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Supreme Court: फिर शाहबानो जैसा केस, सुप्रीम कोर्ट ने गुजारा भत्ते पर लगाई मुहर

Supreme Court on Maintenance: अब्दुल समद नाम के एक शख्स ने अपनी पत्नी को गुजारा भत्ता देने के तेलंगाना हाई कोर्ट के आदेश को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी थी।

Anshuman Tiwari
Written By Anshuman Tiwari
Published on: 11 July 2024 1:05 PM IST (Updated on: 11 July 2024 1:06 PM IST)
muslim woman maintenance
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फिर शाहबानो जैसा केस  (photo: social media )

Supreme Court on Maintenance: सुप्रीम कोर्ट ने एक महत्वपूर्ण फैसले में कहा है कि तलाकशुदा मुस्लिम महिलायें गुजाराभत्ता पाने की हकदार है। शीर्ष अदालत के इस फैसले से 1985 के ऐतिहासिक शाहबानो बेगम मामले की यादें ताजा हो गईं हैं। इस बार भी सुप्रीम कोर्ट ने सीआरपीसी की धारा 125 के तहत गुजारा भत्ता मांगने के अधिकार पर मुहर लगा दी है।

शाह बानो के मामले में तत्कालीन राजीव गाँधी सरकार झुक गयी थी और उसने एक अधिनियम पास करवा दिया था जिसके चलते सुप्रीम कोर्ट का गुजारा भत्ता सम्बन्धी फैसला हे पलट गया था। ये भी महत्वपूर्ण तथ्य है कि उसी प्रकरण से भारत में सामान नागरिक संहिता की मांग को बल मिला।

क्या कहा कोर्ट ने

सुप्रीम कोर्ट की दो जजों की बेंच ने तलाकशुदा मुस्लिम महिलाओं को गुजारा भत्ता दिए जाने पर एक अहम फैसला सुनाते हुए कहा है कि मुस्लिम महिलाएं दंड प्रक्रिया संहिता (सीआरपीसी), 1973 की धारा 125 के तहत अपने तलाकशुदा पति से भरण-पोषण का दावा कर सकती हैं। जस्टिस बीवी नागरत्ना और जस्टिस ऑगस्टीन जॉर्ज मसीह की बेंच ने दो अलग-अलग लेकिन एकमत फैसलों में यह बात कही। जस्टिस नागरत्ना ने कहा कि सीआरपीसी की धारा 125 सिर्फ शादीशुदा महिलाओं पर ही नहीं बल्कि सभी महिलाओं पर लागू होगी।


क्या था मामला?

अब्दुल समद नाम के एक शख्स ने अपनी पत्नी को गुजारा भत्ता देने के तेलंगाना हाई कोर्ट के आदेश को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी थी। उस तलाकशुदा महिला ने सीआरपीसी की धारा 125 के तहत फैमिली कोर्ट में याचिका दायर की थी, जिसमें कहा गया था कि समद ने उसे तीन तलाक दिया है। फैमिली कोर्ट ने सुनवाई के बाद उसके पति को 20 हजार रुपये प्रति महीने गुजारा भत्ता देने का आदेश दिया। इसके बाद समद ने हाईकोर्ट में अपील की, जिसने 13 दिसंबर, 2023 को मामले का निपटारा करते हुए कहा कि "कई सवाल उठाए गए हैं, जिन पर फैसले लेने की जरूरत है।" हाईकोर्ट ने याचिकाकर्ता को अंतरिम भरण-पोषण के रूप में हर महीने दस हजार रुपये का भुगतान करने का निर्देश दिया था। इसके बाद समद ने सुप्रीम कोर्ट का रुख किया।


सुप्रीम कोर्ट में क्या हुआ?

