर से हाल ही में राष्ट्रपति को किसी विधेयक पर निर्णय लेने के लिए तीन महीने की समयसीमा निर्धारित करने की कथित टिप्पणी ने देश में एक नई बहस छेड़ दी है। क्या देश की सर्वोच्च अदालत राष्ट्रपति को इस प्रकार का निर्देश दे सकती है? क्या यह संवैधानिक प्रावधानों के अनुरूप है? इस टिप्पणी ने संवैधानिक संकट की आशंकाओं को जन्म दिया है और विधि विशेषज्ञों के बीच तीखी प्रतिक्रियाएं देखने को मिल रही हैं।

दरअसल, यह टिप्पणी उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ के उस बयान के बाद आई है, जिसमें उन्होंने विधेयकों पर राज्यपालों द्वारा 'बैठे रहने' की आलोचना की थी। खबरों के अनुसार, इस संदर्भ में सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने मौखिक रूप से यह विचार व्यक्त किया कि राष्ट्रपति को भी विधेयकों पर निर्णय लेने के लिए एक समयसीमा का पालन करना चाहिए, संभवतः तीन महीने। हालांकि, अभी तक इस संबंध में कोई आधिकारिक आदेश या विस्तृत व्याख्या सामने नहीं आई है।

इस टिप्पणी को लेकर देश के संविधानविद दो खेमों में बंटे हुए दिखाई दे रहे हैं। एक वर्ग का मानना है कि यह टिप्पणी न्यायपालिका की ओर से कार्यपालिका के अधिकार क्षेत्र में अनधिकार चेष्टा है। संविधान के अनुच्छेद 111 के तहत, राष्ट्रपति के पास किसी विधेयक को स्वीकृति देने, स्वीकृति रोकने या उसे पुनर्विचार के लिए वापस भेजने का अधिकार है। संविधान में कोई निश्चित समयसीमा निर्धारित नहीं की गई है, जिससे राष्ट्रपति बंधे हों। ऐसे में, न्यायपालिका द्वारा इस प्रकार की समयसीमा तय करना संविधान के प्रावधानों का उल्लंघन माना जा सकता है और शक्ति पृथक्करण के सिद्धांत के विपरीत है।

वरिष्ठ संविधानविद डॉ. सुभाष कश्यप का मानना है कि "राष्ट्रपति एक संवैधानिक पद है और उन्हें अपने विवेक के अनुसार कार्य करने का अधिकार है। संविधान में कोई समयसीमा तय नहीं है, इसलिए न्यायालय द्वारा इस प्रकार की मौखिक टिप्पणी भी उचित नहीं है। यह कार्यपालिका के अधिकारों का अतिक्रमण है।" उन्होंने आगे कहा कि इस प्रकार की टिप्पणियां संवैधानिक संतुलन को बिगाड़ सकती हैं।

वहीं, दूसरे वर्ग का तर्क है कि यह टिप्पणी विधायिका द्वारा पारित विधेयकों पर अनिश्चितकाल तक निर्णय न लेने की प्रवृत्ति पर अंकुश लगाने के उद्देश्य से हो सकती है। उनका मानना है कि लोकतांत्रिक प्रक्रिया में पारित विधेयकों पर लंबे समय तक राष्ट्रपति या राज्यपालों द्वारा निर्णय लंबित रखना विधायिका के जनादेश का अपमान है और सुशासन के सिद्धांतों के खिलाफ है। इस संदर्भ में, न्यायालय की टिप्पणी को एक 'मार्गदर्शन' या 'अपील' के तौर पर देखा जा सकता है ताकि संवैधानिक पदों पर बैठे व्यक्ति अपने कर्तव्यों का निर्वहन समयबद्ध तरीके से करें।

वरिष्ठ अधिवक्ता प्रशांत भूषण ने इस संदर्भ में कहा कि "हालांकि संविधान में कोई निश्चित समयसीमा नहीं है, लेकिन राष्ट्रपति या राज्यपालों को विधेयकों पर अनावश्यक रूप से विलंब नहीं करना चाहिए। सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी को एक सकारात्मक हस्तक्षेप के तौर पर देखा जा सकता है ताकि संवैधानिक प्रक्रिया सुचारू रूप से चलती रहे।"

हालांकि, इस टिप्पणी ने देश में संवैधानिक संकट की आशंकाओं को भी जन्म दिया है। यदि सुप्रीम कोर्ट आधिकारिक रूप से राष्ट्रपति के लिए समयसीमा निर्धारित करता है, तो यह कार्यपालिका और न्यायपालिका के बीच टकराव की स्थिति पैदा कर सकता है। राष्ट्रपति, जो देश के संवैधानिक प्रमुख हैं, क्या न्यायालय के इस प्रकार के निर्देश को मानने के लिए बाध्य होंगे, यह एक बड़ा सवाल है। यदि राष्ट्रपति न्यायालय के निर्देश को मानने से इनकार करते हैं, तो यह एक अभूतपूर्व संवैधानिक संकट की ओर ले जा सकता है।

इस पूरे मामले पर सरकार की ओर से अभी तक कोई आधिकारिक प्रतिक्रिया नहीं आई है। हालांकि, राजनीतिक गलियारों में इस टिप्पणी को लेकर चर्चाएं तेज हैं। विपक्षी दल इस मुद्दे को सरकार पर दबाव बनाने और संवैधानिक संस्थाओं की मर्यादा का सवाल उठाने के लिए इस्तेमाल कर सकते हैं।

अंततः, सुप्रीम कोर्ट की इस टिप्पणी का वास्तविक अर्थ और इसका भविष्य में क्या प्रभाव होगा, यह देखना महत्वपूर्ण होगा। क्या यह सिर्फ एक मौखिक अवलोकन था या न्यायालय भविष्य में इस संबंध में कोई आधिकारिक दिशा-निर्देश जारी करेगा? यदि ऐसा होता है, तो देश की संवैधानिक व्यवस्था और शक्ति पृथक्करण के सिद्धांत पर इसका क्या असर पड़ेगा? इन सवालों के जवाब आने वाले समय में ही मिल पाएंगे। फिलहाल, यह टिप्पणी संवैधानिक मर्यादाओं, न्यायिक सक्रियता और संभावित संवैधानिक संकट के बीच एक नई बहस का केंद्र बन गई है।

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