सुप्रीम कोर्ट ने याचिका खारिज करते हुए कहा कि मुस्लिम महिला (तलाक पर अधिकारों का संरक्षण) अधिनियम 1986 धर्मनिरपेक्ष कानून पर हावी नहीं होगा। जस्टिस बीवी नागरत्ना ने अपने फैसले में कहा, हम इस नतीजे के साथ आपराधिक अपील खारिज कर रहे हैं कि सीआरपीसी की धारा 125 सभी महिलाओं पर लागू होगी, ना कि सिर्फ विवाहित महिलाओं पर।


सुप्रीम कोर्ट का फैसला क्यों है अहम

सुप्रीम कोर्ट के ताजा फैसले के महत्व को समझने के लिए 1985 में शाहबानो मामले पर वापस जाना होगा। इस ऐतिहासिक फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने फैसला सुनाया था कि सीआरपीसी की धारा 125 सभी पर लागू होती है, चाहे उनका धर्म कुछ भी हो। हालांकि, तत्कालीन राजीव गाँधी सरकार द्वारा बनाया गया मुस्लिम महिला (तलाक पर अधिकारों का संरक्षण) अधिनियम, 1986 द्वारा इसे कमजोर कर दिया गया था क्योंकि नए अधिनियम में कहा गया कि मुस्लिम महिला केवल इद्दत के दौरान (तलाक के 90 दिन बाद) ही गुजारा भत्ता मांग सकती है।

इसके बाद साल 2001 में सुप्रीम कोर्ट ने 1986 के अधिनियम की संवैधानिक वैधता को बरकरार रखा, लेकिन फैसला सुनाया कि तलाकशुदा पत्नी को गुजारा भत्ता देने का पुरुष का दायित्व तब तक जारी रहेगा जब तक वह दोबारा शादी नहीं कर लेती या खुद का भरण-पोषण करने में सक्षम नहीं हो जाती।


क्या है सीआरपीसी की धारा 125

दरअसल पत्नी के गुजारे भत्ते का मामला भले ही सिविल श्रेणी में आता हो लेकिन इसे कानून में इसे अपराध प्रक्रिया संहिता सीआरपीसी में धारा 125 के रुप में जगह दी गई है।

सीआरपीसी की धारा 125 में पत्नी, बच्चों और माता-पिता के भरण-पोषण को लेकर विस्तार से बताया गया है। इसमें कहा गया है कि अगर पर्याप्त साधनों वाला कोई व्यक्ति अपनी पत्नी का भरण-पोषण करने में उपेक्षा करता है या इनकार करता है जो अपना गुजारा चलाने में असमर्थ है, या फिर उसका वैध या नाजायज नाबालिग बच्चा, चाहे वह विवाहित हो या न हो, अपना भरण-पोषण करने में असमर्थ है तो वह गुजारा भत्ते का दावा कर सकते हैं।

इसके अलावा इसी धारा के तहत माता या पिता भी गुजारा भत्ते का दावा कर सकते हैं, हालांकि उन्हें दावा करते समय यह बताना होगा कि उनके पास आजीविका का कोई और साधन उपलब्ध नहीं है। इन दावों के साबित होने पर फर्स्ट क्लास मजिस्ट्रेट उस व्यक्ति को अपनी पत्नी या ऐसे बच्चे, पिता या माता के गुजारा भत्ता देने का आदेश जारी कर सकता है। गुजारा भत्ता कितना होगा यह भी मजिस्ट्रेट तय कर सकता है और कोर्ट के आदेश के बाद व्यक्ति को हर महीने एक तय राशि देनी होगी।

अब सुप्रीम कोर्ट के फैसले ने तलाकशुदा महिला के सीआरपीसी के तहत गुजारा भत्ता मांगने के आदेश को और मजबूत कर दिया है, चाहे उसका धर्म कुछ भी हो।


क्या था शाहबानो केस?

1985 का शाह बानो निर्णय भारत के संवैधानिक इतिहास में एक मील का पत्थर था, जिसमें धर्म के मामलों में एक धर्मनिरपेक्ष राज्य की भूमिका, धार्मिक सिद्धांतों और व्यक्तिगत अधिकारों तथा मुस्लिम पर्सनल लॉ में सुधार की आवश्यकता पर प्रश्न उठे थे।

हुआ ये था कि अप्रैल 1978 में शाह बानो नामक एक महिला ने इंदौर की एक अदालत में एक याचिका दायर की, जिसमें अपने तलाकशुदा पति मोहम्मद अहमद खान से भरण-पोषण की मांग की गई थी। इन दोनों की शादी 1932 में हुई थी और उनके पाँच बच्चे थे - तीन बेटे और दो बेटियाँ। शाह बानो का दावा दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 125 के तहत आधारित था, जो यह निर्धारित करता है कि एक आदमी को शादी के दौरान और तलाक के बाद अपनी पत्नी के लिए प्रावधान करना होगा यदि वह खुद को आर्थिक रूप से बनाए रखने में असमर्थ है। शाह बानो के पति मोहम्मद अहमद खान खुद एक बड़े वकील थे। उन्होंने इस आधार पर शाह बानो के दावे का विरोध किया कि मुस्लिम पर्सनल लॉ ने भरण-पोषण के भुगतान को केवल इद्दत की अवधि तक सीमित कर दिया है।

मामला सुप्रीम कोर्ट तक पहुंचा और अप्रैल 1985 में सर्वोच्च न्यायालय ने शाह बानो को भरण-पोषण के भुगतान का आदेश देने वाले उच्च न्यायालय के फैसले को बरकरार रखा। तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश वाई.वी. चंद्रचूड़ ने कहा कि धारा 125 का नैतिक आदेश उन लोगों को त्वरित और संक्षिप्त उपाय प्रदान करना था जो खुद का भरण-पोषण करने में असमर्थ हैं और नैतिकता को धर्म के साथ नहीं जोड़ा जा सकता है।


झुक गयी थी राजीव गाँधी सरकार

इस फैसले ने पूरे देश में हंगामा मचा दिया। तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी के नेतृत्व वाली केंद्र सरकार ने संसद में फैसले का बचाव करने के लिए तत्कालीन केंद्रीय मंत्री आरिफ मोहम्मद खान को मैदान में उतारा। लेकिन मुस्लिम मौलवियों और मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड द्वारा फैसले का कड़ा विरोध किए जाने के कारण यह रणनीति उल्टी पड़ गई। राजीव गांधी सरकार ने पलटवार किया और सुप्रीम कोर्ट के फैसले का विरोध करने के लिए एक अन्य मंत्री जेड ए अंसारी को मैदान में उतारा। इससे आरिफ मोहम्मद खान नाराज हो गए और उन्होंने सरकार छोड़ दी। इसके बाद राजीव गांधी सरकार मुस्लिम महिला (तलाक पर अधिकारों का संरक्षण) अधिनियम 1986 ले आई जिसमें तलाक के समय ऐसी महिला के अधिकारों को निर्दिष्ट करने की मांग की गई थी। एक तरह से इस अधिनियम ने सुप्रीम कोर्ट के फैसले को ही पलट दिया था। हिंदू दक्षिणपंथियों ने इस मौके पर समान नागरिक संहिता के लिए जोर देने के लिए अभियान सा छेड़ दिया। राजीव गांधी के सबसे गलत निर्णयों में से एक माने जाने वाले शाहबानो प्रकरण ने भारतीय मध्यम वर्ग को गहराई से नाराज कर दिया और इसके बाद धर्मनिरपेक्षता के आदर्शों को गहरी चोट लगी। बहरहाल, 1986 के अधिनियम की संवैधानिक वैधता को सर्वोच्च न्यायालय ने 2001 के दानियाल लतीफी मामले में बरकरार रखा था।


सामान नागरिक संहिता की मांग

शाह बानो मामले में ऐतिहासिक फैसले ने व्यक्तिगत कानून की व्याख्या की और लैंगिक समानता के मुद्दे से निपटने के लिए समान नागरिक संहिता की आवश्यकता पर भी जोर दिया। इस प्रकरण ने विवाह और तलाक के मामलों में मुस्लिम महिलाओं के लिए समान अधिकारों की नींव रखी।

Monika

Monika

Content Writer

पत्रकारिता के क्षेत्र में मुझे 4 सालों का अनुभव हैं. जिसमें मैंने मनोरंजन, लाइफस्टाइल से लेकर नेशनल और इंटरनेशनल ख़बरें लिखी. साथ ही साथ वायस ओवर का भी काम किया. मैंने बीए जर्नलिज्म के बाद MJMC किया है

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